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रोजाना एक ऐसी पोस्ट आप तक पहुंचाने का प्रयास रहेगा जो आपको बहुत गहरे तक छू सके।
बुधवार, 11 जनवरी 2023
बचपन, घरौंदा और जीवन
बुधवार, 23 नवंबर 2022
वन्य जीव कैसे कहेंगे अपना दर्द
उस फोटोग्राफ ने मुझे हतप्रभ भी कर दिया और मैं गहरे तक अंदर पत्थर हो गया क्योंकि मैं उस तस्वीर में मानव के भविष्य को सुस्पष्ट देख पा रहा था....ओह कितनी गहरी पीड़ा, दर्द और अनिश्चितता...। सुना था कि एक समय मानव कंद्राओं में निवास करता था, यह तस्वीर भी कुछ उसी युग की पुर्नरावृत्ति है। मप्र सागर के शशांक तिवारी की उस तस्वीर ने मेरे अंदर के संघर्ष को और अधिक बढ़ा दिया है। बुंदेलखंड सूख रहा है, पानी और जिंदगी दोनों ही चुनौती हैं, तापमान चढ़ता जा रहा है, जंगलों के सूखे जिस्म सुगल रहे हैं, कभी आग तो कभी तपिश के कारण वन्य जीवों का जीवन बेहद मुश्किल हो चला है। तस्वीर को कवर पेज पर लिया है, आप देख सकते हैं और संभवतः यह तस्वीर इस सदी की उन तस्वीरों में श्रेष्ठ कही जानी चाहिए जो सोई हुई हमारी भीड़ को झकझोरकर उठा सकती है, हमारी नींद छीन सकती है, हमें चिंतन को गहरे सागर की गर्त में उतर जाने को विवश कर सकती है। दर्द की इंतेहा है दोस्तों...।
40 के ऊपर तापमान जाता है हम घरों में दुबक जाते हैं, एसी और कूलर से घर को ठंडा कर लेते हैं और चैन की नींद सो जाते हैं, बढ़ते तापमान के सच को पीठ दिखाकर लेकिन ये वन्य जीव कहां जाएं, क्या करें, किनसे कहें, कैसे बचें, कौन सुनेगा, कौन महसूस करेगा, कब महसूस करेगा और कैसे संरक्षित होगा इनका जंगल, ऐसे बहुत सारे सवाल ही सवाल हैं वह भी सुलग रहे हैं लेकिन जवाब नहीं है। सोचिएगा कि हमें ऐसी दुनिया मिली जिसमें सब कुछ अपने आप संचालित था, समय तय था और बिना अर्थ और तर्क कुछ भी नहीं लेकिन हमने इसी दुनिया में अपनी भी एक दुनिया बनाई जिसमें केवल स्वार्थ था, भौतिक सुखों की आपाधापी और अनिश्चितता की खोह। सोचिएगा उस तस्वीर को और देखिएगा परिवार के साथ बैठकर, मंथन कीजिएगा कि सूखे जंगल में तपते पत्थरों के नीचे यदि हम होंगे और हमारा परिवार होगा तब हम कैसे जीएंगे क्योंकि हालात यही रहे तो यह सच सामने आएगा, बेशक जंगल के पत्थरों के नीचे हम न भी छिपें लेकिन कांक्रीट के जंगल के बीच हमने जो आलीशान घर बनाए हैं वह भी तापमान बढ़ने पर उन्हीं चट्टानों की तरह बर्ताव करेंगे और हम उन घरों में इसी अवस्था में दुबके इस बीत चुके आज जो कल हाथ नहीं आएगा को सोच रहे होंगे और अपनी नाकामी पर उन्हीं दीवारों से सिर पीट रहे होंगे क्योंकि तपती चट्टानों में छिपे वन्य जीवों से बेशक उनके बच्चे कोई सवाल नहीं पूछेंगे लेकिन आपके बच्चे अवश्य सवाल पूछेंगे कि बताईये हमारा कसूर क्या था ? क्योंकि वे वन्य जीव तो कह नहीं सकते और हम तब मूक हो जाएंगे क्योंकि हमारे पास जवाब नहीं होगा केवल एक गहरा सन्नाटा होगा जिसमें हम एक छोटी सी उम्र बडी सी मुश्किलों के अनुबंध में जी रहे होंगे। तब न कोई सपना होगा, न मंजिल, न टारगेट और न ही कोई होड़। केवल जिंदगी को जीने का संघर्ष रोज, हर घंटे, हर मिनट हमारी दिनचर्या का हिस्सा होगा।
इस तस्वीर के लिए आदरणीय शशांक जी को मैं साधुवाद देना चाहता हूं कि उनकी कोई नज़र तो थी जो वे वहां ठिठक गए और इतिहास को आईना दिखाने वाली तस्वीर वे ले आए और वर्तमान को सौंप दी। मैं यहां आभार कहना चाहता हूं अपने एक गहरे और विचारों में बेहद करीब आ चुके मित्र माधव चंद्र चंदेल जी जो शैक्षिक मल्टी मीडिया अनुसंधान केंद्र (ईएमएमआरसी), सागर के प्रोडयूसर हैं, यहां उनका जिक्र दोस्तों इसलिए भी लाज़मी है कि शशांक जैसे साथियों से मिलवाने और हमें समय-समय पर प्रकृति को लेकर बेहतर होने में उनका सहयोग हमेशा मिलता रहा है। दोस्तों संभलिए कि कोई और जहां नहीं है जो हमें समझाएगा कि अब हमें प्रकृति के चीत्कार को सुनना, समझना होगा और सुधार को बिना शर्त बढना होगा। वरना आज केवल जंगल जल रहा है, लेकिन अब भी वह है लेकिन ऐसा न हो कि कल न जंगल हो और हमें बिना हरियाली, हवा और पानी के जीने की आदत डालनी आवश्यक हो जाए।
संदीप कुमार शर्मा, प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन
बुधवार, 28 सितंबर 2022
प्रेम प्रतिबिंब होता है
सोमवार, 26 सितंबर 2022
सोचिए हम क्या अंकुरित कर रहे हैं..?
मंगलवार, 16 अगस्त 2022
किसी को बादल...किसी को बाढ़...
हे ईश्वर ये कैसा दौर है, कहीं बारिश का इंतज़ार है तो कहीं बारिश प्रलय कही जा रही है। यह कैसा दौर है जो हिस्से सूखे रह जाया करते थे आज बाढ़ की चपेट में हैं और जहां प्रचुर बारिश थी वहां औसत बारिश भी नहीं हुई...। यकीन मानिए कुछ तो बदला है हमने और हमारी सनक ने...। प्रकृति का अपना नजरिया है और वह सालों से जांचा परखा है...। हमने नदियों को रास्ता नहीं दिया उनके रास्ते में आ गए, हमने नदियां खत्म कीं, जंगल उजाड़े, प्रकृति को ताकत देने वाले पौधे हमने नकार दिए, हमें स्वाभाविक प्रकृति पसंद नहीं है, हमें प्रचंड गर्मी में अथाह ठंडक चाहिए, हमें ठंड में कृत्रिम गर्मी चाहिए...। हमें बारिश केवल बाढ़ की तरह ही आफत लगती है, हमें बच्चों से प्रकृति पर बात करना पसंद नहीं है, हम पक्के घर, शहर और सीमेंट जैसी मानसिकता को अपना चुके हैं...। दोष किसी को मत दीजिए सालों प्रकृति ने संतुलित बंटवारा किया, अब जो हो रहा है वह हमारी जिद है, हमारी सनक है...। एक खूबसूरत दुनिया हमने ऐसी बना दी है... सोचिएगा... अभी बहुत है जिसे समझना होगा...। पहले कच्चे घर और दालान होते थे, रौशनदान होते थे, गांव में लगभग हर घर एक वृक्ष होता था, हरेक के पास समय होता था, मौसम पर बात होती थी। तब एक सप्ताह की झड़ी होती थी लेकिन आपदा नहीं होती थी, सुव्यवस्थित नगर संयोजन था, बारिश के पहले नालियां और नाले साफ होते थे, नदियां स्वतंत्र अपनी राह बहती थीं, हम खुश रहते थे, दूसरों के साथ मिलकर चलते थे, बारिश की मनुहार में गीत गाए जाते थे... अब सबकुछ बदल गया है...। क्या करें ...बस चिंतन कीजिए...।
बुधवार, 10 अगस्त 2022
‘बाढ़ ढोते शहर’ दोषी कौन...?
शनिवार, 30 जुलाई 2022
ये जो मन है ना...
यह मन उम्मीदों के गुब्बारे जैसा है, हर पल नई उम्मीद, बस खोजता ही रहता है। कई दफा मन की दुनिया हकीकत से उलट सोचती है। मन का आधार भाव और भावनाएं हैं वहीं दिमाग तर्क पर फैसले सुनाता है। सोचता हूँ निर्णय के लिए उस परम पिता ने यह दो तरीके क्यों रखे होंगे। क्या केवल तर्क पर निर्णय ठीक नहीं होते या केवल भावनाओं पर फैसलों पर सवाल उठते हैं? इस दुनिया को उस परमात्मा ने खूबसूरती से रचा है, केवल तर्क की दुनिया सख्त और बहुत सख्त हो जाती तो संभवतः ये मन की दुनिया रचाई... जैसे बिना खुशबू फूल का महत्व नहीं है... वैसे ही जीवन में भाव और भावनाओं का भी महत्व है। मन दिमाग की परवाह नहीं करता और दिमाग मन से बगावत करता रहता है। मन अपनी दुनिया रचता है, बसाता है, बुनता है लेकिन यह भी सच है केवल खुशबू से ही फूल और जीवन सुरक्षित नहीं रह सकते, उसकी सुरक्षा का निर्धारण दिमाग करता है। इन दोनों के बीच सामन्जस्य बैठाना जरूरी होता है। तारतम्यता जरूरी है क्योंकि मन भाव की भाषा जानता है और दिमाग के अपने सख्त अध्याय होते हैं। यह विषय बहुत मंथन का है... ईश्वर ने दोनों दिए हैं तो अर्थ दोनों का है...। समझिए और निर्णय लीजिए।
बचपन, घरौंदा और जीवन
कितना आसान था बचपन में पलक झपकते घर बनाना... और उसे छोड़कर चले जाने का साहस जुटाना... और टूटने पर दोबारा फिर घर को गढ़ लेना...। बचपन का घर बेश...
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सुबह कभी खेत में फसल के बीच क्यारियों में देखता हूँ तो तुम्हारी बातों के सौंधेपन के साथ जिंदगी का हरापन भी नज़र आ ही जाता है...। सोचता हूँ मु...
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फ्रांस का अध्ययन है कि 2000 से 2020 के बीच ग्लेशियर के मेल्ट होने की स्पीड दोगुनी हो चुकी है ये उनका अपना अध्ययन है, क्या करेंगे ग्लेशियर। स...
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लघुकथा अक्सर होता ये था कि पूरे साल में गर्मी का मौसम कब बीत जाता था पता ही नहीं चलता था क्योंकि घर के सामने रास्ते के दूसरी ओर नीम का घना व...