पता नहीं... उस प्रहर के बाद चातक बचे ही न...।

चातक का प्रेम उदाहरण है कि पराकाष्ठा के शिखर पर जीत हासिल होती है...। स्वाति नक्षत्र की वो पहली बूंद क्या है दरअसल वो कठिन लक्ष्य है। चातक की प्यास और उसका इंतज़ार केवल एकाग्रता नहीं है वो एक स्वप्रेरित पथ है जिससे आप सफलता के उस शीर्ष तक पहुंच सकते हैं...। चातक का उस बूंद को पा लेने का भरोसा उसे अपने कठिन सफर में साहस देता है। चातक का वो बूंद को पा लेना प्रेम की एक सुफियाना रचना है। चातक को हममें से कितने लोग पढ़ना चाहते हैं, मैं जानता हूँ वर्तमान पीढ़ी के लिए वो आऊट आफ सिलेबस है क्योंकि पुरानी पीढ़ी का समयाभाव बहुत कुछ छीन रहा है उन्हीं में से चातक भी एक है...। यही हाल रहा तो मोटिवेशन का ये स्टार पक्षी विचारों से हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएगा...। बताईये ना बच्चों को कि चातक जैसा मन तटस्थ होना चाहिए लक्ष्य के प्रति...। सोचिए उस परमेश्वर को जिसने चातक को भी रचा, उसकी प्यास को भी। इंसान रचा और उसके लिए पक्षियों का संसार भी रचा...। ओह चातक को एक मौसम जीकर तो देखिये हम कितने उथले हैं, सिरे से ही वैचारिक तौर पर कितने घिस चुके हैं अहसास हो जाएगा...। एक गिलास पानी से आधा फैंकते समय हमें कभी याद नहीं आता कि एक बूंद के लिए एक पक्षी आराधना करता है, कठिन तप करता है...। हम सूख रहे हैं क्योंकि विचारों का सूखापन बढ़ रहा है क्योंकि हमें अपनी अगली पीढ़ी को केवल सूखा देना है... यही सच है क्योंकि ऐसा नहीं होता तो चातक आज हमारे मस्तक और ललाट पर मुस्कुरा रहा होता...। चातक को व्यवहार में उतारें उसका सच बच्चों को सुनाएं... क्या पता हमारी नादानी के इस प्रहर के बाद कोई चातक बचे ही ना...?

2 टिप्‍पणियां:

  1. वाह👌
    बहुत ही सार्थक चिंतन चातक पर. शायद पहली बार प्रतिबद्धता के पर्याय चातक के विलुप्त हो रहे अस्तित्व पर इतना अच्छा लेख पढ़ा मैंने और एकाग्रता के अमर प्रतिमानों को जीते चातक के लिए किसी को इतना चिंतित पाया. सचमुच अब प्रगति की चकाचौंध में खोये हम भावी पीढी को मोबाइल, लेपटॉप और ई लर्निंग का संस्कार परोस रहे हैं इस दुर्लभ पक्षी के जीवन के आदर्शों को भूलते हुए अनबूझ लालसा लिए ना जाने किस ओर भागे जा हैं. आज कोटर और कुटीर जैसी अमर साहित्यिक कथा बच्चों के सलेबस में या तो है नहीं या फिर उसका मर्म समझने वाले लोग नहीं रहे . हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏

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  2. जी सच कह रही हैं आप...। प्रकृति को समझने वाली प्रकृति लगभग समाप्त होती जा रही है लेकिन हम और आप जैसे कुछ हैं जो हार कहां मानते हैं....बहुत आभार रेणु जी।

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