दीवार


 बिस्तर पर कराहती हुई मां अपने बेटों से बोली देखो यदि मुझे कुछ हो जाता है तब तुम एक साथ रहना, कभी लड़ना मत। दोनों भाईयों ने मां की बात सुनी और उसके हाथ अपने हाथों में रख लिए। छोटा बेटा मां के सिर पर हाथ रखकर कहने लगा मां चिंता मत कर हम कतई नहीं लडेंगे। मां की आंख से आंसु झरने लगे उसने दीवार की ओर इशारा किया और उसके प्राण पखेरु उड गए। दोनों बेटे मां के इशारे का समझ नहीं पाए। क्रियाकर्म के बाद दोनों साथ बैठे थे और उस दीवार की ओर देखने लगे। छोटा बोला दीवार में कुछ है जो मां बताना चाह रही थी, बडे़ ने कहा हां लेकिन क्या होगा उसके अंदर ? उन्होंने दीवार खोदनी आरंभ कर दी। पूरी दीवार खोदने के बाद भी उन्हें कुछ नहीं मिला तो खीझ उठे, मां भी पता नहीं क्या बताना चाह रही थी और बिना बताए ही चली गई। गिरी हुई दीवार को बनाने की बात आई तो छोटे ने बड़े से कहा और बडे़ ने छोटे से। दोनों एक दूसरे पर टालने लगे और बात कहासुनी तक पहुंच गई। दोनों लड़़ने लगे तभी सरपंच वहां से निकल रहे थे दोनों ने पूरी घटना सरपंच को बताई।

सरपंच ने कहा कि दीवार को क्या सोचकर तुमने गिराया था कि उसमें कोई खजाना निकलने वाला है या तुम्हारे मां के गहने निकलने वाले हैं, दोनों भाईयों ने हां कहते हुए सिर हिलाया। सरपंच ने कहा तुम दोनों मूर्ख हो तुम्हारी मां कहना चाहती थी कि वो जो एक घर को दो कमरों में बांटने वाली दीवार है उसे गिरा देना ताकि तुम हमेशा एक साथ रह सकोगे। दोनों भाईयों की आंखें खुल गई और उन्होंने दीवार को हमेशा के लिए हटा दिया।

हमारे यहां बहुत अंधेरा है

 सुनो चंद्रमा---हमारे यहां बहुत अंधेरा है. मैंने तो सुना है कि तुम्हारे हिस्से एक ही अमावस की रात आती है बाकी समय तो तुम निर्मल होकर निडर होकर अकेले इस स्याह रात में आसमानी जंगल में सफर करते हो, सुनों कभी डर नहीं लगता...कैसे कर लेते हो ये सफर तुम रोज अकेले ही तय, इन तारों या बादलों के बीच से कोई साजिश वाला आततायी तुम्हारे सामने कभी भी नहीं आता...। हम इंसानों की बस्ती की क्या कहें कभी-कभी तुम्हारे जीवन की निर्मलता और उजले हुए पक्ष को देखकर जलन होती है क्योंकि हमारे यहां ये सब कहां होता है...। हमारे यहां बहुत अंधेरा है...कहीं कुछ भी तो सुरक्षित नहीं है, तुम्हें केवल अमावस की रात के स्याह अंधकार को भोगना होता है लेकिन हमारी धरती पर तो हर रात अमावस जैसी ही है खासकर उन माता-पिता के लिए जिनकी बेटियां रात होने तक घर नहीं पहुंच पाती हैं, यकीन मानों वो चिंता का स्याह डर उन्हें हर पल मारता है और गहरे तक मारता है, जब तक उनकी बिटिया घर नहीं लौट आती वो मां जागती रहती है खटिया पर। कई करवट लेती हुई संभव है तुम्हें भी देख लेती हो और रात के अंधकार पर तुम्हारी कमतर होती दमक पर भी विचार करती है कि काश तुम्हारी रोशनी रात में और धरतीवासियों को एक सवेरा दे पाती। देख सको तो देखने का प्रयास करना हमारी धरती के महानगरों की भागती हुई जिंदगी के बीच कसमसाते रिश्तों की खींचतान में पापड़ की तरह पिसती हुई भावनाएं...। देख सको तब ही देखना क्योंकि मैं तुम्हारी दुनिया तक ये तंगहाली थोडे़ ही पहुंचाना चाहता हूं, बस यूं चर्चा निकली तो मन की कह दी। चंद्रमा तुम यकीनन सोच रहे होगे कि तुम्हारे चेहरे पर भी तो बादलों की काली बदली कई बार आकर तुम्हें सताती है मैं जानता हूं कि ये सच है लेकिन यकीन मानो तो सही वो बदली तुम्हारी दमक के आहरण को नहीं आती है, वो बदली बेचारी दो पल भी कहां ठहरती है उसे तो पानी का बोझ उठाए योजन सफर जो तय करना होता है। एक बात कहूं चंद्रमा हमारी धरती के बच्चे तुम्हें बहुत पसंद करते थे जब माताएं तुम्हारी परछाई पानी की थाल में दिखा दिया करती थीं, पता है हमने भी विकास किया है क्योंकि अब बच्चे तुम्हें खिलौना नहीं समझते वे तुम पर पहुंचने की जिद करते हैं...। ओह बातों ही बातों में पता ही नहीं चला कि सुबह होने को है और तुम्हारे चेहरे से वे अमावसी बादल भी छंट गए हैं अब चाहो तो आराम कर लो क्योंकि रात तो मुझसे बात करते हुए ही बिता दी है, अगले दिन सफर दिन के दूसरे पहर से ही आरंभ कर लेना क्योंकि सूर्य की तेज रोशनी में कुछ भी पता नहीं चलेगा...। मेरी बातों से उलझा और थका सा चांद कुछ बादलों की पीठ पर लेट गया और उसे ठंडी सी नींद कब आ गई पता ही नही चला। 

तुम ले जाना अपने हिस्से की छांव


मैंने तुम्हारे हिस्से की छांव बचा रखी है, जिंदगी के सबसे तपे हुए दिनों में तुम अपनी छांव ले जाना। मैंने इसे सीलन से बचाने की कोशिश की, बावजूद ये कहीं कोनों पर से सील गई थी। मैंने इसे तेज धूप में बिछा दिया है सुखाने के लिए, इससे पहले कि ये अधिक गर्म होकर झुलसने लगे, तुम ले जाना अपने हिस्से की छांव।

मैं तो इसे लेकर धूप में ही बैठा रहा, मैं राह देख रहा था कि कुछ पल मिलकर साथ बैठेंगे। तुम भी भागती रहीं जिंदगी की राह पर,मैं भी उधेड़बुन सा फटता रहा, सिलता रहा।आओ देखो धूप तेज है जिंदगी उबल रही है, आओ कुछ देर छांव के तिरपाल के नीचे बैठ जाएं।

वो काली नदी, पस्त और पराजित सी

मैंने काली नदी देखी है, अपने आप को ढोती हुई, बेमतलब, तन्हा। कोई उल्लास भी नहीं, कोई जिंदगी की उम्मीद भी नहीं। थकी और परास्त...। न कोई पक्षी ना ही कोई पेड़। वो निराशा ओढ़े बह रही थी, अपने से बतियाती। ऊपरी परत अमानवीयता के मैल से किसी फटेहाल और बीमार जिस्म की भांति हो गया था...। मैंने उसके किनारे खड़े होकर उसे दो बार नदी के नाम से पुकारा लेकिन वो वो शून्य सी बहती रही अपने ही शरीर में...। मैं सोच रहा था नदी हो जाना शायद नदी बने रहने से अधिक मुश्किल नहीं है...। वो काली नदी अपनी चेतना खो चुकी थी... शायद नदी रही नहीं इसलिए उसे नदी कहलाना भी पसंद नहीं है...। मैं उसके साथ कुछ दूर चला लेकिन वो गुस्सैल थी बात तक नहीं की...। मैं लौट आया उसकी उस काली दुनिया में छोड़ कर अपनी चमकदार दुनिया में...जहां कोई नदी बहती ही नहीं... क्योंकि यहां केवल जिद बहती है... कुछ पागलपन, बहुत सी शून्यता।

अपने रंग में मस्त

ये रंग प्रकृति के हैं और जीवन के भी...पहचानिये कौन सा रंग आप जैसा लगता है। कितना अच्छा होता कि ये रंग, ये पत्तियां और फूल कभी अपने मन की कह पाते...कभी ये भी पता चले कि इन्हें भी कोई और रंग पसंद है, लेकिन मुझे यहां कोई आपाधापी नहीं लगती, कोई अस्थिरता भी नहीं। शांत चित्त और अपने रंग में मस्त...। उम्र के साथ इनका रंग भी पक जाता है, भूरे होकर ये जब नीचे गिरने लगते हैं तो शरीर झुर्रीदार हो जाता है और पसलियां सख्त...। बावजूद इसके कोई शोर और कोई शिकायत नहीं होती...। प्रकृति ने जो दिया उसे स्वीकार कर ये सहर्ष आते हैं और खुशी से कूच भी कर जाते हैं...दुख तो वृक्ष को होता ही होगा जब कोई पत्ता उसपर उम्र बिताने के बाद झरकर जमीन पर आ जाता है, वो उसे टकटकी लगाए देखता रहता है कि बेहतर हो कि इस सूखे पत्ते को अधिक से अधिक समय छांव मिल जाए...। 

दरवाजा और लैटर बाक्स...

दरवाजे पर टंगा लैटर बाक्स भूखा है, काफी अरसा हुआ भावना में लिपटा कोई खत नहीं आया। देख रहा हूँ वो कारोबारी जैसा सलूक करने लगा है, बिलकुल भी मिठास नहीं रही उसमें...खोलने पर कर्कश आवाजें निकालने लगा है, सच चिड़ा हुआ है...। मैं देख रहा. हूँ न पोस्ट कार्ड, न अंतरदेशीय... केवल कारोबारी स्पीड पोस्ट...। उसकी कर्कशता मुझसे नहीं है वो भावनाओं के कारोबार के नीचे दबने से बौखलाया हुआ है, यही हाल रहा तो कहीं वो ये न कह दे कि मैं भी मुफ्त में कारोबारी खतों का वजन क्यों उठाऊं... वेतन चाहिए... ओह कहां से लाऊं उसके वजूद बचाने को भावनाओं वाले खत....।

मरीचिका के पीछे प्यास होती है

 

बेशक इस धरा पर रेगिस्तान के होने को लेकर हमारे तर्क सवालिया निशान खडे़ करते रहें लेकिन हकीकत ये है कि उसके होने में हमारे भविष्य को बेहतर बनाने के बेहद कठिन सबक भी कहीं न कहीं छिपे होते हैं। रेगिस्तान जिनके जीवन की राह है, जिनके जीवन का सच है जिनके हिस्से रेगिस्तान है वे जानते हैं कि पानी क्या है, पानी की कीमत क्या है, पानी की उपलब्धता और उसके उपयोग की मात्रा का अनुपात क्या होना चाहिए? रेगिस्तान के उन कठिन हालात में रहने वाले वे लोग प्रकृति और पानी के गहरे सबक हर रोज सीखते हैं या यूं कहा जाए कि ये सबक ही उनके जीवन का हिस्सा हैं। हम रेगिस्तान या मरुस्थल पर बात करने से हमेशा बचते रहते हैं, हममें से बहुत से ऐसे भी हैं जिन्हें ये विषय चर्चा के योग्य लगता ही नहीं है लेकिन क्या रेगिस्तान से जिंदगी को अलग किया जा सकता है, क्या रेगिस्तान में जिंदगी नहीं है, क्या धूल में जीवन नहीं है क्या धूल में जिंदगी के कोई सबक नहीं हैं ? बहुत से सवाल हैं, गहरे बहुत गहरे। रेत पर जिंदगी, रेत सी जिंदगी और रेत होती जिंदगी के बीच खुशियां तलाशतेलोग। बहुत कुछ ऐसा है जिसे हमें समझना नहीं चाहते, पढ़ना नहीं चाहते लेकिन देखना अवश्य चाहते हैं। रेत और रेगिस्तान भी ऐसा ही विषय है। 

रेगिस्तान यदि सख्त है, उसकी धूल यदि सजा देती है, हमारा इम्तिहान लेती है तो उससे शिकायत कैसी ? रेगिस्तान में यदि जिंदगी का दर्शन तलाशा जाए तब बहुत गहरा सच सामने आता है और वह ये कि रेगिस्तान जिंदगी का हिस्सा है। हममें से हरेक रेगिस्तान को अपने अंदर जीता है क्योंकि हम ये सच जानते हैं कि रेगिस्तान चाहे हमारे अंदर हो या बाहर वह हमें सच के साथ जीना सिखा देता है। रेगिस्तान में पानी की खोज और रेगिस्तान के बीच पानी की कीमत का अहसास हमें इतना अधिक पानीदार बना देता है कि ताउम्र हम कभी सूखते नहीं है, पानीदार रहते हैं। रेगिस्तान में रेत पर पानी का अहसास मरीचिका कहलाता है लेकिन वह अहसास भी हमें काफी दूरी तय करवा देता है इसमें भी एक सबक छिपा है कि मरीचिका के पीछे प्यास होती है और प्यास हमें जीतना सिखाती है। हम रेगिस्तान में जीने वाले लोगों से जब भी मिलते हैं तब उनमें और शहरी लोगों में बहुत अंतर सहज ही नजर आने लगता है वह सूखे और रेत पर रहने के बावजूद बहुत पानीदार होते हैं, खुश होते हैं, जीना जानते हैं और पानी को पहचानते हैं लेकिन पानी के बीच रहने वाले हम न अंदर से हरे हैं और न ही उपजाऊ क्योंकि रेगिस्तान और उसके जीवट वाशिंदों को देखकर बार-बार लगता है कि एक रेगिस्तान शहरों में बहुत गहरे आकार ले चुका है और जिसमें वैचारिक और मानवीय सूखा है और सूखा भी इतना भयावह कि यदि उस सूखे ने किसी रेगिस्तान का आकार ले लिया तब यकीन मानिये कि उस दुनिया में फिर कोई दुनिया नजर नहीं आएगी, कोई पानी नहीं होगा, कोई मरीचिका नहीं होगी, कोई उम्मीद नहीं होगी। बेहतर होगा कि अपने उस शहरी सूखे के साथ हम एक बार असल रेगिस्तान देख आएं, उसे जी आएं ताकि हममें कोई मरुस्थल आकार न लेने पाए। 


फोटोग्राफ साभार
अखिल हार्डिया, इंदौर, मप्र 

प्रेम तो प्रेम है



प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, ये तो यूं ही सूखे पत्तों सा सजीव है, सच्चा है, ये नेह में गर्म हवाओं के पीछे दीवानों की भांति भागता है, ये सूखे पौधों में पानी बन जाता है। प्रेम तो प्रेम है ये अंकुरण में भरोसा करता है, ये प्रकृति के भाव में जीता है, ये वृक्ष के सीने में कहीं कोई बीज बनकर पनप उठता है, ये कुछ मांगता नहीं है, ये देता ही देता है, ये जीता है और जीता केवल अपने लिए, अपने जैसों के भरोसे पर...। तुम ठहरो तो तुम्हें ये प्रकृति समझाएगी कि उसके कण-कण में प्रेम है, प्रेम की धारा है और प्रेम का अनुरोध निहित है....।

क्योंकि बर्फ हमेशा नहीं होगी हमारे बीच...।

 

ये सुनने में निश्चित ही अजीब लग रहा होगा लेकिन तासीर की बात करें तो बर्फ गर्म होती है, लेकिन महसूस ठंडी होती है...। वाह रे परमपिता गजब की सृष्टि बनाई है एकदम हाथी के दांतों की तरह...। सोचता हूँ ऐसा क्यों किया गया होगा, क्या सीधे तौर पर समझाया जाना मुश्किल था...? कोई तो बात रही होगी जो सबकुछ बहुत सीधा सा नहीं है...। प्रकृति रचते समय इनकी सुरक्षा पर भी गहन विचार हुआ होगा ताकि सबकुछ बिना किसी परेशानी के स्वयं ही संचालित होता रहे...लेकिन ऐसा नहीं हो पाया... मौसक चक्र बाधित हो चुका है...। सोचा क्यों न बर्फ की नब्ज़ पकड़ उसकी हरारत ही पूछ ली जाए...ऐसा इसलिए क्योंकि गर्म तासीर वाली बर्फ की प्रकृति या मिजाज में गर्मी आखिर कैसे बढ़ गई...। कभी नवबंर में गिरने वाली बर्फ अब दिसंबर और जनवरी या साल में कभी भी गिर है क्यों...? तासीर की गर्मी उसके स्वभाव में आ पहुंची क्योंकि हमनें उसके दर्द को समझा ही नहीं... बेशक अब भी हम नासमझ जैसे ही हैं... बर्फ गिरते ही हम उसका लुत्फ उठाने की पहले सोचते हैं, उसके बदलते स्वभाव से हमें कोई लेना देना नही है...। आखिर कब तक अंजान रहने का जश्न मनाएंगे...। आपको बताना चाहूंगा कि एक ऐसी संस्था है जो आइस मैमोरी प्रोजेक्ट चला रही है और  बर्फ के सेंपल एकत्र कर रही है ताकि उन्हें सुरक्षित रखकर उन पर रिसर्च की जा सके... तब जब दुनिया से बर्फ के पहाड़ खत्म हो जाएंगे...। मौजूदा हालात देखें तो तासीर और हरारत समझनी जरूरी है क्योंकि बर्फ हमेशा नहीं होगी हमारे बीच...।

आओ पत्ते सा उड़कर देखें


मैंने कभी पेड़ से टूटे पत्तों से उनकी मरज़ी नहीं पूछी, एक खलिश सी मन में है कि टूटकर जब हवा हमारी मंजिल का निर्धारण करने लगे तब हम वाकई अपने कैसे हो सकते हैं? ये पत्ते हो जाना, पेड़ से छूट जाना, तन्हा हो जाना, कहीं कुछ चटकने की आवाज़, कहीं कुछ नए जुड़ने की शुरुआत होती है।  हां मुझे सबसे अधिक उस पत्ते के गिरने पर लगने वाली अंदरूनी चोट सताती है। वो कशमकश, वो नया रास्ता, वो हवा के रुख को महसूसने का सबक----आह कितना मन को हिलाने वाला होगा वो सब----। आओ पत्ते सा उड़कर देखें।

ये कद का फलसफा


पर्वत...ये विशाल पर्वत...और इनमें हमारा रास्ता एक मोटी सी लकीर की भांति है...फिर क्यों पर्वतों से सीनाजोरी...। पर्वतों को इतना विशाल बनाया है फिर भी शांत और इंसान को इतना छोटा सा बनाया है फिर भी इतना अशांत...ओह पर्वत गिराकर रास्ता बनाने पर आमादा है...सोचिये तो सही  पर्वतों की गहराई कहां से लाओगे...क्योंकि वो रास्ता देकर भी चुप थे और खुद मिटकर भी अशांत नहीं...फिर भी हम शांत नहीं...ओह कितनी आपाधापी है, कितनी हलचल है, कैसी भागमभाग और कहां थमेगी...। 

गुड़ का गूढ़ ज्ञान----।

 

जिंदगी में गुड़ हो जाना आसान नहीं लेकिन जरूरी है। बहुत तपने के बाद गुड़ एक नई शक्ल और पहचान पाता है। तपने के बाद जिस तरह उसे घोटा जाता है वो जिंदगी के अनुभवों जैसा ही ज्ञान है। आप जब बेहतर होकर निकलेंगे तभी आपकी मिठास किसी के गले उतर पाएगी। गुड़ खुद कुछ नहीं होता ---गन्ने का सार ही गुड़ हो जाता है, गुड़ अगर मूर्तरूप है तो गन्ना उसका बीज बिन्दु है। गन्ना जब अपनी मूल अवस्था में होता है तब उस पर सूख जाने और खराब हो जाने का खतरा मंडराता है लेकिन जब वो गुड़ हो जाता है तब अमरत्व की स्थिति में होता है। जिंदगी भी हमें गुड़ बनाना चाहती है, उसके हरेक इम्तेहान पर खरा उतरें, समय की हम पर की गई मेहनत और हमारा समय पर भरोसा कभी भी जाया नहीं जाता----तो दोस्तों गुड़ हो जाएं।

जिंदगी तेरा भी जवाब नहीं



 जिंदगी तेरा भी जवाब नहीं, जिसे देने पर आए तो गंगू तेली को शहंशाह बना दे और छीनने पर आए तो आदमी को खच्चर बना दे...। तेरी रजा में मजा है वरना सजा ही सजा है...। 5 डिग्री तापमान में हरिद्वार में जब पीठ पर लटके बच्चे को देखा तो अपने गर्म कपड़ों पर शर्म आ गई... जिंदगी वे भी जीते हैं जिन्हें केवल तन ही मिला है और वे भी जीते हैं जिन्हें केवल धन मिला है...। काफी देर देखता रहा उस बच्चे को और वो हंसता हुआ जिंदगी का वो अनूठा चेहरा दिखा रहा था...। मां बाप को पता ही नहीं कि उनकी पीठ पर होले से जिंदगी मुस्कुरा रही थी...।

...सुनो, वो घर आवाज देते हैं

घर, हां घर...। ऐसे ही कोई उन्हें छोड़कर कैसे जा सकता है...बेसहारा! ओह वो घर...सुनो, वो घर आवाज देते हैं...हर राहगीर को रोककर उससे पता पूछते हैं कि आखिर उन्हें कहीं देखा क्या जो यूं ही अनायास चले गए। 

उत्तराखंड की त्रासदी है पलायन...। मुख्य हिस्सों से हटकर देखें तो ऐसे बहुत से गांव हैं जो पलायन का दर्द भोग रहे हैं...अब गांव कहां...अब तो केवल घर हैं जो खाली, अकेले, तन्हा, उदास, बेबस, उनींदे और बीमार से खांसते हुए, दर्द से कराहते हुए, अपनों का इंतजार करते हुए उन धुंधली आंखों को दिन में कई दफा मलते हुए...। राहगीरों को रोककर ये घर जो कभी आबाद थे, खुशियों से इठलाते नहीं थकते थे, उत्साह से दमकते और अक्सर मुंडेर पर बैठ खुशियों से चहकते परिवार का हिस्सा होते थे...अब केवल मौन से देखते रहते हैं...। उदासी इतनी गहरी है कि राहगीर भी उसे अधिक देर देख नहीं पाते और अपनी राह हो लेते हैं...रुंधे हुए गले से ये घर जब तक अपनी आपबीती सुनाने को तैयार होते हैं तब तक राहगीर चले जाते हैं...। कुछ जो ठहरते हैं, इनके मौन को सुनना चाहते हैं वे उनसे पूछते हैं यदि देखा हो कहीं, हमारे बच्चे तो उनसे कहियेगा घर आज भी है तुम्हें बहुत याद करता है, थक गया है, बीमार भी है लेकिन अब भी तुम आओगे तो दूर से पहचान लेगा,  ये भी कहना कि अपनों से भला कोई रुठकर इस कदर जाता है, मैं घर हूं चल नहीं सकता, तुम इंसान हो चल सकते हो तो यूं कैसे चले गए, तुम्हें क्या कभी याद नहीं आती, क्या कभी मेरा चेहरा तुम्हें सताता नहीं है। वो मिलें तो कहना अब भी इंतजार में है घर, दीवारें इंतजार में थक गई हैं वो जमीन पर बैठना चाहती हैं, कहना घर की जमीन बहुत दिन हुए गोबर से लीपी नहीं गई है, दीवारों पर, दरवाजों का रंग अब भी गहरा है बस तुम्हारे न आने से वो उदास है, बारिश तो होती है लेकिन अब सीलन कलेजे में गहरे उतर गई है, शरीर का अधिकांश हिस्सा थकने लगा है, तुम्हारी याद आती है, तुम्हारे बचपन को भूल भी कैसे सकता हूं...मैंने कई सारे दुख भी देखे लेकिन मैं तुम्हारे साथ मजबूती से खड़ा रहा, खुशियां आईं तो तुमसे अधिक मैं झूमा, लेकिन ये क्या कोई इस तरह बेजार, बेरहमी से छोड़कर कैसे जा सकता है...सुनों राहगीर ये मैं किसी एक घर की दास्तां नहीं कह रहा हूं, ये उत्तराखंड के हर उस गांव, उस कस्बे, घर और परिवार की सच्चाई है जिसे कोई सुनना और देखना नहीं चाहता...। घर यूं पीछे छूट गया हो और उसके रहने वाले कहीं दूर निकल गए हों...तब घर कैसे और किन हालातों में जीता है ये घर से बेहतर कोई नहीं जानता...। सुनों राहगीर यदि वो रुठे हुए परिवार मिलें तो कहना कि घर तुम्हें अब भी वहीं मिलेगा बस उम्र की थकान है, चेहरा भारी हो गया है, खिड़कियों से हवा नहीं आती, तुम्हारी याद ने उस पर बड़ा जाल डाल रखा है...ये भी कहना कि घर अब भी तुम्हारी राह देख रहा है, देखता रहेगा...जब तक थककर उसका शरीर निढाल न हो जाए....। राहगीर एक और बात कहनी है वो ये कि यदि कोई कर्मयोगी या ईमानदार व्यक्ति मिले जो मेरे इस दर्द को समझने लायक हो, उससे ये दर्द अवश्य कहना कि बहुत कसक होती है जब घर से घर के लोग यूं चले जाते हैं और घर बेबस, अकेला, उदास और तन्हा रह जाता है...आखिर में थककर वो बुजुर्ग सा घर बोला राहगीर जाओ सांझ ढलने को है ये पहाड़ी क्षेत्र है यहां अंधेरा जल्दी गहराता है...उससे पहले अपनी मंजिल पर पहुंच जाओ...और वो दोबारा टूटे दरवाजों से होकर स्याह अंधेरे को ओढ़कर सो जाता है...।

- ये उत्तराखंड के पलायन का दर्द है, लोग रोजगार के लिए पुश्तैनी गांव और घर छोड़कर शहर आ रहे हैं, कुछ तो घरों को हमेशा के लिए छोड़ चुके हैं...ये घरों का मर्म भी है और दर्द भी...उम्मीद करता हूं काश कोई नीति नियंता या जनप्रतिनिधि इसे समझे और उत्तराखंड से पलायन रोकने के लिए कोई प्रयास आरंभ हो सके। यदि वे लोग इस पोस्ट को पढ़ें जिनके घर हैं, लेकिन वे उन्हें अकेला छोड़ आएं तो वे उनकी सुध अवश्य लें...क्योंकि घर केवल घर नहीं होता वो यादों का दस्तावेज होता है, पुरखों का चेहरा होता है..। 

...घर न छूटे, अपना दर ना छूटे...ये पुरखों की जमीं है दोस्तों, इस पर कोई कहर ना टूटे...। 

..जहाजों का अंतिम सफर


मैं जब अलंग, भावनगर, गुजरात पहुंचा तो मुझे बताया कि यहां दुनिया भर के जहाज काटने के लिए लाए जाते हैं...बातों ही बातों में पता चला कि यहां जो भी जहाज पहुंचता है वो उसका अंतिम सफर होता है...यहां किनारे पर पहुंचाने की भी अपनी एक प्रक्रिया है...। मैं सोचता रहा दुनिया भर के समुद्रों को अपने हौंसलों से नापने वाले जहाजों का भी अंत होता है, कैप्टन के लिए ये यात्रा, ये जहाज, उसकी यादें और उसके सफर...सब याद आते होंगे...कैसे वो उसे इस किनारे ला पाता होगा जहां कि वो जानता है कि कुछ महीनों में वो शानदार जहाज पुर्जे-पुर्जे होकर कई हिस्सों में बिखर जाएगा....। जहाज का यूं किनारे लगना या यूं कहूं उम्र को जीकर आत्मसमर्पण करना इतिहास के पन्नों के पलट दिए जाने जैसा ही है...। मैं और मेरे भाई बालादत्त जी काफी देर किनारे पर टकटकी लगाए विशालकाय जहाजों को टूटता देख रहे थे, अंदर के शामियाने कहीं किसी कोने में कालिख भरी मोटी सी चेन के पास रखे हुए थे दोबारा बिकने के लिए...। उस दिन लगा जहाज हो जाना भी जिंदगी का एक खेल ही है...। दूर रेत के बीच फंसा एक जहाज भी नजर आया, एक्सपर्ट ने बताया कि ज्वार-भाटे के समय जब पानी आगे आएगा तब वो भी किनारे लग जाएगा...दूर पनीली रेत की पीठ पर सवार जहाज उस घाट पर कटते जहाजों का दर्द भलीभांति महसूस कर रहा होगा...ये सोचते हुए हम वहां से लौट आए।

स्मृतियां बूढ़ी नहीं होती



सबकुछ अलग सा था बचपन में, पिता से जिद, मां से जिद, दोस्तों के कपड़ों के रंगों में भी जिद...। गज्जब था सबकुछ...। रंगों की समझ नहीं थी, पहनने का सहूर भी नहीं था नीली पेंट पर हरी बुशर्ट, हरी पेंट पर लाल बुशर्ट...। बस एक जिद अपना रंग सबसे अच्छा होना चाहिए...। मां के हाथ की गुजिया जब तक बनाते बनाते 10  नहीं खा लेते थे लगता ही नहीं था कि त्यौहार है। हर बार मां गुस्से में झारा उठाती लेकिन मारती कभी नहीं... बस मुस्कुराहट बिखेर देती...। तब बाइक कहां होती थी साईकिल का डंडा और उस पर टावेल लपेटकर बैठने का आनंद...। पिता से फटाकों कि जिद... सब चाहिए होता था...पहले चलाने की जल्दबाजी और बाद में आसमान के रंगों को देर रात तक टकटकी लगाकर देखना और उनमें से सपने बुनना...। आंखों में बसे हैं वो दिन...। स्मृतियां बूढ़ी नहीं होती, आंखें धुंधला जाती हैं, दीपावली हर साल आती है, अब बहुत कुछ बदल गया है...। पिता नहीं हैं, मां है तो बहुत बुजुर्ग है और गुजिया भी नहीं बनाती और डराने झारा भी नहीं उठाती, हां होले से मुस्कुराती अब भी है...। पहले पिता थे चिंता नहीं थी कहां से और कैसे खुश करते थे घर को...वो उनका जादू था क्योंकि मंहगाई तब भी थी लेकिन तब मन बड़े थे और लोग गहरे...। अब सोचता हूँ मैं पिता हूँ, बच्चों की जिद भी है लेकिन पिता का सा धैर्य नहीं है...। वो दीवाली खास थी, खूब परिचित आते थे पिता के, पिता भी जाते थे...। अजीब लोग थे पहले के वे बिना काम के भी एक दूसरे से मिला करते थे, अब समय बदल गया है अब काम से जाना होता है बिना काम किसी के पास टाइम नहीं है...। ओह वो दीवाली एक महीना महसूस होती थी और अभी कुछ दिन और घंटे...। वो बहन से गुजिया छीनकर खाना...और देर तक चिढ़ाना...। अब समय बदल गया...। सब कहां हंसते हैं...बहुत याद आती है वो बचपन की दीवाली...। 

पक्षियों को आजाद कर दीजिए


 ये पिंजरा हमारी भौतिक इच्छाओं की पराकाष्ठा है। हम पक्षी को नकली मानकर उसे भी पिंजरे में ही देखना पसंद करते हैं। जिस तरह से असल पक्षी होता है। हमें पक्षी को आखिर कैद क्यों करना है, क्यों हमने इस मानसिकता को इतना जड़ बना लिया है कि बाजार भी समझ गया कि हम पक्षी को कैद में रखने की इच्छाओं पर काबू नहीं कर पाएंगे, हालांकि एक और तर्क ये भी हो सकता है कि असली पिंजरे सेतो यही सही है लेकिन मेरी आपत्ति है कि कैद करने की प्रवृत्ति ही खत्म क्यों न हो। गणतंत्र दिवस पर इस पिंजरा मानसिकता को खत्म करें और पक्षियों को हमेशा के लिए आजाद करें। सोचिएगा। ये जो बाजार है ये हमसे अधिक हमें जानने लगा है, ये मानवीय नहीं है, ये कारोबारी है। मैंने जब इस पिंजरे को बाजार में देखा तो हक्का बक्का रह गया, ये नकली चिड़िया बोलती भी है। मैं सोचता हूँ हम अपनी आजादी का जश्न हर बार मनाते हैं लेकिन हमारे इसी समाज में पक्षी बंधक बनाए जाते हैं। आजादी पर खिलखिलाते हम एक बार ये भी सोच लें कि पिंजरे में पक्षी हमारे बारे में क्या धारणा बनाता होगा, प्लीज़ छोड़ दीजिए आज सारे कैद पक्षियों को। आजाद कर दीजिए, देखिए ये आजादी आपको कितनी राहत देगी। फोटोग्राफ गूगल से साभार

हमारे पास जलपुरुष हैं



दुनिया के लिए पानी क्या है, पानी को लेकर दुनिया का भविष्य क्या है ये हम सभी से छिपा नहीं है, ये बहुत स्पष्ट है कि पानी पर यदि मौजूदा मानसिकता का अनुसरण किया गया तब भविष्य बेपानी होना तय है। पानी और प्रकृति जैसे गंभीर विषयों पर दुनिया नेतृत्व विहीन हालत में है क्योंकि जिनके हाथों में सत्ता है वे प्रकृति और पानी पर अमूमन बहुत गहन संस्कार और समझ नहीं रखते और जिनके पास पानीदार संस्कार और विचार हैं वह दुनिया भर में सत्ताओं से जूझ रहे हैं लेकिन उन्हें समझा नहीं पा रहे हैं। प्रकृति और पानी पर विचारों का एक गहरा कुहासा सा है जिसे भेद पाना सरकारों के बस की बात नहीं है। हालात बिगड़ते जा रहे हैं। 

अब ऐसे हालात में क्या किया जाए, कौन राह दिखाए और किस तरह इन हालातों पर जीत के सबक एकत्र किए जाएं। दुनिया भर में राजनीति शक्ति प्रदर्शन का केंद्र बनती जा रही है, ऐसे में प्रकृति, जल, जंगल और नदियों की बातें कौन करे।  

ऐसे हालातों में एक जवाब ये भी सूझता है कि दुनिया में मुट्ठी भर लोग हैं जो प्रकृति और जल के लिए जमीनी कार्य में जुटे हैं और ये दुनिया उन मुट्ठी भर साहसी लोगों की ओर उम्मीद से देख रही है। 

दुनिया के हिस्से भविष्य का गहराता जलसंकट है, लेकिन हमारे पास जलपुरुष राजेंद्रसिंह जी हैं, वे हमारी धरती पर सूख चुकी नदियों को दोबारा बो रहे हैं, वे नदियों को जाग्रत करने के संस्कार बो रहे हैं, वे नदियों की उम्मीद बो रहे हैं, वे बो रहे हैं एक ऐसा समाज जो अंदर से पानीदार है और हमेशा पानीदार रहना चाहता है। वे सूखे में भरपूर पानी बो रहे हैं, वे सूखे में उम्मीद वाली फसल बो रहे हैं। वे दुनिया भर में भारत की प्रकृति के प्रति समझ और संस्कार के विचार बो रहे हैं, वे सूख चुकी आंखों में खुशियां बो रहे हैं। दुनिया उन्हें जलपुरुष के नाम से जानती है लेकिन हमारे लिए वे ‘पानी वाले बाबा’ हैं जो पानी के लिए बने हैं, जो नदियों के लिए बने हैं जिनके विचारों में हरदम पानी और उम्मीद प्रवाहित होती हैं, वे हारते नहीं हैं, थकते भी नहीं हैं, वे जानते हैं कि अपने जीवन का जो लक्ष्य लेकर वे चल रहे हैं उसकी राह बेहद सूखी है, दरारों से पटी हुई है, झुलसती हुई है, आसान नहीं है लेकिन वे जानते हैं कि उनके साथ अब हौंसलों का पूरा का पूरा समन्दर है जिसकी लहरें वे युवाओं के साथ हर उम्र और वर्ग में देख रहे हैं। 

वे गंगा पर चिंतित हैं वे नदियों के प्रदूषण से आहत हैं, वे नदियों के सूख जाने और नदियों के प्रति जागरुकता की कमी से दुखी हैं, लेकिन वे मुस्कुराते हैं जब भी कोई नदी प्रयासों से धरा पर लौट आती है, वे मुस्कुराते हैं जब भी कोई समूह कहीं झुलसती धरती पर पानी बो देता है, वे मुस्कुराते हैं जब पानीदार प्रयास सूखे में भी अंकुरित हो जाते हैं, वे मुस्कुराते हैं जब धरा और किसानों के बीच रिश्ता निभाने बारिष समय पर आ जाती है....। वे मुस्कुराते हैं जब कोई किसान अपने खेत देखकर मुस्कुराता है, वे तब भी मुस्कुराते हैं जब कहीं पानी के संस्कार खिलखिलाते हैं।

जी हां दोस्तों, मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित आदरणीय राजेंद्रसिंह जी सालों से पानी और प्रकृति पर काम कर रहे हैं, उन्होंने धरा और जल के लिए क्या किया है ये भी हम सभी जानते हैं लेकिन हमें ये आत्म पड़ताल भी अवष्य करनी चाहिए कि राजेंद्रसिंह जी ने जो संस्कार हमारे अंदर बोए हैं वे किस तरह अंकुरित हो रहे हैं, उनका प्रभाव कितना गहरा है। 

(फोटोग्राफ तरुण भारत संघ से साभार) 

आओ कोहरे में टनल बनाएं अपना सूर्य खोज लाएं...


ये उत्तर भारत की ठंड भी ना बहुत अजीब होती है, कुछ दिन तो ऐसे बीतते हैं जैसे हम सब दक्षिणी ध्रुव के निवासी हैं...। कहा जाता है कि दक्षिणी ध्रुव पर जाना और रहना आसान नहीं, ऐसा ही कुछ उत्तर भारत में भी होता है। तुम कहती हो पहाड़ की ठंड अच्छी होती है क्योंकि कोहरा नहीं होता और धूप निकलती है... और मैं कहता हूँ हमारे जमीनी हिस्से भी ऐसे नहीं हैं... उत्तर भारत को छोड़कर..। अब क्या किया जाए तो ये करें कि आओ छत पर चलो थोड़ा मोटा शाल ओढ़़कर...हाथ में छतरी ले चलेंगे और कोहरे को छतरी में बटोरकर लोहे के कनस्तर में बंद कर देंगे...। कोहरे को चीरकर हम अपने हिस्से का सूर्य खोज लाएं...। हम जमीन में गहरे उतरकर पानी खोज लाते हैं... तो टनल बनाकर अपने हिस्से का सूर्य और धूप भी तो खोज ही सकते हैं...। तुम मेरी इस बात पर मुस्कुरा उठी क्या तुम्हें लगता है कि हम ठंड में उत्तर भारत के निवासी जैसे लगते हैं... इतने कपड़े और इतनी ठंड...ओह...सहन नहीं होती... और मुस्कुराते हुए चाय बढ़़ाते हुए कहती हो चलो दक्षिणी ध्रुव पर ही सही चाय का आनंद लो...और हम सहज ही उस.भीड़ का हिस्सा हो जाया करते हैं...। 



   

नदियां कहां से लाओगे..भागीरथ तो नहीं हो


 अमूमन सुनते होंगे आप भी कि चुनावी सभाओं में नेताओं के अधपके बयानों के बीच वे नदियों को कहीं से कहीं ले जाने की बात करते हैं, दावा कर जाते हैं कि हम फलानी नदी का पानी आप तक पहुंचाएंगे, हम फलानी नदी से आपके क्षेत्र तक पानी पहुंचाएंगे....मैं पूछना चाहता हूं कि आप भागीरथ हैं, आप लाए हो नदी को... जो नदी या उसकी धारा को इधर से उधर ले जा सकते हैं...शर्म कीजिए...। नदी के पानी के लिए वादे करने के पहले हजार बार सोचिएगा क्योंकि नदी तुमने नहीं बनाई है, उसका पानी तुम्हारे श्रम से प्रवाहित भी नहीं होता, वो तुम्हारी सोच के अनुरुप बहती भी नहीं है, जब तुम्हारे हाथ न उसका पानी है, न जगह है, न मौसम है, न ही उसके सूखने का इलाज है तब कैसे तुम अपनी जीत के लिए नदी के पानी को कहीं भी ले जाने के वादों की बेतुकी फसल पका देते हो। प्रकृति और उससे जुडे़ हर तत्व पर किसी का हक नहीं हो सकता, वो केवल प्रकृति का हक है और वह ही उसे संचालित कर सकती है। हमारे हाथ नदियां आईं तो हमने अपनी झुलसी प्रतिभा से उनमें से अनेक को अब तक रसातल में पहुंचा दिया है। चुनाव में नदियों पर कोई वादे कैसे किए जा सकते हैं। सोचिएगा मैं तो देश की जनता से भी निवेदन करना चाहता हूं कि पानी मांग रहे हैं, नदियां का पानी मांग रहे हैं तो पहले नदियों को जीवित रहने लायक तो बनाईये। रही बात पानी के संकट की तो संकट पैदा करने और इस मौसम चक्र को तबाह करने  के पीछे हम मानवों का ही हाथ है, इसका उपाय ये कतई नहीं है कि हम अपने पानी के लिए किसी नदी के शरीर में खींचतान मचाएं। अपने  पानी को दोबारा मजबूत बनाएं, धरा को पानीदार करें...जो बिखर गया है वो संवारा जा सकता है लेकिन नदी का ये उपाय मेरे तो समझ से परे है कि जहां संकट आने लगा वहां नदी की धारा खींचकर ले जाईये। 

कोरोना आ गया तो गंगा जैसी कई नदियों को जीवन मिल गया। हमें सोचना होगा कि हम अपने स्वार्थ की अंगीठी में चुनावी रोटियों के बीच नदियों को कतई न लाएं क्योंकि नदियां हैं तो जीवन है। मुझे बहुत परेशानी हो जाती है तब भी किसी नेता का बयान देखता हूं कि हम फलानी नदी का पानी तुम तक पहुंचाएंगे...अरे आप केवल उसके पानी को उसकी धारा से जुदा कर एक और उसके बाद कई सारे रास्ते बना रहे हैं...वे रास्ते नदियों को जीवन नहीं बल्कि सूखे की ओर धकेलेंगे, उसकी धारा या उसकी राह को मोड़ने का अर्थ होता है कि आप बहुत कुछ बदल देते हैं, वर्तमान, भविष्य, भूगोल, नदी का जीवन और जलीय जीवों का जीवन भी...तो प्लीज...देश के नेताओं आपसे निवेदन है कि नदियों पर आप कोई बयान देने से पहले ये सोचा अवश्य करें। हमारी धरती पर नदियों की राह प्रकृति ने बनाई है और प्राकृतिक तरीकों से ही उसके जल का प्रवाह होता है, ऐसे बहुत से उदाहरण है जब नदी की राह बदली गई या उसके पानी को बेतरतीब ढंग से यहां वहां खींच लिया गया तब वो नदी ही खत्म हो जाती है...वैसे भी नदियां संकट के दौर में तो हैं...आप भागीरथ नहीं हैं, दोबारा धरती पर नदी नहीं ला पाएंगे इसलिए प्लीज...।


चाय तुम और मैं...


सुबह हम और तुम चाय जैसे होते हैं, कुछ मीठे और इन दिनों बहुत कुछ अदरक की तरह तीखे से...। हां याद आया कि वो चाय ही है जो हमेशा से हमें साथ और बहुत करीब रखती आई है। हां तुम्हें याद होगा मुझसे अधिक चाय तुम्हें पसंद है लेकिन तुम्हारी पसंद हमेशा से मेरी और बहुत हमारी होकर अब इस भागती जिंदगी का सबसे बड़ा सुकून हो गई है वैसे चाय सुबह की शुरुआत के साथ बीते दिन के जमाखर्च पर संवाद का एक माध्यम भी है। मैं जानता हूँ इस दौर में भागते हुए हम ठहरते हैं और वो भी तुम्हारी जिद पर चाय के लिए, मैं ये भी जानता हूँ कि चाय यहां हमारे बीच के सुकून के और अपने खूबसूरत पलों के बीच एक गर्म लेकिन रिश्तों को सींचने वाली एक ठंडी सी गहरी श्वास है...। चाय अब भागती जिंदगी का हिस्सा है लेकिन तुम्हारे और मेरे बीच ये अक्सर समय को रोककर हमें साथ मुस्कुराने का अवसर देती है...। आह और वाह चाय...कुछ जिंदगी सी और बहुत अपनी सी...। मैं जानता हूँ जब भी मैं तुम्हें चाय कम करने को कहता हूँ तब अक्सर तुम्हारी नजरें बोल पड़ती हैं कि नहीं अभी नहीं... अभी हमें भागते हुए दौर में से बहुत सा समय अपने लिए बचाना है...और मैं चाय हाथ में लेकर मुस्कुरा देता हूँ...।


(फोटोग्राफ...गूगल साभार)

सोचा करता हूं जब पिता थे तब समय क्यों नहीं था


 ..अकसर सोचा करता हूं जब पिता थे तब समय क्यों नहीं था, वे आखिर क्यों कहते थे कि कुछ पल साथ बैठ जा, कुछ बात करनी है। क्यों कहते थे कि जब भी तू पास बैठता है तो मन को राहत मिलती है....? मैं जानता था कि पिता हमेशा तो साथ नहीं होते फिर भी मैं उन्हें और उनके नेह भरे अहसासों की जगह समय को तरजीह देता रहा....। मैं सोचता था कि अगली बार कुछ अधिक दिन का अवकाश साथ लाउंगा, तब उनके पास आराम से बैठूंगा,, उन्हें सुनूंगा, उनसे मन की कहूंगा....। मैं आता रहा, जाता रहा, समय भी मुझे पिता और उनके अहसासों से मिलने के पहले जिम्मेदारियों की थकी सी पोथी दिखाकर डराता रहा...और मैं उसी के पीछे चलता रहा....। अकसर दोस्तों से सुनता था कि पिता उस गहरी सी जिम्मेदारी का नाम है जो हमें अकसर तब समझ आती है जब वे नहीं होते...लेकिन मैं मानता था कि मेरे पिता के साथ वैसा नहीं होगा जैसा सबके पिता के साथ हुआ...वे तो अभी हैं और रहेंगे...मैं एक दिन उनके पास बैठूंगा अवश्य...। बस एक दिन यूं देर रात जब प्रेस से घर लौटा तो मोबाइल पर एक संदेश आया कि पिता बहुत अधिक बीमार हैं और तुम जल्दी आ जाओ....। वो मोबाइल हाथ से छूट गया, लगा जैसे जिंदगी छूट गई, सपने टूट गए, उम्मीदें का आकाश उधड गया,,,,अहसासों वाला मटका उनके समेत जमीन पर गिरा और सबकुछ बिखर गया....। मैं भागता रहा, सोचा अब कुछ आखिर के शब्द ही चुन लूं...। पहुंचा तो बाबूजी थे, शब्द भी थे लेकिन सबकुछ अस्पष्ट...। वे कुछ कह पाए, मैं होले से दो बार उनके पास पहुंचा और केवल इतना ही कहा बाबूजी....वे चैतन्य अवस्था में पहुंचे मुझे आंखें खोलकर देखा लेकिन अगले ही पल वो एक गहरा सा सन्नाटा देकर चले गए, सवालों की वो गहरी से गुत्थी मेरे साथ आज भी है, अकसर अकेलेपन में मैं अब भी उन्हें सुलझाने की, समझने की कोशिश करता हूं....लेकिन कोई उत्तर नहीं मिलता...। सोचता हूं क्या ले गए वे अपने साथ, क्या कहना चाहते थे, क्या थे उनके अहसास, उनका प्रेम और मैं एक बावरे सा समय के साथ भागता ही रहा....सोचता था कि वे हमेशा साथ रहेंगे लेकिन नहीं है....। उनके चले जाने के बाद पांच से छह साल तक मन का एक हिस्सा सख्त सा हो गया...रोते हुए...वे सपनों में नजर आते लेकिन तब समय उन्हें ठहरने नहीं देता, तब मैं इंतजार करता और वे समय के साथ चले जाते....। समय वही है और मैं भी वही...बस पिता नहीं हैं...। उनके जाने के बाद उनकी चीजें थीं, दीवार पर उनका कुर्ता टंगा था, दवाओं का डिब्बा, पलंग के पास लगा एक छोटा सा पंखा, वो पलंग....सबकुछ है बस पिता नहीं है...लेकिन ये सब उनके न होने का अहसास बार-बार करवाते हैं...। कितना अजीब है ये संसार...। दोस्तों केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि पिता का चले जाना एक गहरी सी रिक्तता है जिसे कोई नहीं भर सकता....। यदि वे ये कहते हैं साथ बैठ जाओ तो समय से कहना कि तू भी कुछ देर यहीं बैठकर सुस्ता ले...पिता की सुन लें तब चलेंगे....वरना पिता चले जाने के बाद समय का साथ भी बेमानी सा लगता है....। अब भी जब कभी अकेला सा महसूस करता हूं इस दुनिया में तो अकसर उनकी तस्वीर से बतिया लेता हूं, वे कुछ कहते नहीं लेकिन मुझे लगता है वे सुन लेते हैं...क्योंकि वे पिता हैं...।

हे अभिमन्यु ...चक्रव्यूह भेदना सीख लो

 बहुत साजिश हैं, अबकी पिछली दफा से कई गुना अधिक संगीन चक्रव्यूह है...उसे भेदना सीख लो...वरना हर युग में तुम यूं ही साजिश के शिकार होते रहोगे। तुम्हारा कोई दोष भी नहीं है लेकिन ये भी समझ लो कि अब कोख में ही सर्वज्ञ हो जाना जरुरी है, कोख में नींद नहीं लेनी है जागना है, जागते रहना है, सीखना है दुनिया के उन सभी कूटनीतिक प्रपंचों को जिनसे तुम्हें दोबारा लड़ना होगा। मैं तुम्हें ललकार नहीं रहा हूं लेकिन आगाह अवश्य कर रहा हूं क्योंकि मुझे चिंता है कि तुम हर युग में राजनीति और कूटनीति की भेंट न चढ़ा दिए जाओ। सुनो अभिमन्यु हैरान मत होना मैं यहां तुम्हारे नाम का उल्लेख इसलिए भी करना चाहता हूं क्योंकि तुम्हें इस सत्ता के भंवर में उतरकर अपनी ही तरह के असंख्य समुदाय का नेतृत्व करना है, उन्हें उन सभी प्रपंचों से बचाना है जिनसे वे ग्रसित होते रहे हैं। सुनो अभिमन्यु...कुछ भी तो नहीं बदला है, हां सच में। सबकुछ वैसा ही है जैसा तुम्हारे काल में होता था, नारी अब भी वेदना सह रही है, पासे अब भी फेंके जा रहे हैं, चौसर अब भी सजता है, प्यादे अब भी मनमाफिक निर्णय लेकर हंटर के दम पर अपनी मर्जी वाले खानों में खिसकाए जा रहे हैं, अब भी भीष्म अपने अंदर का युद्ध झेल रहे हैं अपनी मौन भरी शपथ के साथ। अब भी दुर्याधन अपनी गदा लेकर खुले आम रण में हैं, अब भी तुम्हारे पिता अर्जुन की भांति ज्ञान के सर्वज्ञ ज्ञाता अकेले हैं और दुविधा में, अब भी गांधरी की आंखों से पट्टी नहीं हटी है, अब भी धृतराष्ट्र इंतजार में हैं कि सत्ता के सुख का निर्णय शायद उन्हें चिर स्थायी सत्ता का मालिक बना दे, अब भी कर्ण अपनी निष्ठा का आकलन नहीं कर पाए हैं कि वो कहां हैं और क्यों हैं और उन्हें कहां और क्यों होना चाहिए ? अब भी सभा में वही सब हो रहा है जो तब हुआ करता था...हां मुझे एक बात उस समय की दोहरानी है जैसा की शास्त्र कहते हैं कि शिशुपाल की माता को अपने बेटे के प्राणों का भय हमेशा बना रहता था एक दिन शिशुपाल की माता ने श्रीकृष्ण से अपने पुत्र को न मारने का वचन लिया तब श्रीकृष्ण ने एक मां के वचन की लाज रखते हुए कहा कि मैं हमेशा शिशुपाल के पापों को क्षमा नहीं कर सकता इसलिए आप ही बताईये कि मैं आपके पुत्र की कितनी गलतियों को क्षमा कर सकता हूं इस पर शिशुपाल की माता ने विचार किया कि कोई भी व्यक्ति अपने जीवन काल में 100 से अधिक गलतियां नहीं कर सकता, इसके बाद उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि आप मेरे पुत्र की 100 गलतियां को माफ कर देना, ये बात उन्होंने स्वीकार कर ली...लेकिन सभी जानते हैं कि 100 गलतियों तक शिशुपाल सुरक्षित था लेकिन 101 पर श्रीकृष्ण ने उसका सुदर्शन चक्र से वध कर दिया...। हे अभिमन्यु तुम्हें महाभारत काल का वो अध्याय भी कंठस्थ करना होगा। हे अभिमन्यु तुम वीर हो, समझ सकते हो, जन्म किसी के हाथ नहीं होता और मृत्यु भी नहीं...लेकिन मैं इतना अवश्य चाहता हूं कि तुम दोबारा इस धरा पर लौट आओ और इस अंतर को अवश्य पहचानना कि महापुरुषों का जन्म केवल कर्तव्यपथ पर चलने के लिए होता है, एक बार तुम साजिश के शिकार हो गए लेकिन अबकी तुम्हें तुम जैसे ही असंख्य लोगों का नेतृत्व करना है, यहां धरा पर आम जन तुम्हारी भांति ही चक्रव्यूह के भंवर में हैं, वे भी नहीं जानते कि आखिर कहां और कैसे निकला जाए, बहुत से तो उससे निकलने के प्रयासों में ही दम तोड़ रहे हैं...आखिर ये चक्रव्यूह कैसा है जो युगों के बदल जाने के बाद भी अब तक कायम है, ये साजिश कैसी है, ये कूटनीति, ये राजनीति और ये भयाक्रांत कर देने वाले प्रपंच...। मैंने इस महासमर के नेतृत्व के लिए तुम्हें इसलिए चुना है क्योंकि तुम ही हो जो उस युग के कुशल योद्धा बनकर उभरे थे, तुम ही थे जिसने उस चकव्यहू में दाखिल होने का साहस दिखाया था...बस अबकी उस निंद्रा को पास न आने देना, अबकी उस चक्रव्यहू के संपूर्ण ज्ञान तक जागते रहना...तुम्हें इस धरती पर उस ज्ञान के साथ आना है क्योंकि यहां के चक्रव्यूह भी भेदने के लिए हमेशा जागते रहना आवश्यक है, वो महाभारत का काल था ये भारत का मौजूदा हाल है...हे वीर तुम्हें दोबारा आना ही होगा एक और समर में उतरने के लिए...। 

मूक संसार कितना खौफनाक होता है


जी हां हममें से बहुत होंगे जिन्हें घर की दीवारों पर पक्षियों के फोटोग्राफ पसंद आते हैं, रंगीन चिड़ियाओं की खामोश दुनिया...। वो फुदकती नहीं, आवाज़ नहीं करतीं, हजार बार सिर नहीं मटकाती...खामोश एक जगह बैठी रहती हैं बिना सवाल पूछे बिल्कुल वैसी दुनिया में जैसी हम चाहते हैं...। वो मूक संसार कितना खौफनाक है... ओह जैसे आकृतियां बनाकर उनकी तस्वीर निकाली और आकृति की गर्दन मरोड़ दी, गोयाकि हमें चाहिए  ही नहीं ऐसा संसार जो सृजन का सबब बने...। दीवारों पर नदियों के फोटोग्राफ भी आपने देखे होंगे...एकदम नीली नदी... बस बहती ही तो नहीं है, बस उसके पानी में जीवन के सृजन की तासीर ही तो नहीं  है, कलकल आवाज़ ही तो नहीं है... लेकिन जीवन भी तो नहीं है...। ऐसे ही सांझ, बारिश, वृक्ष, प्राकृतिक सौंदर्य... हमें दीवारों पर चाहिए... हकीकत में वो दीवारों पर हमारी प्रकृति से दूरी का एक वस्तुनिष्ठ हल है...। हमारे बच्चे ऐसे पक्षी, नदी, वृक्ष और प्रकृति देखकर बड़े हो रहे हैं इसीलिए बहुत गहरा सूखा है रिश्तों में, व्यवहार में, बोलचाल में...तो क्या मान लें एक दिन रिश्ते भी दीवारों पर तस्वीरों में शोभा बढ़ाएंगे...। ऐसा खौफनाक, नकली और एकांकी जीवन क्यों चाहिए हमें ? 

सब यूं ही रहा तो सच मानिए एक दिन वो भी आएगा जब दीवारों पर हरी तस्वीरें होंगी और बाहर केवल सूखा होगा... रिश्ते तब तक दरक चुकी जमीन में दरारों में समा जाएंगे... बेहतर है प्रकृति की कक्षा में लौट आईये, चहकते पक्षियों की बोली के सुरों से अपने जीवन की तान मिलाने....।

 

अब एकही गेंद बाकी है कचरा

 

मुझे हिंदी फिल्म लगान के क्रिकेट मैच की वो आखिरी गेंद झकझोंर जाती है, जब भुवन कहता है- अब एकही गेंद बाकी है कचरा....तुम्हें वो गेंद सीमा पार भेजनी ही होगी, कुछ कर (कचरा)....। उस चेहरे पर, उस पल में...ओह कितनी बैचेनी, कितना भय, कितना खौफ, कितनी गहरी पीड़़ा...और परस्पर रस्सी की तरह बल खाती उम्मीदों से उठता रुदन....। उस दृश्य में केवल तीन गुना लगान का भय था...सोचो जब जिंदगी दांव पर लग जाएगी, जब सांसें गला घोंटने लगेंगी, जब गर्मी हमें केवल झुलसाएगी, तब न कोई उम्मीद बचेगी, न कोई अवसर...। हालात नहीं बदले हैं, केवल हम घरों में कैद हैं इसलिए प्रकृति को राहत है जिस दिन निकलेंगे फिर वही सब होना तय है। मैं प्रकृति के प्रति हमारी समझ की बेबस सी जानबूझकर ओढ़ी गई हताशा को कटघरे में खड़ा करना चाहता हूं...आखिर क्या हम भी यही सोचते हैं कि प्रकृति को किसी खेल की तरह आखिर में किसी एक अवसर से जीता जा सकता है...? नहीं...ये कभी नहीं होगा। ...जब प्रकृति अपना लगान वसूलेगी तब कोई अवसर नहीं होगा, कोई खेल नहीं, कोई उम्मीद नहीं...केवल एक झुलसता हुआ भविष्य और चीखती हुई हमारी भावी पीढ़ी होगी...। मैं उस कराह को महसूस कर रहा हूं, मैं स्पष्ट देख पा रहा हूं उस पीढ़ी को जो जंगल नहीं जानती क्योंकि हमने उन्हें छोड़ा ही नहीं। उसे जल नहीं पता क्योंकि उसके हिस्से चंद बूंदें और गहरा सूखा जो आया है, वो प्रकृति शब्द को नहीं समझ सकती क्योंकि तब तक वो गुस्सैल सी विनाश की प्रतिमूर्ति हो चुकी होगी...। ऐसा कहा जाता है कि खोज की पहली सीढ़ी कल्पना ही होती है, तो क्यों न हम ये कल्पना करके देखें कि हमारी उदासीनता ने जल और जंगल खत्म करवा दिए हैं....। अब एक सूखा सा दरिया है, तवे सी तपती धरती, एक बेजान और लाचार समाज, सूखे से गुस्सैल चेहरे और सूखकर सिकुड़़ चुकी उम्मीदें...। नदियां नहीं, पानी नहीं, कुएं गहरी निराशा से भरे होंगे, तब तालाब शहर ओढ़कर हमेशा के लिए सो जाएंगे, जमीन पानी के बदले केवल आंसू ही लौटाएगी...बच्चे बूंद-बूंद के लिए चीखेंगे, दूर-दूर तक न पानी होगा न उम्मीदों के बादल...। तब कोई (कचरा) चाहकर भी उस हारे हुए मैच को जिता पाने के लिए जिंदगी के विकेट पर टिक नहीं पाएगा, तब कोई चीख नहीं होगी...केवल गहरा सा दर्द होगा और हमारी ये जड़ हो चुकी उदासीनता...।

मन कई बार खींझता है कि किसी पर्वत पर जाकर चीखकर ये कहूं कि बस करो, अब बस भी करो...इस दोहन को। हम कैसे थे और कैसे हो गए हैं...। जल, जमीन, जंगल...ये तीन सूत्र हमें जिंदगी देते हैं। हम इन्हें बर्बाद नहीं कर सकते, इन्हें हम संचालित नहीं कर रहे हैं, अब प्रकृति का वो चक्र गड़बडाने लगा है। पहले सात दिनों की झड़ी लगती थी, अब मौसम सूखा ही बीत जाता है और बादल बेपानी। अब तापमान प्रतिवर्ष बढ़ने लगा है, ठंड समय पर नहीं आती, वो देर से शुरु होकर देर से ही खत्म होती है...। कहां है वो मनचाहा मौसम, वो बारिश की झड़ी, वो सावन और उसके झूले...। सब तेजी से उलझता ही जा रहा है।

ग्लोबल वार्मिंग दुनिया की चिंता है, लेकिन जब तक ये आम व्यक्ति के ज्ञान चक्षु नहीं खोलती, तब तक चिंतन का मंच कितना बड़ा और अहम है कोई मायने नहीं रखता। मेरा मानना है जो जिस शैली, जिस भाषा में समझता हो उसे उसी तरह समझाया जाए, अहम बात ये है कि तेजी से गड़बडाते हुए उस चक्र की सूचना सरल भाषा में आमजन तक पहुंचनी चाहिए, उसे वो बताया जाए जो वो समझ और कर सके। चिंतन भी तभी कारगर होगा जब उसे जमीन मिलेगी, जब उस विचार समूह हो अंकुरण का माहौल मिलेगा...। देश में पर्यावरण हर कक्षा के अध्ययन का एक अनिवार्य विषय हो इसमें बेशक थ्योरी कम हो, लेकिन प्रेक्टिकल ज्यादा हो...। पिता अपनी विरासत के वितरण के समय प्रकृति संरक्षण की शर्त पर दस्तखत करवाए, बेटियां तभी किसी का हाथ थामे जब वो मिलकर प्रकृति संवारने का संकल्प भी ले, माताएं बच्चों को संस्कारों के क्रम में प्रकृति सुरक्षा का भी सबक अवश्य सिखाए, घरों में प्रकृति के पर्व भी उल्लास से मनाए जाएं, खेत में बीज रोपने की प्रक्रिया से पहले पौधे रोपे जाने की रस्म हर बार निभाई जाए, स्कूल बच्चों में ज्ञान के साथ प्रकृति के संवर्धन को भी संचारित करें, अबकी गर्मी ये भी तय करें कि अपने एयरकंडीशनर कम से कम उपयोग करेंगे, परिवार में दादा अपने पोते के जन्म पर पौधा रोपे और पोते से उसका संवर्धन करवाए, जब तक प्रकृति हमारी भावनाओं का हिस्सा नहीं होगी, जब तक हम प्रकृति संवर्धन को आम जिंदगी का हिस्सा नहीं बनाएंगे, ये चक्र यूं ही गडबडाता रहेगा... हम प्रकृति संरक्षण और संवर्धन की जमीन तैयार करने में अपनी भूमिका तय करें। मिलकर चलें, आज संवारें, कल सुधारें...।

मेरे दोस्त, कभी सोचा है कि हम भाग रहे हैं लेकिन आगे जिंदगी कहां है, कोई सुनहरा भविष्य नहीं है, कोई खुशहाली नहीं है। बच्चे कल सवाल पूछेंगे तैयार रहियेगा...जवाब नहीं होगा हमारे पास...। बेहतर है समय रहते संभल जाएं...। शुरुआत आज और अभी से हो...।

उन्हें समझने के लिए मन का ‘आशुतोष’ होना अनिवार्य है


काफी दिनों से सोच रहा था कि आशुतोष राना जी पर कुछ लिखा जाए, मनोयोग बना फिर बिखरा, फिर बना और बनता ही गया। आशुतोष राना जी को हम जितना समझ पाए हैं वे एक अच्छे कलाकार है, वक्ता हैं, चिंतक हैं और अच्छे दोस्त हैं, दोस्त ऐसे जिनसे सबकुछ मन का कहा जा सकता है। मुझे इसलिए ऐसा लगता है क्योंकि वे फिल्मी दुनिया के कम और हमारी आम दुनिया के अधिक नजर आते हैं क्योंकि वे सहजता को सर्वोपरि मानते हैं और सादगी को सबसे अहम। जब लिखना आरंभ कर रहा हूं तब यह भी लगा कि उनके किस छोर को पकड़ा जाए सभी बहुत गहरे समाए हैं। कहां से आरंभ करें और कहां तक पहुंचेंगे कोई छोटा छोर देखता रहा, खोजता रहा लेकिन थक हारकर लौट आया और सोचता रहा कि मैं भी अजीब हूं जो उन्हें शिराओं और छोरों पर तलाश रहा हूं। वे हैं भी बहुत ही अजीब सीधे तौर पर समझ न आने वाले, उन्हें समझने के लिए गहरा होना और गहरे होते रहना आवश्यक है। वे एक आयाम कहां हैं चिंतन से दुनिया के समक्ष अपना नजरिया रखने वाले आशुतोष फिल्मों में आकर खलनायक बन जाते हैं, एक चिंतक होकर खलनायक का अभिनय करते हैं और उसमें इतने गहरे उतर जाते हैं कि परदे पर उनके सिवाए कोई और नजर ही नहीं आता, स्मृतियों में छा जाते हैं। साक्षात्कार में हंसते हुए कहते हैं लोगों को दोस्तों से मिलता है मुझे जो दिया वो दुश्मन ने दिया...जी हां ‘दुश्मन’ उनकी फिल्म का नाम है। खलनायक का अभिनय कर फिल्मी क्षेत्र में अपने आप को स्थापित करने वाले आशुतोष साहित्य में दाखिल होते हैं और ‘रामराज्य’ लिख देते हैं...अब उनका चिंतन देख लें ‘रामराज्य’ का ये अंश यहां जरुरी लगा इसलिए साभार ले रहा हूं।
हनुमान की तरफ कनखियों से देखता हुआ रावण बोला ‘राम, मैं महादेव शिव का भक्त ही नहीं उनका दास भी हूं। मुझे मात्र महादेव ही प्रिय हैं किंतु मैं देख रहा हूं कि मेरे आराध्य महादेव तो तुम्हारे भक्त हैं और उन्हें तुम अतिप्रिय हो। मेरे निदान के लिए उन्होंने तुम्हारा चयन किया है। राम, क्योंकि महादेव अपने इस हठी, दुराग्रही और अतिप्रिय शिष्य को मृत्यु नहीं, मुक्ति प्रदान करना चाहते हैं...।
अब आप ही बताईये कितने आयामों को छूते हुए भी वे कितने सहज और सरल हैं, जब वे अपने गांव होते हैं तो उनका अपना अंदाज होता है और साहित्य के क्षेत्र में अपना अलग अंदाज। फिल्मों में अलग और चिंतन की लेखनी के दौरान अलग नजर आते हैं। उन्हें जब आप बोलते हुए पाएंगे तो लगेगा जैसा वे कहते रहें, शब्दों के साथ उच्चारण से भी गहरी मित्रता है, सभी उनके साथ नजर आते हैं। जब आप उन्हें देख रहें हों तो लगेगा कि परदे पर केवल वे ही रहें, उनकी आवाज और उनका चेहरा लगता है एक-दूसरे का आइना हैं। जब आप उन्हें पढ़ रहे होते हैं तब आप आप उन्हें अपलक पढ़ जाते हैं, सोचता हूं जब हम उन्हें अपलक पढ़ जाते हैं, सहज देख जाते हैं, धैर्य से सुन जाते हैं तब क्या वे कठिन हैं, उन्हें समझना कठिन कहां हैं, लेकिन फिर अगले ही पल सोचता हूं कि आसान भी तो नहीं है क्योंकि जो सबसे सरल है वही सबसे कठिन भी है और जो सबसे कठिन है वही सबसे सरल भी है, ये विधाता ने भी खूब रचना की है इस संसार की, पहले अपने आप का साक्षात्कार अनिवार्य कर दिया है और उसके बाद जग का साक्षात्कार अनिवार्य किया है, जग को खोजने वाला यदि अपने आप तक नहीं पहुंचता है तो वो बिना मंजिल का राही हो गया और जो अपने आप को खोज कर जग की ओर अग्रसर हुआ तब यकीन मानिये कि वो रैदासी भाव का अनूठा उदाहरण है जिसे सबकुछ समझ आना तय है, अब ये आप पर आकर बात ठहर जाती है कि आप ऐसे व्यक्तियों को कितना खोज पाते हैं और कितना उनमें आप समाहित हो पाते हैं।
आशुतोष राना जी का चेहरा बोलता है, आंखें बोलती हैं, चेहरे के हर भाव बोलते हैं, शब्द और उच्चारण की आवश्यकता तो उन्हें बहुत बाद में होती है, मेरा मानना है कि हम उन्हें सतत पढ़ना आरंभ करें क्योंकि कलाकार तो बहुत आएंगे लेकिन आशुतोष राना जी जैसे कलाकार सदियों में आते हैं, एक ही कोई होता है जो आशुतोष कहलाता है। उनकी कृति, चिंतन और लेखनी नायाब है आप उसमें खो जाएंगे, आप यदि उन्हें पढ़ रहे हैं तब यकीन मानिये कि आपको हर पल ये अहसास भी होगा कि हम कठिन से सरल का कोई पथ चुनकर उस पर अग्रसर हैं या ये भी लग सकता है कि किसी सरल से पथ या पगडंडी से हम किसी कठिन से पथ की ओर अग्रसर हैं लेकिन बिना थके और बिना हारे क्योंकि वे संपूर्ण हैं और जीतने में भरोसा रखते हैं, जीतना सिखाते हैं और जीतने को ही श्रेयस्कर मानते हैं बशर्ते उस जीत की राह आपके मन के ही कहीं आसपास से होकर निकली हो। वे अनूठे हैं क्योंकि उन्हें अपने अंदर झांककर देखना आ गया है, वे अनूठे हैं क्योंकि वे आज के दौर में भी एक आदर्श रामराज्य को देखते और गढ़ते हैं, वे अनूठे हैं क्योंकि वे रिश्तों को मान देते हैं, वे अनूठे हैं क्योंकि वे अपने गुरू के हर पग पर अपना मस्तक टेकते हैं, वे अनूठे हैं क्योंकि खलनायक होकर भी उसे नायक की तरह जीते हैं, वे अनूठे हैं क्योंकि वे खरा कहते हैं और खरा पसंद करते हैं, आप उनसे सहजता पा सकते हैं, लेकिन आपको हर पल वे अपने आपमें कठिन नजर आएंगे लेकिन आप उन्हें पढ़ेंगे तब आपको वे एक सहज सा अध्याय बनकर समझ में आ जाएंगे...ओह, सोचता हूं लिखूंगा एक समय पर उन्हें और पढ़कर, लेकिन सोचता हूं क्या उन्हें पढ़ने की कोई थाह है, कोई आसान लिपि या शब्द कोष, समझने की कोई सीमा क्योंकि वे आशुतोष और उन्हें समझने के लिए आपके मन का आशुतोष हो जाना अनिवार्य है...।


(फोटोग्राफ गूगल से साभार)

ये सौंधापन तुम्हारी बातों जैसा है


सुबह कभी खेत में फसल के बीच क्यारियों में देखता हूँ तो तुम्हारी बातों के सौंधेपन के साथ जिंदगी का हरापन भी नज़र आ ही जाता है...। सोचता हूँ मुस्कान और हरेपन में कोई रिश्ता है तभी तो दोनों एक नेक समाज को गढ़ते हैं। फसल की क्यारी के बीच मिट्टी की महक घर की तरह होती है। घर और खेत की मिट्टी में एक मानवीय रिश्ता है जो केवल महकता है और महसूस किया जा सकता है...। कभी उस मिट्टी पर पैरों को गहरे गढ़ाकर खूब खेला करते थे, बारिश में बचपन के वो कच्चे मकान आज तक टिके हैं...। मन उन बचपन के कच्चे घरों में आज भी बसता है, तुम्हें बताऊँ क्योंकि तुम जीवन का हिस्सा हो और मिट्टी भी हमारे जीवन अहम भाग है...। आओ बचपन के घर तक घूम आते हैं, दोनों...क्या पता बचपन के साथी भी रास्ते में मिल जाएं...। तुम बतियाती रहना क्योंकि वो हरापन लिए होता है...। खेत पर टहलते हुए कुछ यादें अब भी महकती हैं...।

पता नहीं... उस प्रहर के बाद चातक बचे ही न...।

चातक का प्रेम उदाहरण है कि पराकाष्ठा के शिखर पर जीत हासिल होती है...। स्वाति नक्षत्र की वो पहली बूंद क्या है दरअसल वो कठिन लक्ष्य है। चातक की प्यास और उसका इंतज़ार केवल एकाग्रता नहीं है वो एक स्वप्रेरित पथ है जिससे आप सफलता के उस शीर्ष तक पहुंच सकते हैं...। चातक का उस बूंद को पा लेने का भरोसा उसे अपने कठिन सफर में साहस देता है। चातक का वो बूंद को पा लेना प्रेम की एक सुफियाना रचना है। चातक को हममें से कितने लोग पढ़ना चाहते हैं, मैं जानता हूँ वर्तमान पीढ़ी के लिए वो आऊट आफ सिलेबस है क्योंकि पुरानी पीढ़ी का समयाभाव बहुत कुछ छीन रहा है उन्हीं में से चातक भी एक है...। यही हाल रहा तो मोटिवेशन का ये स्टार पक्षी विचारों से हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएगा...। बताईये ना बच्चों को कि चातक जैसा मन तटस्थ होना चाहिए लक्ष्य के प्रति...। सोचिए उस परमेश्वर को जिसने चातक को भी रचा, उसकी प्यास को भी। इंसान रचा और उसके लिए पक्षियों का संसार भी रचा...। ओह चातक को एक मौसम जीकर तो देखिये हम कितने उथले हैं, सिरे से ही वैचारिक तौर पर कितने घिस चुके हैं अहसास हो जाएगा...। एक गिलास पानी से आधा फैंकते समय हमें कभी याद नहीं आता कि एक बूंद के लिए एक पक्षी आराधना करता है, कठिन तप करता है...। हम सूख रहे हैं क्योंकि विचारों का सूखापन बढ़ रहा है क्योंकि हमें अपनी अगली पीढ़ी को केवल सूखा देना है... यही सच है क्योंकि ऐसा नहीं होता तो चातक आज हमारे मस्तक और ललाट पर मुस्कुरा रहा होता...। चातक को व्यवहार में उतारें उसका सच बच्चों को सुनाएं... क्या पता हमारी नादानी के इस प्रहर के बाद कोई चातक बचे ही ना...?

सुखाईये और धूप दिखाईये सपनों को

सच जीवन में हम कितना कुछ बुन लेते हैं अपने लिए...। सपनों को बुनना और गूंथना दोनों में अंतर है, लेकिन बुने हुए सपनों को बहुत समय रखे रहना और उसके रेशों पर उम्र की केवल धूल जमना भी तो सही नहीं है। सपनों की बुनावट किस तरह से की गई है मायने कहाँ रखता है, अलबत्ता देखने में तो ये ही आ रहा है अरसे से कि बुने सपने मन के किसी कोने में धूल से पट जाते हैं, हमारे पास इतना समय ही.कहाँ होता है जो हम उन्हें झड़ककर थोड़ा उम्मीद की धूप दिखा दें...। उम्रदराज़ होकर उन सपनों को देखने और छूने के भी क्या मायने..? सच वे पसीज जाते हैं उनमें एक अजीब सी गंध आती है वो सौंधी वाली नहीं... कुछ और...। हां समय की बात तो न ही करें...वो कहाँ थमता है वो तो चक्र है घूमता रहता है। सपने यदि बुने जाएं तो उन्हें उस व्यस्तता की धूल से बचाना भी अनिवार्य है और उम्मीद की धूप भी जरूरी है...। देखिए ना सपनों का क्या... वे एक रात के मेहमान होते हैं... हां हम जिन्हें बुनते हैं वे ताउम्र हमारे मन के किसी कोने में वाट जोहते हैं...। बुने सपनों को हम ही उम्र बक्शते हैं और हम ही बेज़ार बना देते हैं, हां ये भीसच है उम्र की रफ्तार में बहुत धूल भी उड़ती है और कोहरा भी आता है... फिर भी बचाना चाहिए क्योंकि वे हमारे भावों का शिखर होते हैं...।



अरसा हो गया बारिश में नहाये हुए

उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर द...