जी हां हममें से बहुत होंगे जिन्हें घर की दीवारों पर पक्षियों के फोटोग्राफ पसंद आते हैं, रंगीन चिड़ियाओं की खामोश दुनिया...। वो फुदकती नहीं, आवाज़ नहीं करतीं, हजार बार सिर नहीं मटकाती...खामोश एक जगह बैठी रहती हैं बिना सवाल पूछे बिल्कुल वैसी दुनिया में जैसी हम चाहते हैं...। वो मूक संसार कितना खौफनाक है... ओह जैसे आकृतियां बनाकर उनकी तस्वीर निकाली और आकृति की गर्दन मरोड़ दी, गोयाकि हमें चाहिए ही नहीं ऐसा संसार जो सृजन का सबब बने...। दीवारों पर नदियों के फोटोग्राफ भी आपने देखे होंगे...एकदम नीली नदी... बस बहती ही तो नहीं है, बस उसके पानी में जीवन के सृजन की तासीर ही तो नहीं है, कलकल आवाज़ ही तो नहीं है... लेकिन जीवन भी तो नहीं है...। ऐसे ही सांझ, बारिश, वृक्ष, प्राकृतिक सौंदर्य... हमें दीवारों पर चाहिए... हकीकत में वो दीवारों पर हमारी प्रकृति से दूरी का एक वस्तुनिष्ठ हल है...। हमारे बच्चे ऐसे पक्षी, नदी, वृक्ष और प्रकृति देखकर बड़े हो रहे हैं इसीलिए बहुत गहरा सूखा है रिश्तों में, व्यवहार में, बोलचाल में...तो क्या मान लें एक दिन रिश्ते भी दीवारों पर तस्वीरों में शोभा बढ़ाएंगे...। ऐसा खौफनाक, नकली और एकांकी जीवन क्यों चाहिए हमें ?
सब यूं ही रहा तो सच मानिए एक दिन वो भी आएगा जब दीवारों पर हरी तस्वीरें होंगी और बाहर केवल सूखा होगा... रिश्ते तब तक दरक चुकी जमीन में दरारों में समा जाएंगे... बेहतर है प्रकृति की कक्षा में लौट आईये, चहकते पक्षियों की बोली के सुरों से अपने जीवन की तान मिलाने....।
बहुत प्रेरक लेख है संदीप जी | पक्षियों और प्रकृति से दूर कर हम भावी पीढ़ी को एक अगाध उदासी का उपहार मुफ्त में ही दे रहे हैं | भावी पीढ़ी कैसी होगी ये सोचकर आत्मा कांप जाती है |
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