बुधवार, 22 फ़रवरी 2023

हम विकसित हैं तो नजर क्यों नहीं आते






पता नहीं इस पर शर्म आनी चाहिए या गर्व...क्योंकि इतनी खूबसूरत प्रकृति में जब हमें सही तरीके से जीते ही नहीं आया, समझ ही नहीं आया तब हम उसका शोषण करने लगे और उसके आदी हो गए, अपने नगरों और घरों के आसपास हमने कचरों के कुछ ऐसे पहाड़ बना लिए हैं। कैसे समझा सकता हूं कि हमारे ही शहर हैं, हमारे ही घर हैं और उन घरों शहरों के बीच हम भागते रहते हैं और जहां हमें सबसे अधिक सुकून मिलना चाहिए वहां हमें बदबू और बीमारियां मिलती हैं। हम अपने शहरों की बेहतर बसाहट पर कतई गंभीर नहीं है क्योंकि हमारा मन कचरा फैंकते समय एक पल के लिए हमें नहीं धिक्कारता है कि हम आखिर कर क्या रहे हैं....और हम सभी का कचरा जब एकत्र होता जाता है तब वह एक ऐसा खौफनाक चेहरा इख्तियार कर लेता है जिसे देखकर हमें तब भय लगना आरंभ होता है जब उससे बदबू आती है और आसमान पर सितारों की जगह अधिकांश कौवे और चील ही नजर आती हैं। 

कोई नहीं...हम न जागें किसी का कुछ भी नहीं खराब होगा, हमारा स्वास्थ्य, हमारा जीवन, हमारे बच्चों का भविष्य और हमारी उम्र की सांझ ही कालिख भरी होगी। बसाहट जरुरी है, वे पुरातन संस्कृति की बसाहट वाले नगर जो खुदाई के बाद भी सुव्यवस्थित निकले वह हमसे बेहतर थे, हम बेशक विज्ञान के युग का झुनझुना बजाएं लेकिन हकीकत यह है कि हमें अपने नगरों की बसाहट और हमारे जीवन के आसपास के माहौल को बेहतर तरीके से बुनना तक नहीं आया। खैर, समझिये कि एक थैली कचरा हम बेतरतीब तकीके से फैंकना आरंभ करेंगे तो वह कल हमारे लिए ही संकट बनेगा। कचरा चाहिए या जीवन...नगर के मुहाने पर पहले स्वागत द्वार बनाए जाते थे और अब कचरे के पहाड़ स्वतः ही आकार ले लेते हैं....वाकई हम विकसित समय के रहवासी हैं....तभी तो हम इस सुखद धरा और प्रकृति को मटियामेट कर उसे छोड़कर कभी मंगल और कभी चांद पर भागने की प्लानिंग बना रहे हैं। यदि हम वाकई विकसित हो रहे हैं तो हमारे आचार व्यवहार में वह नजर क्यों नहीं आता ?


संदीप कुमार शर्मा, संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका 

photograph@sandeepkumarsharma

बुधवार, 11 जनवरी 2023

बचपन, घरौंदा और जीवन

कितना आसान था बचपन में पलक झपकते घर बनाना... और उसे छोड़कर चले जाने का साहस जुटाना... और टूटने पर दोबारा फिर घर को गढ़ लेना...। बचपन का घर बेशक  छोटा और कमजोर होता था... अपरिपक्व सोच लेकिन उसे आकार दे दिया करती थी...घर बनाकर हर बार खिलखिलाती। कितना कुछ बदल जाता है हमारे अल्लहड़ होने से सयाने होने तक। बचपन कई घर बनाता है और सयाने होने पर बमुश्किल एक...या नहीं। बावजूद इसके सयानेपन वाले घर में भी बचपन का घर ही क्यों याद आता है... इसके जवाब सर्वथा भिन्न हो सकते हैं। हममें से कई सोचेंगे कि बचपन तो बचपन होता है... हकीकत की जमीन बेहद सख्त है। यदि बचपन वाकई बेअसर है तो साहित्य और शब्दों में उसकी आवश्यकता क्या है...? यदि बचपन हमारे बड़े होने तक जरूरी है तो वह पीछे क्यों छूट जाता है। बचपन के महकते घर बेशक मिनटों में धराशायी हो जाया करते हैं लेकिन उनकी दीवारें सालों हमारे जीवन के भाव सहेजती हैं। हमें अपने सयानेपन के घर में वह सुख तलाशना पड़ता है जो बचपन का घर स्वतः दे दिया करता था। खैर समय की पीठ पर सवार बचपन हमें छोड़ हजार योजन दूर निकल जाता है... हमें सयानेपन की चौखट पर छोड़कर।।। उम्र कई बार पलटकर देखती है उस मासूमियत को मुस्कुराता पाती है... और ठंडी श्वास लेकर मशीन हो जाती है। सयानेपन के घर की दीवारें और कायदे हम बनाते हैं और बचपन के घर के कोई कायदे नहीं होते क्योंकि बचपन बेकायदा और निर्मल होता है। बहरहाल जीवन में हम सयानेपन से कायदे गढ़ लेते हैं लेकिन वही हमारे लिए एक दिन तंगहाल हो जाते हैं... कायदों में जीने वाले हम बेकायदा होकर बचपन पर लंबी जिरह का हिस्सा हो जाते हैं। खैर, जिंदगी अपनी अपनी चाहे जैसे बुनों...कौन रोक सकता है...?

बुधवार, 23 नवंबर 2022

वन्य जीव कैसे कहेंगे अपना दर्द



उस फोटोग्राफ ने मुझे हतप्रभ भी कर दिया और मैं गहरे तक अंदर पत्थर हो गया क्योंकि मैं उस तस्वीर में मानव के भविष्य को सुस्पष्ट देख पा रहा था....ओह कितनी गहरी पीड़ा, दर्द और अनिश्चितता...। सुना था कि एक समय मानव कंद्राओं में निवास करता था, यह तस्वीर भी कुछ उसी युग की पुर्नरावृत्ति है। मप्र सागर के शशांक तिवारी की उस तस्वीर ने मेरे अंदर के संघर्ष को और अधिक बढ़ा दिया है। बुंदेलखंड सूख रहा है, पानी और जिंदगी दोनों ही चुनौती हैं, तापमान चढ़ता जा रहा है, जंगलों के सूखे जिस्म सुगल रहे हैं, कभी आग तो कभी तपिश के कारण वन्य जीवों का जीवन बेहद मुश्किल हो चला है। तस्वीर को कवर पेज पर लिया है, आप देख सकते हैं और संभवतः यह तस्वीर इस सदी की उन तस्वीरों में श्रेष्ठ कही जानी चाहिए जो सोई हुई हमारी भीड़ को झकझोरकर उठा सकती है, हमारी नींद छीन सकती है, हमें चिंतन को गहरे सागर की गर्त में उतर जाने को विवश कर सकती है। दर्द की इंतेहा है दोस्तों...। 

40 के ऊपर तापमान जाता है हम घरों में दुबक जाते हैं, एसी और कूलर से घर को ठंडा कर लेते हैं और चैन की नींद सो जाते हैं, बढ़ते तापमान के सच को पीठ दिखाकर लेकिन ये वन्य जीव कहां जाएं, क्या करें, किनसे कहें, कैसे बचें, कौन सुनेगा, कौन महसूस करेगा, कब महसूस करेगा और कैसे संरक्षित होगा इनका जंगल, ऐसे बहुत सारे सवाल ही सवाल हैं वह भी सुलग रहे हैं लेकिन जवाब नहीं है। सोचिएगा कि हमें ऐसी दुनिया मिली जिसमें सब कुछ अपने आप संचालित था, समय तय था और बिना अर्थ और तर्क कुछ भी नहीं लेकिन हमने इसी दुनिया में अपनी भी एक दुनिया बनाई जिसमें केवल स्वार्थ था, भौतिक सुखों की आपाधापी और अनिश्चितता की खोह। सोचिएगा उस तस्वीर को और देखिएगा परिवार के साथ बैठकर, मंथन कीजिएगा कि सूखे जंगल में तपते पत्थरों के नीचे यदि हम होंगे और हमारा परिवार होगा तब हम कैसे जीएंगे क्योंकि हालात यही रहे तो यह सच सामने आएगा, बेशक जंगल के पत्थरों के नीचे हम न भी छिपें लेकिन कांक्रीट के जंगल के बीच हमने जो आलीशान घर बनाए हैं वह भी तापमान बढ़ने पर उन्हीं चट्टानों की तरह बर्ताव करेंगे और हम उन घरों में इसी अवस्था में दुबके इस बीत चुके आज जो कल हाथ नहीं आएगा को सोच रहे होंगे और अपनी नाकामी पर उन्हीं दीवारों से सिर पीट रहे होंगे क्योंकि तपती चट्टानों में छिपे वन्य जीवों से बेशक उनके बच्चे कोई सवाल नहीं पूछेंगे लेकिन आपके बच्चे अवश्य सवाल पूछेंगे कि बताईये हमारा कसूर क्या था ? क्योंकि वे वन्य जीव तो कह नहीं सकते और हम तब मूक हो जाएंगे क्योंकि हमारे पास जवाब नहीं होगा केवल एक गहरा सन्नाटा होगा जिसमें हम एक छोटी सी उम्र बडी सी मुश्किलों के अनुबंध में जी रहे होंगे। तब न कोई सपना होगा, न मंजिल, न टारगेट और न ही कोई होड़। केवल जिंदगी को जीने का संघर्ष रोज, हर घंटे, हर मिनट हमारी दिनचर्या का हिस्सा होगा। 

इस तस्वीर के लिए आदरणीय शशांक जी को मैं साधुवाद देना चाहता हूं कि उनकी कोई नज़र तो थी जो वे वहां ठिठक गए और इतिहास को आईना दिखाने वाली तस्वीर वे ले आए और वर्तमान को सौंप दी। मैं यहां आभार कहना चाहता हूं अपने एक गहरे और विचारों में बेहद करीब आ चुके मित्र माधव चंद्र चंदेल जी जो शैक्षिक मल्टी मीडिया अनुसंधान केंद्र (ईएमएमआरसी), सागर के प्रोडयूसर हैं, यहां उनका जिक्र दोस्तों इसलिए भी लाज़मी है कि शशांक जैसे साथियों से मिलवाने और हमें समय-समय पर प्रकृति को लेकर बेहतर होने में उनका सहयोग हमेशा मिलता रहा है। दोस्तों संभलिए कि कोई और जहां नहीं है जो हमें समझाएगा कि अब हमें प्रकृति के चीत्कार को सुनना, समझना होगा और सुधार को बिना शर्त बढना होगा। वरना आज केवल जंगल जल रहा है, लेकिन अब भी वह है लेकिन ऐसा न हो कि कल न जंगल हो और हमें बिना हरियाली, हवा और पानी के जीने की आदत डालनी आवश्यक हो जाए।  

संदीप कुमार शर्मा,  प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन 

बुधवार, 28 सितंबर 2022

प्रेम प्रतिबिंब होता है

 


यकीन कीजिए प्रेम प्रतिबिंब होता है और मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ क्योंकि आप देखिएगा किसी सुर्ख गुलाब को देखने पर ही हमारे अंदर भाव अनुभूति बनकर संचारित होते हैं, अनुराग जागता है, नज़रिया बदलता है और हम प्रेम का स्पर्श पाने लगते हैं। हमें अक्सर प्रेम का आकर्षण पसंद होता है, हम उसे बांध लेना चाहते हैं लेकिन प्रेम सौंदर्य का चेहरा है और सौंदर्य की अपनी आयु है उसके पश्चात वह पतझड़ सा झड़ने लगता है, सौंदर्य को पा लेने और उसे अधिग्रहित कर लेने के भाव हमें असहज बनाते हैं। आपने चंद्रमा पानी में देखा होगा, बस वही प्रेम है। कारण है चंद्रमा का अक्स उस पानी की सतह पर जितनी देर स्थिर है प्रेम का वही क्षणिक भाव हमारे लिए उपलब्ध है। प्रेम की यह क्षणिक अनुभूति ही आपको सार्थक बना जाती है। सौंदर्य पर एक बात हमेशा कहता हूँ कि उसे आप केवल महसूस कीजिये उसे छूने का प्रयास न करें... वरना या तो आप खत्म होंगे या वह सौंदर्य। प्रेम और उसका प्रतिबिंब तभी तक है जब तक आप उसे महसूस कर रहे हैं। आपने पक्षियों को देखा होगा वह प्रकृति से अनूठा प्रेम करते हैं, पूरी उम्र अनेक वृक्षों की शाखाओं पर बैठते और उड़ते हैं, हर वृक्ष की कुशलक्षेम पूछते हैं, किसी एक पर ठहरते नहीं हैं। अगर हम कहें कि प्रेम में सौंदर्य ही सर्वश्रेष्ठ होता है तो फिर झुर्रियों वाली उम्रदराज मां क्यों जिंदगी का अहम हिस्सा होती है, प्रेम में यदि चेहरा ही सबकुछ होता है तो साथ जीती पत्नी उम्र बढ़ने पर हमारे और करीब कैसे होती है ? प्रेम का शरीर नहीं होता, वह वैसे ही नज़र आएगा जैसा हम चाहेंगे...। प्रेम की अनुभूति को हम एक अध्याय मानकर अपने जीवन की डायरी का एक पन्ना बना लेते हैं, पूरी उम्र उसे पढ़कर आनंदित होते हैं। जब जब हम प्रेम को समझ पाने में नाकाम होते हैं हम अंदर से गुस्सैल और स्वार्थी हो उठते हैं, हम असल नहीं देखते, उस अनुराग को हर हाल में हासिल कर लेना चाहते हैं, यह अवस्था हमें अपने से कोसों दूर ले जाती है। प्रतिबिंब प्रेम का चेहरा है जिसे आप बेहद करीब से देख सकते हैं। प्रेम को समझना कोई दर्शन नहीं है, एक सीधी सी गढ़ी हुई इबारत है... पढ़ जाईये यह आपके अंदर ताउम्र महकता रहेगा।।



सोमवार, 26 सितंबर 2022

सोचिए हम क्या अंकुरित कर रहे हैं..?

सोचना होगा हम क्या अंकुरित कर रहे हैं...

स्कूल शिक्षा के लिए हैं, बच्चे सीखते हैं, किताबों से, प्रायोगिक तरीकों से...। आज प्रकृति और वन्य जीव खतरे में हैं... समझना मुश्किल है कि कैसे बचेंगे...? हमें सही अंकुरण बच्चों में करना होगा... आपने इस तरह जीवों की प्रतिकृति अनेक स्कूलों, सार्वजनिक स्थानों पर देखी होंगी...। हम बो रहे हैं बच्चों के विचारों में कि इन प्रतिकृति में कचरा भर सकते हैं...। सोचिए वह किन उदाहरणों और सबकों के साथ बड़ा होगा... और ऐसे में वह प्रकृति और वन्य जीवों के प्रति कितना सकारात्मक होगा... समझना मुश्किल नहीं है...। हम कोमल मन पर जो लिखेंगे वही हमेशा के लिए छप जाएगा... और हम उन्हें यह क्यों बता रहे हैं कि इनके पेट कचरा भरने को हैं... बेहतर होता कचरा पेटी बिना शक्ल के ही होती...। ऐसा मत कीजिए।  बच्चों को समझाईये और यह प्रतिकृति रखिए लेकिन इसलिए कि इन्हें संरक्षित करना है, इन्हें बचाना है...। बच्चे अबोध होते हैं लेकिन हम पढ़े लिखे हैं... सोचिए कि कुछ तो भी सिखाया तो पीढ़ियां कचरा. हो जाएंगी फिर ढोते रहिएगा उन्हें बर्बाद प्रकृति के बीच बेदम बनाकर...। 

संदीप कुमार शर्मा, 
संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका।
मोबाइल- 8191903651

मंगलवार, 16 अगस्त 2022

किसी को बादल...किसी को बाढ़...

हे ईश्वर ये कैसा दौर है, कहीं बारिश का इंतज़ार है तो कहीं बारिश प्रलय कही जा रही है। यह कैसा दौर है जो हिस्से सूखे रह जाया करते थे आज बाढ़ की चपेट में हैं और जहां प्रचुर बारिश थी वहां औसत बारिश भी नहीं हुई...। यकीन मानिए कुछ तो बदला है हमने और हमारी सनक ने...। प्रकृति का अपना नजरिया है और वह सालों से जांचा परखा है...। हमने नदियों को रास्ता नहीं दिया उनके रास्ते में आ गए, हमने नदियां खत्म कीं, जंगल उजाड़े, प्रकृति को ताकत देने वाले पौधे हमने नकार दिए, हमें स्वाभाविक प्रकृति पसंद नहीं है, हमें प्रचंड गर्मी में अथाह ठंडक चाहिए, हमें ठंड में कृत्रिम गर्मी चाहिए...। हमें बारिश केवल बाढ़ की तरह ही आफत लगती है, हमें बच्चों से प्रकृति पर बात करना पसंद नहीं है, हम पक्के घर, शहर और सीमेंट जैसी मानसिकता को अपना चुके हैं...। दोष किसी को मत दीजिए सालों प्रकृति ने संतुलित बंटवारा किया, अब जो हो रहा है वह हमारी जिद है, हमारी सनक है...। एक खूबसूरत दुनिया हमने ऐसी बना दी है... सोचिएगा... अभी बहुत है जिसे समझना होगा...। पहले कच्चे घर और दालान होते थे, रौशनदान होते थे, गांव में लगभग हर घर एक वृक्ष होता था, हरेक के पास समय होता था, मौसम पर बात होती थी। तब एक सप्ताह की झड़ी होती थी लेकिन आपदा नहीं होती थी, सुव्यवस्थित नगर संयोजन था, बारिश के पहले नालियां और नाले साफ होते थे, नदियां स्वतंत्र अपनी राह बहती थीं, हम खुश रहते थे, दूसरों के साथ मिलकर चलते थे, बारिश की मनुहार में गीत गाए जाते थे... अब सबकुछ बदल गया है...। क्या करें ...बस चिंतन कीजिए...। 

 

बुधवार, 10 अगस्त 2022

‘बाढ़ ढोते शहर’ दोषी कौन...?

 
राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ का अगस्त माह का अंक तैयार है....तकनीकी कारणों से देरी से आ रहा है इसलिए क्षमाप्रार्थी हैं। आवरण पर ख्यात वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर अखिल हार्डिया, इंदौर, मप्र का फोटोग्राफ है...। अंक इस लिहाज से महत्वपूर्ण है क्योंकि बाढ़ अब एक चुनौती बनती जा रही है, हमने सवाल उठाए हैं कि क्या केवल नदियां दोषी हैं बाढ़ के लिए....या हमें नगर नियोजन की समझ कम हैं या हमारा नगर नियोजन ठीक होना चाहिए...? महत्वपूर्ण सवाल उठाता यह अंक देखिएगा...।
यह अंक ऐप भी उपलब्ध है...ऐप आप गूगल प्ले स्टोर से डाउनलोड कर सकते हैं..। ऐप पर पत्रिका के कुछ अंक पूरी तरह से निःशुल्क हैं। आप यदि पहली बार पत्रिका देख रहे हैं और पढ़ना चाहते हैं तो आप अपना व्हाटसऐप नंबर 8191903651 पर भेज सकते हैं, अपने संपूर्ण परिचय के साथ, ये भी लिखिएगा आप पाठक हैं या लेखक हैं। 
आभार...


संदीप कुमार शर्मा
संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका


 

हम विकसित हैं तो नजर क्यों नहीं आते

पता नहीं इस पर शर्म आनी चाहिए या गर्व...क्योंकि इतनी खूबसूरत प्रकृति में जब हमें सही तरीके से जीते ही नहीं आया, समझ ही नहीं आया तब हम उसका श...