अरसा हो गया बारिश में नहाये हुए

उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर देखिए...जिंदगी कुछ और दिखलाएगी...कुछ और बहुत खास जिसे हम कभी भी इस भौतिकता से भरी तंगहाल और कायदों में लिपटी जिंदगी में महसूस नहीं कर पाए होंगे। लगता होगा हम सभी को कि हम कहीं बंध से गए हैं, कौन से तार हैं ये जिन्होंने हमें अपने में भींच रखा है और किसने बुने हैं यह तार...! बारिश होती है और मन भी कहीं न कहीं भीगने को, नहाने को, बूंदों और उस रसभरे मौसम से आंखें मिलाने को करता ही होगा लेकिन हमारे कायदों की चुभन ने हमें छोटी सी बालकनी के कोने में चिपटा रहने वाला एक खिसयाया सा इंसान बना दिया है, हम अंदर ही अंदर कठिन शब्द से हो गए हैं जिन्हें याद करना बच्चों के लिए बचपन में और बड़ा हो जाने के बाद हमारे स्वयं के लिए भी मुश्किल है। कौन जानें बूंदों का यह काफिला आने वाले सालों में हमारे दयार से निकले ही ना....कौन जाने कल, कौन जाने क्या हो जब बादल सूख जाएं और केवल गर्म हवाओं को और सूरज की तपिश को रोकने वाले किसी पंडाल की तरह ही उपयोग में आएं! कौन जाने....फिर काहे इतना सोच रहे हैं, क्यों खामोश हैं। मन मचल रहा है तो निकल जाईये ना, पड़ोसी कुछ नहीं कहेगा, कुछ नहीं सोचेगा और सोचे तो सोचे...वह उलझा है तो उलझा रहे...हम तो मुक्त हो जाएं, हां संभव है कि धीरे-धीरे ही सही वह यह अवश्य सोचने लगे कि देखो वह उम्रदराज होकर भी बारिश में भीग रहे हैं, हम छत पर तो चल ही सकते हैं। खैर मैं तो जिंदगी को इसी तरह जान पाया हूं कि यदि आप बेकार की परवाह करते हैं और अपने को भींचते जाते हैं तो आप एक ऐसे जंगल में सफर कर रहे होते हैं जहां पगडंडी तो है लेकिन उसे संकरा बना दिया गया है ताकि कोई निकल ना पाए लेकिन यदि आप निकलेंगे तो वह संकरा रास्ता भी मंजिल का चेहरा दिखाने लगेगा और जंगल बदनाम होने से बच जाएगा। बहरहाल सोचिएगा कि पहले खूब बारिश, फिर घटती बारिश, फिर खंड बारिश और धीरे धीरे सबकुछ सिमटता जा रहा है, मत रोकिए और मत सोचिए क्योंकि शायद यह बारिश, यह आनंद, बूंदों की छुअन का यह अहसास आने वाली पीढ़ियों के हिस्से बहुत कम हो या ना हो। 

बीते दिनों में सोशल मीडिया पर एक उम्र दराज कपल का बारिश में एक पुराने गाने पर भीगते हुए वीडियो खूब वायरल हुआ, हम सभी ने देखा भी और सराहा भी लेकिन हम फिर हार गए, अपने आप से, दिखावे वाली जिंदगी से, उलझनों से, अपनी वैचारिक कमजोरियों से...। दरअसल हम जीना तो चाहते हैं लेकिन हमने दिखावे वाले जो कायदों का जंजाल बना रखा है उससे मुक्त होना हमारे लिए बेहद मुश्किल है, हारिये मत क्योंकि प्रकृति हमें जीतता देखकर खुशी से झूम उठती है....।

संदीप कुमार शर्मा

हम अपनी हद खोजना आरंभ करें

हम भी कितने गजब प्राणी हैं कि यह जानते हुए भी कि हमारा गुजारा इस प्रकृति के बिना नहीं है फिर भी तमाम तरह की नौटंकी करते हुए हम अपना जीवन जी ही लेते हैं, बहानों का हमारे पास अंबार है, हमें अपने आप को धोखा देना सबसे अधिक आता है, जबकि सबसे कठिन यही होता है, बहरहाल हमें जब प्रकृति में सौदर्य देखना है तो हम आंखें मूंदकर उसमें खो जाने का अद्भुत नाटक करते हैं, तपते शरीर पर बारिश की बूंदों के गिरते ही हम प्रकृति को हजार धन्यवाद देते हुए आसमान की ओर देखते हैं, इसी तरह नदियों मेंं स्वच्छ ठिकानों पर हम पूरे मनायोग से स्नान करते हैं और अपने पापों के प्रायश्चित की प्रार्थना करते हैं लेकिन उसी नदी के दूषित हिस्से को देखते ही मुंह फेर लेते हैं...हैं ना हम गजब के...। जब आवश्यकता न हो तो हमें प्रकृति के विषय पर नीरसता नजर आती है, हमें उस पर बात करना भी समय की बर्बादी लगने लगती है और हम आंख कान बंद कर उसकी ओर पीठ कर लेते हैं लेकिन जब बारिश नहीं होती, तालाब और कुएं खाली रह जाते हैं और लगता है कि अब यदि बारिश नहीं हुई तो प्यास कैसे बुझाएंगे....हम फिर प्रकृति के प्रति निश्छिल भाव से समर्पित होकर उसकी आराधना में जुट जाते हैं, यदि कुछ ही दिन बारिश सतत हो जाए तो हम उसी नदी को कोसने लगते हैं जिस नदी के हिस्से बैठकर हम स्नान करते समय अपने पाप धोने की गुहार लगाकर आए थे...। कैसा सबकुछ गजब है न कि यह हमारा नेचर हो गया है कि हम नेचर को केवल अपने अनुसार ढालना और उसका फायदा उठाना चाहते हैं, लेकिन जब हमें उस पर कार्य करना चाहिए तब हम आंखें मूंदकर अपने अपने आशियानों में कैद हो जाते हैं। ये तो और भी गजब है कि नदियों के आसपास का व्यू दिखाकर हमें मकान बनाने का सपना दिखाया जाता है और हम वहां बस जाते हैं लेकिन जब नदी का प्रवाह आता है तब हम उसे देख खौफ के कारण नदी को दोषी ठहराने लगते हैं...तो भईया कौन किसके हिस्से घुसा है सोचिएगा। नदी, जंगल, वन्य जीव या प्रकृति  का कोई भी तत्व हमें अपने स्वतः नुकसान नहीं पहुंचाता, वह तो हम उसके रास्ते में स्वतः आते हैं और बर्बाद होने पर चीखने लगते हैं। सोचता हूं अदना सा आदमी कितने फरेब पाल लेता है अपने मन में और हर बार हारता है लेकिन हर बार छलता है...? सीखिएगा क्योंकि प्रकृति का मूल समरसता है और वह गतिमान है लेकिन हम यदि मुगालते पहन उसकी राह में आएंगे तो तिनके की तरह हर बार उछाल दिए जाएंगे...बेहतर है प्रकृति की हद नापने की सनक को भूल कर अपनी हद दोबारा खोजें और उस पर कार्य करना आरंभ करें...


संदीप कुमार शर्मा, संपादक, प्रकृति दर्शन, पत्रिका

पर्यावरणविद

पर्यावरण और जीवन पर तम्बाकू का खतरा

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर डब्ल्यूएचओ ने अपनी एक रिपोर्ट पर ध्यान दिलवाते हुए स्पष्ट चेताया है कि भविष्य में तम्बाकू से हो रहे पर्यावरणीय और मानव स्वास्थ्य के नुकसानों पर इसे लेकर और अधिक जवाबदेही तय होनी चाहिए। यह रिपोर्ट गहरी चिंता की लकीरें उकेरती है। तम्बाकू मानव स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण के लिए कितना बडा खतरा है इसका अंदाजा इसी महत्वपूर्ण कथन से लग जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन में स्वास्थ्य प्रोत्साहन विभाग के निदेशक डॉक्टर रूडीगर क्रेश का कहना है, “पूरे पृथ्वी ग्रह पर इधर-उधर फेंके जाने वाली चीज़ों में सबसे ज़्यादा तम्बाकू उत्पाद होते हैं, जिनमें सात हज़ार विषैले रसायन होते हैं जिन्हें नष्ट किये जाने पर वो रसायन पर्यावरण में शामिल हो जाते हैं। “हर साल लगभग साढ़े चार ट्रिलियन सिगरेट फ़िल्टर, हमारे समुद्रों, नदियों, शहरों के रास्तों, पार्कों, मिट्टी और तटों को प्रदूषित करते हैं। सिगरेट, धुआं रहित तम्बाकू और इलैक्ट्रॉनिक सिगरेट के कारण, प्लास्टिक प्रदूषण में भी इज़ाफ़ा होता है. सिगरेट फ़िल्टरों में माइक्रोप्लास्टिक होता है और दुनिया भर में प्लास्टिक प्रदूषण में, इसका दूसरा सबसे बड़ा स्थान है। 

दुनिया प्रदूषण को लेकर चिंतित है। सोचिएगा कि तम्बाकू उत्पाद जिनमें सात हजार विषैले रसायन होते हैं और वह हमारे पर्यावरण के लिए किस तरह संकट बन रहे हैं, यहां समझने की बात यह भी है कि पर्यावरण के लिए नुकसान पहुंचाने वाले तम्बाकू उत्पाद उस व्यक्ति के लिए कितने घातक होंगे जो इनका सेवन कर रहा है। आंकडे़ बेहद डराने वाले हैं इसलिए यह समझना बेहद जरुरी है कि इस महासंकट से बचना है तो तम्बाकू से समय रहते दूरी बनानी होगी और पूरी तरह से इसे ना कहने की आदत डालनी ही होगी। 

तम्बाकू हर तरह से मानव जाति और पर्यावरण के लिए बड़ा संकट बनती जा रही है क्योंकि जो इसका सेवन करते हैं वह इन्हें धरती पर यहां वहां लापरवाही से फैंक रहे हैं और इसका विपरीत असर न केवल धरती पर पड़ रहा है बल्कि इस कचरे का निपटान भी एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। वैश्विक स्तर पर इस समस्या से ग्रसित देश आर्थिक तौर पर भी संकट को भोग रहे हैं। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि इन तम्बाकू उत्पादों के कूड़े कचड़े की सफाई में जो खर्च होता है उसका असर करदाताओं के जीवन पर पड़ता है। इसे लेकर भी आंकड़े भयभीत करने वाले हैं। 

डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर साल तम्बाकू उत्पादों के कूड़े-कचरे की सफ़ाई पर चीन में लगभग दो अरब 60 करोड़ डॉलर और भारत में क़रीब 76 करोड़ 60 लाख डॉलर की लागत आती है। इस मद पर ब्राज़ील व जर्मनी में भी हर साल 20 करोड़ डॉलर से ज़्यादा की लागत आती है। अलबत्ता, फ्रांस और स्पेन जैसे देश और सैन फ्रांसिस्को व कैलीफ़ोर्निया जैसे अमेरिकी शहर अब इस क्षेत्र में कड़ा रुख़ अपना रहे हैं। 

ऐसे में यह बात स्पष्ट होती है कि ऐसे उत्पादों पर सख्ती के अलावा कोई और चारा नहीं है क्योंकि न केवल जनस्वास्थ्य को लेकर यह घातक बन रहे हैं बल्कि पर्यावरण पर भी इसका विपरीत असर हो रहा है। प्रदूषण को लेकर वैश्विक तौर पर नीतियां बन रही हैं लेकिन इसमें सख्ती आवश्यक है क्योंकि एक ओर यदि तम्बाकू को लेकर इतने अधिक विपरीत हालात हैं बावजूद इसके हम इसे यूं ही ढोए जा रहे हैं, इसे यूं ही पर्यावरण के लिए खतरा बनता देख रहे हैं। डब्ल्यूएचओ की चिंता वाजिब है और इसीलिए वैश्विक स्तर पर इसे लेकर सख्त हो जाने की आवश्यकता है। पर्यावरण पर विपरीत असर छोडने वाले ऐसे उत्पादों पर सरकारें स्वयं सख्त हों वरना ये भी हो सकता है कि आम जनता भी इसे समझे और वह स्वयं इसे लेकर अपने लामबंद होना आरंभ कर दे। 


खौफनाक भविष्य और बच्चों में घटती सहनशीलता

- छह गुना बढ गए पर्यावरणीय खतरे

प्राकृतिक आपदाओं का स्वरूप दिनोंदिन भयावह होता ही जा रहा है, पर्यावरण पर समग्र वैश्विक चिंतन चल रहा है लेकिन हालातों में फिर भी सुधार नहीं आ रहा है। वैश्विक विषयां पर सुधार को लेकर समस्त विश्व को एकाग्र होकर और समग्र होकर कार्य करना होगा। पर्यावरण के संकट से न केवल प्रकृति पर संकट गहरा रहे हैं वरन मानव जाति के लिए भी भविष्य दुष्कर और दर्दनाक होने की ओर अग्रसर हो रहा है। मौजूदा हालात में बात करें तो संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने 24 मई 2023 को जारी एक रिपोर्ट में गहरी चिंता जताई है कि पूर्वी एशिया और प्रशान्त क्षेत्र के बच्चे, अपने दादा-दादी की तुलना में, छह गुना अधिक जलवायु सम्बन्धित खतरों का सामना कर रहे हैं जिससे उनकी सहनशीलता कम होती जा रही है और असमानताएँ बढ़ रही हैं। सोचिएगा कितनी महत्वपूर्ण और गहन बात है कि दादा-दादी से पोते-पोतियों तक आते आते हालात इतने अधिक खराब हो गए हैं कि छह गुना अधिक खतरे बढ गए हैं इसमें जो सबसे चिंतन की बात है वह यह कि सहनशीलता कम हो रही है और असमानाएं बढ रही हैं...। इस दौर में जबकि सबसे अधिक गहन और मंथन की आवश्यकता है, इस दौर में जबकि सबसे अधिक उस पीढी को जागरुक होने और कार्य करने को तैयार की आवश्यकता है उस दौर में उस पीढी की सहनशीलता घटना चिंता का विषय है। ऐसे में उस को कैसे सुधारा जाएगा जिससे हमें सभी भयभीत भी हैं और अंदर से बेहद खामोश भी। आखिर कौन सी सुबह और कौन सा परिवर्तन आएगा और कब...। आखिरकार हालात बदलने की ओर कार्य करने में जुटे वैश्विक संगठनों के सामने यह रिपोर्ट गहरी चिंता खडी करती है। पूर्वी एशिया और प्रशान्त क्षेत्र में यह हालात हैं।

यहां हम यदि आंकडों की बात करें तो यूनीसेफ़ की नवीनतम क्षेत्रीय रिपोर्ट ’ओवर द टिपिंग प्वाइंट’ के अनुसार पिछले 50 वर्षों में, पूर्वी एशिया और प्रशान्त क्षेत्र में बाढ़ में 11 गुना वृद्धि देखी गई है, तूफ़ान 4 गुना बढ़े हैं, सूखे में 2.4 गुना की वृद्धि और भूस्खलन में 5 गुना बढ़ोत्तरी देखी गई है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि बाढ, तूफान, सूखा और भूस्खलन जैसी समस्याएं बढ़ रही हैं इनसे होने वाले नुकसान और इनकी पुनरावृत्ति ने कहीं न कहीं उस आने वाली पीढी उन बच्चों में सहनशीलता को तोडा है, कमजोर किया है। यदि इनके कारणों पर बात करें तो वह बहुत हैं लेकिन यहां हम इस महत्वपूर्ण रिपोर्ट के मूल को लेकर चिंतित हैं और सवाल उठते हैं कि क्या हालात सुधरेंगे, कब तक सुधरेंगे और हालातों के सुधरने की गति क्या होगी ? साथ ही चिंतन के बीच एक भय यह भी सुनाई पडता है कि यदि हालात नहीं सुधरे और यह और अधिक खराब हो गए तब क्या होगा, क्या उन बच्चों का रुख, व्यवहार, बर्ताव, विचार एक स्याह भविष्य की ओर अग्रसर होते नजर आएंगे ? बहरहाल यह गहरी चिंता को जन्म तो देता है क्योंकि सुधार की शुरुआत तभी हो सकती है जब आपका मन प्रबल हो, आप संकट को समझने और पढने की ताकत अपने भीतर रखते हों लेकिन यदि आप आत्म नियंत्रण खोने की ओर अग्रसर हो रहे हैं तब सुधार की गति और लक्ष्य कैसे तय होंगे यह तो भविष्य के गर्भ में ही छिपा है। 

यहां इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि तापमान और समुद्री स्तर में वृद्धि और चरम मौसम की तूफ़ान, भयंकर बाढ़, भूस्खलन और सूखे जैसी घटनाओं के कारण, लाखों बच्चे जोखिम में हैं, बहुत से बच्चे व उनके परिवार विस्थापित हो गए हैं और स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, पानी एवं साफ़-सफ़ाई से दूर वो जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सोचिएगा तो रुह कांप जाएगी कि यह हालात हमारे सामने इसी दौर में सामने हैं और सुधार की गति और नीतियों पर गंभीर चिंतन आवश्यक है क्योंकि संकट पर यदि समग्र नहीं हुए तो वह पूरे विश्व को अपनी गिरफ्त में ले लेगा।

यहां पर यह उल्लेखित किया गया है इसे भी हमें पढना, समझना और मनन करना चाहिए ताकि हमें संकट और भविष्य की मौजूदा दिशा का अंदाजा हो सके। यूएन समाचार में प्रकाशित इस खबर में पूर्वी एशिया और प्रशान्त स्थित यूनीसेफ़ कार्यालय की क्षेत्रीय निदेशक डेबोरा कॉमिनी ने बताया कि “पूर्वी एशिया और प्रशान्त क्षेत्र में बच्चों के लिए स्थिति बेहद ख़तरनाक है। जलवायु संकट से उनके जीवन को जोखिम है, और वे अपने बचपन और जीवित रहने व ख़ुशहाल जीवन जीने के अधिकार से वंचित हो गए हैं। यह चिंता की समय है और चिंता वैश्विक है इसलिए हमें भी उसे समझना, सीखना और मनन करना चाहिए क्योंकि पर्यावरण का संकट तत्काल सुधार की एक ठोस और सुव्यवस्थित ईमानदार प्लानिंग चाहता है जिसके अमल में केवल सरकारों का नहीं बल्कि आम नागरिकों की भी सहभागिता अनिवार्य है। आखिर में यह भी देख लें कि हालात कैसे हैं और कितने खौफनाक हैं...शायद हम समझ सकें और गहन होकर एक लक्ष्य की ओर समग्र अग्रसर हो सकें। बच्चों के जलवायु जोखिम सूचकांक (ब्त्प्) पर आधारित इस नवीनतम विश्लेषण के अनुसार, पूर्वी एशिया और प्रशान्त क्षेत्र में, 21 करोड़ से अधिक बच्चे, चक्रवातों के अत्यधिक जोखिम में हैं। 14 करोड़ बच्चे पानी की अत्यधिक कमी से पीड़ित हैं। 12 करोड़ बच्चे, तटीय बाढ़ के अत्यधिक ख़तरे में रहते हैं और 46 करोड़ बच्चे प्रदूषित वायु में जीने को मजबूर हैं। 

सोचिए कि कल कैसा होगा, होगा या नहीं होगा...? हमें बेहतर की ओर अग्रसर होने के लिए अपडेट रहना होगा और सुधार के लिए बिना शर्त कार्य में जुटना होगा...तभी यह हालात बदले जा सकेंगे। बात का मूल यदि समझा जाए तो जब मूलभूत सुविधाओं में गहरी कमी आ रही है, सामान्य जीवन भी चुनौती है, प्रतिस्पर्धा बढती जा रही है ऐसे में किस तरह उन बच्चों के सहनशील बने रहने की उम्मीद की जा सकती है, हालांकि सुधार पर कार्य पहला फोकस होना चाहिए लेकिन हालात सुधारने के लिए मन को प्रबल और और शरीर को सशक्त होना जरुरी है। 


संदीप कुमार शर्मा, 

ब्लॉगर

हम विकसित हैं तो नजर क्यों नहीं आते






पता नहीं इस पर शर्म आनी चाहिए या गर्व...क्योंकि इतनी खूबसूरत प्रकृति में जब हमें सही तरीके से जीते ही नहीं आया, समझ ही नहीं आया तब हम उसका शोषण करने लगे और उसके आदी हो गए, अपने नगरों और घरों के आसपास हमने कचरों के कुछ ऐसे पहाड़ बना लिए हैं। कैसे समझा सकता हूं कि हमारे ही शहर हैं, हमारे ही घर हैं और उन घरों शहरों के बीच हम भागते रहते हैं और जहां हमें सबसे अधिक सुकून मिलना चाहिए वहां हमें बदबू और बीमारियां मिलती हैं। हम अपने शहरों की बेहतर बसाहट पर कतई गंभीर नहीं है क्योंकि हमारा मन कचरा फैंकते समय एक पल के लिए हमें नहीं धिक्कारता है कि हम आखिर कर क्या रहे हैं....और हम सभी का कचरा जब एकत्र होता जाता है तब वह एक ऐसा खौफनाक चेहरा इख्तियार कर लेता है जिसे देखकर हमें तब भय लगना आरंभ होता है जब उससे बदबू आती है और आसमान पर सितारों की जगह अधिकांश कौवे और चील ही नजर आती हैं। 

कोई नहीं...हम न जागें किसी का कुछ भी नहीं खराब होगा, हमारा स्वास्थ्य, हमारा जीवन, हमारे बच्चों का भविष्य और हमारी उम्र की सांझ ही कालिख भरी होगी। बसाहट जरुरी है, वे पुरातन संस्कृति की बसाहट वाले नगर जो खुदाई के बाद भी सुव्यवस्थित निकले वह हमसे बेहतर थे, हम बेशक विज्ञान के युग का झुनझुना बजाएं लेकिन हकीकत यह है कि हमें अपने नगरों की बसाहट और हमारे जीवन के आसपास के माहौल को बेहतर तरीके से बुनना तक नहीं आया। खैर, समझिये कि एक थैली कचरा हम बेतरतीब तकीके से फैंकना आरंभ करेंगे तो वह कल हमारे लिए ही संकट बनेगा। कचरा चाहिए या जीवन...नगर के मुहाने पर पहले स्वागत द्वार बनाए जाते थे और अब कचरे के पहाड़ स्वतः ही आकार ले लेते हैं....वाकई हम विकसित समय के रहवासी हैं....तभी तो हम इस सुखद धरा और प्रकृति को मटियामेट कर उसे छोड़कर कभी मंगल और कभी चांद पर भागने की प्लानिंग बना रहे हैं। यदि हम वाकई विकसित हो रहे हैं तो हमारे आचार व्यवहार में वह नजर क्यों नहीं आता ?


संदीप कुमार शर्मा, संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका 

photograph@sandeepkumarsharma

बचपन, घरौंदा और जीवन

कितना आसान था बचपन में पलक झपकते घर बनाना... और उसे छोड़कर चले जाने का साहस जुटाना... और टूटने पर दोबारा फिर घर को गढ़ लेना...। बचपन का घर बेशक  छोटा और कमजोर होता था... अपरिपक्व सोच लेकिन उसे आकार दे दिया करती थी...घर बनाकर हर बार खिलखिलाती। कितना कुछ बदल जाता है हमारे अल्लहड़ होने से सयाने होने तक। बचपन कई घर बनाता है और सयाने होने पर बमुश्किल एक...या नहीं। बावजूद इसके सयानेपन वाले घर में भी बचपन का घर ही क्यों याद आता है... इसके जवाब सर्वथा भिन्न हो सकते हैं। हममें से कई सोचेंगे कि बचपन तो बचपन होता है... हकीकत की जमीन बेहद सख्त है। यदि बचपन वाकई बेअसर है तो साहित्य और शब्दों में उसकी आवश्यकता क्या है...? यदि बचपन हमारे बड़े होने तक जरूरी है तो वह पीछे क्यों छूट जाता है। बचपन के महकते घर बेशक मिनटों में धराशायी हो जाया करते हैं लेकिन उनकी दीवारें सालों हमारे जीवन के भाव सहेजती हैं। हमें अपने सयानेपन के घर में वह सुख तलाशना पड़ता है जो बचपन का घर स्वतः दे दिया करता था। खैर समय की पीठ पर सवार बचपन हमें छोड़ हजार योजन दूर निकल जाता है... हमें सयानेपन की चौखट पर छोड़कर।।। उम्र कई बार पलटकर देखती है उस मासूमियत को मुस्कुराता पाती है... और ठंडी श्वास लेकर मशीन हो जाती है। सयानेपन के घर की दीवारें और कायदे हम बनाते हैं और बचपन के घर के कोई कायदे नहीं होते क्योंकि बचपन बेकायदा और निर्मल होता है। बहरहाल जीवन में हम सयानेपन से कायदे गढ़ लेते हैं लेकिन वही हमारे लिए एक दिन तंगहाल हो जाते हैं... कायदों में जीने वाले हम बेकायदा होकर बचपन पर लंबी जिरह का हिस्सा हो जाते हैं। खैर, जिंदगी अपनी अपनी चाहे जैसे बुनों...कौन रोक सकता है...?

वन्य जीव कैसे कहेंगे अपना दर्द



उस फोटोग्राफ ने मुझे हतप्रभ भी कर दिया और मैं गहरे तक अंदर पत्थर हो गया क्योंकि मैं उस तस्वीर में मानव के भविष्य को सुस्पष्ट देख पा रहा था....ओह कितनी गहरी पीड़ा, दर्द और अनिश्चितता...। सुना था कि एक समय मानव कंद्राओं में निवास करता था, यह तस्वीर भी कुछ उसी युग की पुर्नरावृत्ति है। मप्र सागर के शशांक तिवारी की उस तस्वीर ने मेरे अंदर के संघर्ष को और अधिक बढ़ा दिया है। बुंदेलखंड सूख रहा है, पानी और जिंदगी दोनों ही चुनौती हैं, तापमान चढ़ता जा रहा है, जंगलों के सूखे जिस्म सुगल रहे हैं, कभी आग तो कभी तपिश के कारण वन्य जीवों का जीवन बेहद मुश्किल हो चला है। तस्वीर को कवर पेज पर लिया है, आप देख सकते हैं और संभवतः यह तस्वीर इस सदी की उन तस्वीरों में श्रेष्ठ कही जानी चाहिए जो सोई हुई हमारी भीड़ को झकझोरकर उठा सकती है, हमारी नींद छीन सकती है, हमें चिंतन को गहरे सागर की गर्त में उतर जाने को विवश कर सकती है। दर्द की इंतेहा है दोस्तों...। 

40 के ऊपर तापमान जाता है हम घरों में दुबक जाते हैं, एसी और कूलर से घर को ठंडा कर लेते हैं और चैन की नींद सो जाते हैं, बढ़ते तापमान के सच को पीठ दिखाकर लेकिन ये वन्य जीव कहां जाएं, क्या करें, किनसे कहें, कैसे बचें, कौन सुनेगा, कौन महसूस करेगा, कब महसूस करेगा और कैसे संरक्षित होगा इनका जंगल, ऐसे बहुत सारे सवाल ही सवाल हैं वह भी सुलग रहे हैं लेकिन जवाब नहीं है। सोचिएगा कि हमें ऐसी दुनिया मिली जिसमें सब कुछ अपने आप संचालित था, समय तय था और बिना अर्थ और तर्क कुछ भी नहीं लेकिन हमने इसी दुनिया में अपनी भी एक दुनिया बनाई जिसमें केवल स्वार्थ था, भौतिक सुखों की आपाधापी और अनिश्चितता की खोह। सोचिएगा उस तस्वीर को और देखिएगा परिवार के साथ बैठकर, मंथन कीजिएगा कि सूखे जंगल में तपते पत्थरों के नीचे यदि हम होंगे और हमारा परिवार होगा तब हम कैसे जीएंगे क्योंकि हालात यही रहे तो यह सच सामने आएगा, बेशक जंगल के पत्थरों के नीचे हम न भी छिपें लेकिन कांक्रीट के जंगल के बीच हमने जो आलीशान घर बनाए हैं वह भी तापमान बढ़ने पर उन्हीं चट्टानों की तरह बर्ताव करेंगे और हम उन घरों में इसी अवस्था में दुबके इस बीत चुके आज जो कल हाथ नहीं आएगा को सोच रहे होंगे और अपनी नाकामी पर उन्हीं दीवारों से सिर पीट रहे होंगे क्योंकि तपती चट्टानों में छिपे वन्य जीवों से बेशक उनके बच्चे कोई सवाल नहीं पूछेंगे लेकिन आपके बच्चे अवश्य सवाल पूछेंगे कि बताईये हमारा कसूर क्या था ? क्योंकि वे वन्य जीव तो कह नहीं सकते और हम तब मूक हो जाएंगे क्योंकि हमारे पास जवाब नहीं होगा केवल एक गहरा सन्नाटा होगा जिसमें हम एक छोटी सी उम्र बडी सी मुश्किलों के अनुबंध में जी रहे होंगे। तब न कोई सपना होगा, न मंजिल, न टारगेट और न ही कोई होड़। केवल जिंदगी को जीने का संघर्ष रोज, हर घंटे, हर मिनट हमारी दिनचर्या का हिस्सा होगा। 

इस तस्वीर के लिए आदरणीय शशांक जी को मैं साधुवाद देना चाहता हूं कि उनकी कोई नज़र तो थी जो वे वहां ठिठक गए और इतिहास को आईना दिखाने वाली तस्वीर वे ले आए और वर्तमान को सौंप दी। मैं यहां आभार कहना चाहता हूं अपने एक गहरे और विचारों में बेहद करीब आ चुके मित्र माधव चंद्र चंदेल जी जो शैक्षिक मल्टी मीडिया अनुसंधान केंद्र (ईएमएमआरसी), सागर के प्रोडयूसर हैं, यहां उनका जिक्र दोस्तों इसलिए भी लाज़मी है कि शशांक जैसे साथियों से मिलवाने और हमें समय-समय पर प्रकृति को लेकर बेहतर होने में उनका सहयोग हमेशा मिलता रहा है। दोस्तों संभलिए कि कोई और जहां नहीं है जो हमें समझाएगा कि अब हमें प्रकृति के चीत्कार को सुनना, समझना होगा और सुधार को बिना शर्त बढना होगा। वरना आज केवल जंगल जल रहा है, लेकिन अब भी वह है लेकिन ऐसा न हो कि कल न जंगल हो और हमें बिना हरियाली, हवा और पानी के जीने की आदत डालनी आवश्यक हो जाए।  

संदीप कुमार शर्मा,  प्रधान संपादक, प्रकृति दर्शन 

अरसा हो गया बारिश में नहाये हुए

उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर द...