
मुझे हिंदी फिल्म लगान के क्रिकेट मैच की वो आखिरी गेंद झकझोंर जाती है, जब भुवन कहता है- अब एकही गेंद बाकी है कचरा....तुम्हें वो गेंद सीमा पार भेजनी ही होगी, कुछ कर (कचरा)....। उस चेहरे पर, उस पल में...ओह कितनी बैचेनी, कितना भय, कितना खौफ, कितनी गहरी पीड़़ा...और परस्पर रस्सी की तरह बल खाती उम्मीदों से उठता रुदन....। उस दृश्य में केवल तीन गुना लगान का भय था...सोचो जब जिंदगी दांव पर लग जाएगी, जब सांसें गला घोंटने लगेंगी, जब गर्मी हमें केवल झुलसाएगी, तब न कोई उम्मीद बचेगी, न कोई अवसर...। हालात नहीं बदले हैं, केवल हम घरों में कैद हैं इसलिए प्रकृति को राहत है जिस दिन निकलेंगे फिर वही सब होना तय है। मैं प्रकृति के प्रति हमारी समझ की बेबस सी जानबूझकर ओढ़ी गई हताशा को कटघरे में खड़ा करना चाहता हूं...आखिर क्या हम भी यही सोचते हैं कि प्रकृति को किसी खेल की तरह आखिर में किसी एक अवसर से जीता जा सकता है...? नहीं...ये कभी नहीं होगा। ...जब प्रकृति अपना लगान वसूलेगी तब कोई अवसर नहीं होगा, कोई खेल नहीं, कोई उम्मीद नहीं...केवल एक झुलसता हुआ भविष्य और चीखती हुई हमारी भावी पीढ़ी होगी...। मैं उस कराह को महसूस कर रहा हूं, मैं स्पष्ट देख पा रहा हूं उस पीढ़ी को जो जंगल नहीं जानती क्योंकि हमने उन्हें छोड़ा ही नहीं। उसे जल नहीं पता क्योंकि उसके हिस्से चंद बूंदें और गहरा सूखा जो आया है, वो प्रकृति शब्द को नहीं समझ सकती क्योंकि तब तक वो गुस्सैल सी विनाश की प्रतिमूर्ति हो चुकी होगी...। ऐसा कहा जाता है कि खोज की पहली सीढ़ी कल्पना ही होती है, तो क्यों न हम ये कल्पना करके देखें कि हमारी उदासीनता ने जल और जंगल खत्म करवा दिए हैं....। अब एक सूखा सा दरिया है, तवे सी तपती धरती, एक बेजान और लाचार समाज, सूखे से गुस्सैल चेहरे और सूखकर सिकुड़़ चुकी उम्मीदें...। नदियां नहीं, पानी नहीं, कुएं गहरी निराशा से भरे होंगे, तब तालाब शहर ओढ़कर हमेशा के लिए सो जाएंगे, जमीन पानी के बदले केवल आंसू ही लौटाएगी...बच्चे बूंद-बूंद के लिए चीखेंगे, दूर-दूर तक न पानी होगा न उम्मीदों के बादल...। तब कोई (कचरा) चाहकर भी उस हारे हुए मैच को जिता पाने के लिए जिंदगी के विकेट पर टिक नहीं पाएगा, तब कोई चीख नहीं होगी...केवल गहरा सा दर्द होगा और हमारी ये जड़ हो चुकी उदासीनता...।
मन कई बार खींझता है कि किसी पर्वत पर जाकर चीखकर ये कहूं कि बस करो, अब बस भी करो...इस दोहन को। हम कैसे थे और कैसे हो गए हैं...। जल, जमीन, जंगल...ये तीन सूत्र हमें जिंदगी देते हैं। हम इन्हें बर्बाद नहीं कर सकते, इन्हें हम संचालित नहीं कर रहे हैं, अब प्रकृति का वो चक्र गड़बडाने लगा है। पहले सात दिनों की झड़ी लगती थी, अब मौसम सूखा ही बीत जाता है और बादल बेपानी। अब तापमान प्रतिवर्ष बढ़ने लगा है, ठंड समय पर नहीं आती, वो देर से शुरु होकर देर से ही खत्म होती है...। कहां है वो मनचाहा मौसम, वो बारिश की झड़ी, वो सावन और उसके झूले...। सब तेजी से उलझता ही जा रहा है।
ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की चिंता है, लेकिन जब तक ये आम व्यक्ति के ज्ञान चक्षु नहीं खोलती, तब तक चिंतन का मंच कितना बड़ा और अहम है कोई मायने नहीं रखता। मेरा मानना है जो जिस शैली, जिस भाषा में समझता हो उसे उसी तरह समझाया जाए, अहम बात ये है कि तेजी से गड़बडाते हुए उस चक्र की सूचना सरल भाषा में आमजन तक पहुंचनी चाहिए, उसे वो बताया जाए जो वो समझ और कर सके। चिंतन भी तभी कारगर होगा जब उसे जमीन मिलेगी, जब उस विचार समूह हो अंकुरण का माहौल मिलेगा...। देश में पर्यावरण हर कक्षा के अध्ययन का एक अनिवार्य विषय हो इसमें बेशक थ्योरी कम हो, लेकिन प्रेक्टिकल ज्यादा हो...। पिता अपनी विरासत के वितरण के समय प्रकृति संरक्षण की शर्त पर दस्तखत करवाए, बेटियां तभी किसी का हाथ थामे जब वो मिलकर प्रकृति संवारने का संकल्प भी ले, माताएं बच्चों को संस्कारों के क्रम में प्रकृति सुरक्षा का भी सबक अवश्य सिखाए, घरों में प्रकृति के पर्व भी उल्लास से मनाए जाएं, खेत में बीज रोपने की प्रक्रिया से पहले पौधे रोपे जाने की रस्म हर बार निभाई जाए, स्कूल बच्चों में ज्ञान के साथ प्रकृति के संवर्धन को भी संचारित करें, अबकी गर्मी ये भी तय करें कि अपने एयरकंडीशनर कम से कम उपयोग करेंगे, परिवार में दादा अपने पोते के जन्म पर पौधा रोपे और पोते से उसका संवर्धन करवाए, जब तक प्रकृति हमारी भावनाओं का हिस्सा नहीं होगी, जब तक हम प्रकृति संवर्धन को आम जिंदगी का हिस्सा नहीं बनाएंगे, ये चक्र यूं ही गडबडाता रहेगा... हम प्रकृति संरक्षण और संवर्धन की जमीन तैयार करने में अपनी भूमिका तय करें। मिलकर चलें, आज संवारें, कल सुधारें...।
मेरे दोस्त, कभी सोचा है कि हम भाग रहे हैं लेकिन आगे जिंदगी कहां है, कोई सुनहरा भविष्य नहीं है, कोई खुशहाली नहीं है। बच्चे कल सवाल पूछेंगे तैयार रहियेगा...जवाब नहीं होगा हमारे पास...। बेहतर है समय रहते संभल जाएं...। शुरुआत आज और अभी से हो...।