ये पानी की कैद


पानी की कीमत हमें नहीं पता और लगता है हमें जाननी भी नहीं है, हम अब तक उस अमृत को प्लास्टिक की थैलियों में कैद कर रहे हैं, सभा स्थलों या पारिवारिक कार्यक्रमों में वो प्लास्टिक की थैलियों में कैद पानी अक्सर देखा जा सकता है। ...। ओह कितनी बर्बादी...पानी पीने के बाद वो पाउच फैंक दिए जाते हैं और कोई उन्हें साफ करके एक साथ जला देता है, पर्यावरण को कितना गहरा नुकसान है। मैंने सभाओं में इन पानी के पाउचों की बर्बादी का आलम कई बार देखा है, हर बार लगा कि आखिर कौन जगाएगा हमें, कैसे और कब तक जागेंगे हम...। समझ से परे है क्योंकि हमें अपने कर्मो का आंकलन नहीं करना है, सुख देखना है, राहत देखनी है...लेकिन जो आफत हमारी ओर तेजी से अग्रसर है उसे लेकर हम आंखें मूंद लेना ही पसंद करते हैं...। ये जो फोटोग्राफ है ये भी राजनैतिक सभा के दौरान का ही है...हालांकि दुख तब होता है जब नीति बनाने वाले ही अनदेखी करते नजर आएं...। राजनीति कैसी है, क्यों है वो अब तक क्यों सुधार नहीं पाई यहां ये बहस का विषय नहीं है, यहां चिंतन का विषय है कि आखिर आम लोग इस तरह की लापरवाही के विरोध में स्वेच्छा से कब उठेंगे, कब जागेंगे....। आखिर ये पानी की कैद क्यों है और क्या इस तरह पानी को कैद कर हम आजाद रह पाएंगे, सुखी रह पाएंगे....नहीं हमारे कंठ और हमारा भविष्य हमेशा के लिए सूख जाएगा। जागिये कि पानी हमारे बच्चों को भी चाहिए। करवाईये उसे इस तरह की कैद से आजाद। 


मन गाता है...गंगा तेरा पानी अमृत...


 बचपन से गंगा को लेकर एक गीत सुनते हुए बडे़ हुए हैं...गंगा तेरा पानी अमृत...झर-झर बहता जाए...युग-युग से इस देश की धरती तुझसे जीवन पाए। ये गीत गंगा के गौरव और हमारे गंगा के प्रति नेह को दर्शाता है, हमारा मन ये गीत अब भी गंगा किनारे पहुंचकर अवश्य गुनगुनाता है.। सवाल उठता है कि जब हमें गंगा से इतना नेह है, हमारा इतना समर्पण है... तब वर्तमान हालात ये सवाल चीख-चीखकर क्यों उठा रहे हैं कि आखिर हमारे नेह का ये आवरण क्यों दरक रहा है....? 


गंगा का किनारा है ही ऐसा....बैठते ही आप आध्यात्म में खो जाते हैं...मन काफी देर पहले आपको एकाग्र करता है उसके बाद वो उस सुरम्य प्रकृति के नेह में खोने लगता है...सोचता रहा, गंगा के बिना कैसा होगा भविष्य...कितना मुश्किल होगा वो समय.. जब भी गहन होकर सोचता हूं मन हारने लगता है, लेकिन विचार दोबारा मन को अपने लक्ष्य पर ले आते हैं...। गंगा कहीं नहीं जाएगी, हम सभी मिलकर उसे कहीं नहीं जाने देंगे, वो धरती पर है और सदियों रहेगी...बेशक ये मेरा भरोसा है, लेकिन मौजूदा हालात कुछ कहते हैं जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। नदी इस सृष्टि के लिए धरा पर उतारी गई है और उसे धरा पर रहना चाहिए..। 

गहरे चुभते सच...

- जब गंगा से इतना नेह है अब उसके जल के प्रदूषित होने की पीड़़ा हमें अंदर तक नहीं हिला रही है क्यों ? 

- हमारे मन में ये कसक उठनी चाहिए कि हम जिसे मां कहते हैं उसकी परवाह के प्रति ईमानदार नहीं हैं...उसे प्रदूषित होता देखकर भी खामोश हैं क्यों ?

- देखकर कितना अजीब लगता है कि जिस गंगा में हम स्नान करके पवित्र होते हैं, पुण्य कमाते हैं और उसी में सामने से बहती हुई पॉलीथिन को उठाकर बाहर निकालने के लिए हमारे हाथ स्वेच्छा से आगे नहीं बढते...क्यों ? 

- नहाने के बाद हम उसी जल से अपने पहने हुए वस्त्र भी धोने लगते हैं...हमारा मन धिक्कारता नहीं...क्यों ? 

- घाटों पर गंदगी देखकर हम अक्सर आगे बढ़ जाते हैं...कभी अपना प्रयास नहीं करते क्यों ? 

1. हमें मां गंगा चाहिए, 

2. गंगा का नेह चाहिए, 

3. गंगा का जल चाहिए, 

4. हमें गंगा से मोक्ष भी चाहिए,.?

 

- हमने कभी सोचा है कि उस चैतन्य मां गंगा को हमसे क्या चाहिए...? गंगा को हमसे एक वादा चाहिए....कि अबकी जब भी गंगा के दर्शनों के लिए आएं तो कम से कम एक घंटा सफाई और सेवा कार्य के लिए अपनी स्वेच्छा से अवश्य देंगे। हमें ये सोच बदलनी होगी कि गंगा और अन्य नदियों की सफाई केवल सरकार की जिम्मेदारी है...। हम सरकार का सफाई कार्य में साथ दे सकते हैं, देना चाहिए...।  

- ये गंगा केवल नदी नहीं हमारे आध्यात्म का चरम है, वो हमारी अनुभूति का शीर्ष है...। ये गंगा का जल जब हमारे घर और दालान को शुद्ध कर सकता है तो हमारे विचारों को ये प्रभावित न करता हो...मानना मुश्किल है। बहती हुई नदी ही हमारी विरासत को संरक्षित रख सकती है...। 



जंगल मानवीय हो गया है और हमारी बस्ती क्रूर


हम कितने सहज हैं ना कि सबकुछ भूल जाते हैं, हमारी इस दुनिया पर चाहे कितनी भी आपदाएं आएं, कितने भी गहरे दर्द का सैलाब आए हम सब भूल जाते हैं, लेकिन क्या ये भूल जाना और भूल जाने के बाद सच खत्म हो जाता है। सच तो हमारी स्मृति और इतिहास में दर्ज हो गया, साथ ही दर्ज हो गया हमारा उन घटनाओं और आपदाओं पर अमानवीय होकर उन्हें भुला देना। बहुत सी घटनाएं हैं जिन्हें यादकर आज भी हमारे अंदर सिरहन का संचार हो उठता है लेकिन कुछेक ऐसी भी होती हैं जो हमारी स्मृति में कहीं उलझकर रह जाती हैं। यहां भी मैं उन्हीं में से एक आगजनी का जिक्र कर रहा हू। अमेजन के जंगलों में महीनों लगी आग ने कोरोना से पहले सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा था क्यांकि जब हमने जले हुए, झुलसे हुए, हमारी दुनिया के सबसे नायाब बुत देखे थे, ओह...आज तक वह सब मेरी स्मृति के तारों में कहीं उलझा सा है, बार-बार उन मासूम वन्य जीवों की बेबसी और उनका जीते जी हमेशा के लिए बुत हो जाना मुझे सताता है कि आखिर हम अपनी इस दुनिया को ऐसा क्यों बनाना चाहते हैं, क्यों हम इसे ऐसा चेहरा दे रहे हैं जो इसका कतई नहीं है। सोचिएगा कि जंगल में भागते हुए आगे की लपटों ने किसी तार में फंसे किसी वन्य जीव को जब अपनी चपेट में लिया होगा तब दर्द की पराकाष्ठा और उसी रुदन का शीर्ष कहां होगा। हम तो नहीं सुन पाए उनकी वो चीख, उनका वो दर्द लेकिन हम उसे याद  रख लेते और दोबारा जंगल तक आग नहीं पहुंचने देते ये भी तो हमारा प्रायश्चित था लेकिन ऐसा कहां हो पाया...। जंगल हमसे अधिक मानवीय है, जंगल हमसे अधिक निर्मल और श्वेत है, सोचियेगा कि हमारी आबादी वाला हिस्सा अमानवीय कैसे हो गया, हमें अपने लिए, अपने सुखों के लिए पैर पैसारने हैं और हम जंगलों को मिटाने चल दिए। ये कैसी आग है हमारे अंदर जो जंगल को जला रही है, वन्य जीवों को बुत बना रही है, उनके खुशहाल जीवन को कोयला बना रही है, ये आग यकीन मानिये कि ये आग जब हवा का रुख पाकर हमारी ओर होगी तब बुत बनने की बारी हमारी होगी...। वह जंगल की आग और बुत बने वन्य जीवों का चेहरा, उनकी बेबसी, उनकी चीख, उनका रुदन सबकुछ मेरे कानों तक पहुंच पाया उस समय भी जब मैंने उसे लेकर पहली बार लिखा और आज भी पहुंच रहा है क्योंकि आज भी मैं उन्हें कराहता पा रहा हूं अपनी विकसित दुनिया में...। हम एक ऐसी नेक दुनिया से थे जहां जंगल क्रूर माना जाता था क्योंकि वहां के कायदे बहुत स्पष्ट थे लेकिन अब वह समय आ गया है जब जंगल मानवीय हो गया है और हमारी बस्ती क्रूरतम चेहरे के तौर पर पहचानी जा रही हैं। सोचियेगा कि बदलना चाहिए या नहीं....?

यहां मैं एक बार फिर जिक्र करना चाहूंगा आस्ट्रेलिया के एक परिवार का। स्टीव इर्विन एक वन्य जीव संरक्षण कर्ता थे उनके परिवार ने ये उस दौर में जब दुनिया अपने विकास की ओर अग्रसर होकर हर्षित थी और अमेजन के जंगल दहक रहे थे तब उनके परिवार ने वन्य जीवों को उस आग से बचाने का कार्य किया था। उनकी बेटी बिंडी जो एक अस्पताल चलाती हैं उन्होंने खुद जानवरों के कुछ फोटोग्राफ शेयर करते हुए दुनिया का ध्यान इस आग और वन्य जीवों की हालत पर दिलवाया था। क्या परिवार है वह और क्या है हमारा विश्व परिवार...। तब खबरों से ये भी जानकारी मिली थी कि विंडी, उनके परिवार और उनकी टीम ने 90हजार वन्य जीवों की जान बचाई थी...। सोचियेगा कि विंडी कहां से आई है और हम कहां रह रहे हैं...?

फोटोग्राफ गूगल से साभार।

हर रंग में सयानापन है


कैसा अद्भुत संयोग है, हमारी होली पास आती है और प्रकृति भी अपने चटख रंगों के साथ तैयार हो जाती है। कितनी खूबसूरत है रंगों की ये सुरमई सी मुसकान, देखो हर फूल तैयार है पत्ती को अपने रंग में भिगोने के लिए। प्रकृति के हर रंग में गजब के अहसासों वाला सयानापन है, माधुर्य है, लोच है, उत्सव है, कशिश है---। हम बस देखते हैं और उनके आमंत्रण में खिंचे चले जाते हैं ---। अबकी होली देखना होले से ये फूल शरारत करेंगे और मनचली पत्तियों को रंग मलकर छेड़ जाएंगे ---। एक ऐसी छुअन जो कभी उसके अंतस् से मुक्त नहीं होगी।

भूगोल तो चाहिए लेकिन वो अर्थ की धरती पर नहीं


 दुनिया किस तरह से चल रही है, इसका भूगोल क्या है, क्या उसका कोई धरातल है या अर्थ की पीठ पर बैठकर अब भुगोल का चक्र घुमाया जा रहा है, बहुत ही पेंचीदा सवाल है लेकिन हकीकत ये है कि इस दुनिया का भुगोल और अर्थशास्त्र दोनों ही अपनी जगह पर नहीं हैं। विषय कुछ अटपटा है दोस्तों लेकिन सोचता हूं कि दुनिया के अपने कायदे हैं, अपनी शर्तें, अपने मापदंड और अपनी जिद। अव्वल तो कोई किसी को सहन क्यों करे और दूसरा सवाल ये है कि कोई किसी को भी सहन कर सकता है लेकिन उसमें भी कोई ठोस कारण हों तो। खैर, कबीर कह गए हैं कि

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर.

आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर .

अर्थ : कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरतीं।

मैं दुनिया को कई दफा समझने का पूरा प्रयास करता हूं लेकिन पाता हूं कि वह वैसी नहीं है जैसे मैं उसे समझता हूं, वह वैसी है जैसी हमने उसे बना दिया है। हम साहूकार से हो गए हैं और साहूकार सा ही आचरण करने लगे हैं। हमें ज्ञान और बातों में अब कोई नहीं पराजित नहीं कर सकता लेकिन हकीकत ये है कि हम कभी जीत नहीं पा रहे हैं ये हम जानते हैं, हालांकि दुनिया जो देखती है वो हमारा आवरण है, हमारे अंतस को दुनिया महसूस नहीं कर सकती। हमें लगता है कि एक ऐसा समाज हम बना चुके हैं जहां उसकी कतई आवश्यकता नहीं है जो एकांकी है और अपने तक सीमित रहना चाहता है, सच बोलना और सुनना चाहता है, सच के साथ जीना चाहता है। हां, उनकी है जो सच को अपने अनुसार परिभाषित कर दें, सच को उस चेहरे में ढाल दें जैसा वह चाहें और ऐसे कुशल लोगों की संख्या बहुत है, अब आपको कोई एकांकी व्यक्ति मिलें तो पूछना भाई जीवन का अनुभव क्या कहता है, पूछियेगा उनसे कि आखिर वह सोचते क्या हैं। मेरा मानना है वे कुछ नहीं कह पाएंगे या तो वह मन में अपने गुबार को और वजन दे देंगे या फिर केवल मुस्कुराकर आपकी पीठ थपथपाकर चल देंगे। सच दुनिया को अपनी तरह से और अपने तौर तरीकों से जीना ही अच्छा लगता है, उसे ये पसंद नहीं है कि कोई उसकी उस पसंद पर अपनी पसंद की मिलावट करे। जीवन की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने तरीके से करता है लेकिन ये भी सच है यह युग तो माया अर्थात धन का है, यहां रिश्ते, मान और सम्मान में माया की गंध को महसूस किया जाता है, यदि माया की गंध नहीं है तब आप इस सिस्टम में कतार के आखिरी व्यक्ति हो जो धुंधली आंखों से अपनी बारी का इंतजार करते हुए चिलचिलाती धूप में हलकान है और विवश है कांपते पैरों पर कतार में बने रहने को। जीवन के इस वस्त्र को दरअसल हमने खुद बुना है और उसकी बुनाई और फंदों के बीच का अंतर हमें पता है इसलिए सच और सच के बीच का वह खालीपन हम जानते हैं जो कभी मजबूरी में रह जाता है और कभी जानबूझकर वो रिक्त स्थान हम रहने देते हैं। दुनिया का ये भूगोल यदि हमें एक दिन का अवसर दे कि हम इससे बात कर सकें तब यकीकन अधिकांश सवाल यही होंगे कि हमें भूगोल तो चाहिए लेकिन वो अर्थ की धरती पर नहीं, उसकी अपनी धरती, अपना आकाश बेहतर है। 

वो सफर (लघुकथा)


 

सफर आरंभ हुआ, विवाह के बाद पहली बार पति के साथ मायके लौटती सुधा। पूरे सफर पति के हाथ को अपनी मुट्ठी की गर्माहट देती सुधा जब भी अवसर मिलता पति के चेहरे को निहार लिया करती। पूरे रास्ते दोनों कुछ नहीं बोले केवल एक-दूसरे को देखते और मुस्कुरा देते। 

सफर में रात हुई और तब खामोशी और गहरी हो गई। दोनों बार-बार न जाने कितनी बार एक दूसरे को निहारते और ठंडी सांस लेकर अहसासों को गहरे मन में उतार रहे थे। आंखें बोलती रहीं और आंखें ही जवाब देती रहीं। चौबीस घंटों के सफर का आखिर पढ़ाव आ पहुंचा, सुबह हो चुकी थी। दोनों की आंखों में नींद थी।

आखिरकार आखिर पढ़ाव की खत्म होने को आया, लेकिन शब्द अब भी नहीं थे। दोनों घर के दहलीज पर थे, सामने सुधा के माता और पिता थे दोनों उन्हें देखते हुए चरणों में झुक गए लेकिन तब भी केवल आंखें ही बात कर रही थीं, सुधा ने आंखों से इशारा किया कि अब ये आंखों की भाषा और बोली को विराम देते हैं और शब्दों पर लौटना होगा। सुधा की मां ने पूछा कोई तकलीफ तो नहीं हुई सफर में...। सुधा बोली सफर...हां सफर...अभी खत्म ही कहां हुआ, खत्म क्यों हो, अभी तो आरंभ हुआ है...वो बुदबुदा रही थी कि मां दोबारा बोली क्या मन में ही बात कर रही है, सुधा बोली हां सफर बहुत अच्छा था एकदम शांत और गहरा सा। मां हंसती हुई रसोई में चली गई अब शब्दों की बारी थी। पति ने कहा सुधा ये बोलना जरुरी है क्यों न ये खामोशी यूं ही बनी रहे और आंखें ही बात करती रहें...। सुधा हंसते हुए बोली मां और पिता उस बोली को नहीं समझ पाएंगे उनसे बात करनी ही होगी, रही बात हमारी तो हम इन्हीं आंखों से ही काम चला लेंगे....। दोनों मुस्कुराने लगे और आंखें कहने लगीं, सफर अभी कहां खत्म हुआ है...। 

पानी प्रयासों से मिलेगा, बातों से नहीं


 

पानी केवल प्रयासों से मिलेगा, बातों से नहीं। पानी किसी चुनाव का अजेंडा नहीं हो सकता क्योंकि पानी सरकार या जनप्रतिनिधि नहीं बनाते, उसके लिए जमीनी और जनसामान्य के प्रयास महत्वपूर्ण हैं। जमीन में पानी की फसल लगाओगे तो ही वो हमारे चेहरों पर लहलहाती नज़र आएगी। एक दिन का शोर हमें केवल याद दिलाता है कि हमें क्या करना है लेकिन जरूरी ये है कि हम हर पल याद रखें कि पानी केवल हमारी मेहनत मांगता है, हवाई बातें नहीं...। सच केवल इतना है कि हमें पानी को जीवन में कर्म का हिस्सा बनाना होगा...। हम अब तक केवल पानी को उथले तौर पर जी रहे हैं, वो नहीं मिलेगा, पानी पर पानीदार होना होगा, वरना पीढियां सूख जाएंगी और बेबस से कसूरवार से खड़े होंगे..।

कैकेयी थीं तो राम राज्य संभव हो पाया




 

मैंने जब से रामराज्य को पढ़ना आरंभ किया है एक बात स्पष्ट हो गई कि रामराज्य को लिखने और पढ़ने से कठिन उसकी समीक्षा है, इसे समीक्षा कतई नहीं कहूंगा। मैंने महसूस किया है रामराज्य पढ़़ते समय आप रामराज्य जी रहे होते हैं और यदि इसे हम एक पुस्तक मानते हैं तो यह मान लीजिए कि यह शब्द, साहित्य, मनन, चिंतन, नेह के नए शीर्ष बुनती है। एक और बात आरंभ में ही कहना चाहता हूं कि इस पुस्तक के लेखक आशुतोष राणा जी एक अभिनेता हैं, लेकिन यह उनके लेखन का जादूई अंश है कि आप इसे पढ़ते हुए इतने गहरे खो जाते हैं कि उनकी छवि और उनका अपना निजी आकर्षण आपके मनायोग पर हावी नहीं होता क्योंकि आप रामराज्य जी रहे होते हैं, मेरा अनुभव है कि रामराज्य को पढ़ते समय आप उस राज्य के निवासी बन जाते हैं, जैसे सबकुछ आप देख पा रहे हैं, सुन पा रहे हैं, जी पा रहे हैं और जिसे आप कभी स्पर्श कर सकते हैं। अनुभूति अपार होती है वह उस शीशे की भांति ही है जिसके दोनों ओर देखा जा सकता है लेकिन जो देखने की नजर रखता है, जो अनुभूति में जीता है उसे उस शीशे में वही नजर आता है जो वह देखना चाहता है। हम आशुतोष राणा जी की रामराज्य जब भी पढ़़ रहे होते हैं तब एक बात आपको बार-बार महसूस होगी जैसे वे सूत्रधार हैं जो रामराज्य दिखा रहे हैं, उस युग की जिम्मेदारी इस युग में निभा रहे हैं।

अब महसूस होने लगा है कि बहुत कुछ विचारों में आया ही नहीं, छूट सा गया था। रामराज्य में जो पात्र हैं वह समझे ही नहीं जा सके, उन्हें महसूसा ही नहीं जा सका। रामराज्य का आरंभ एक स्वीकारोक्ति है कि आप राम के करीब रहना पसंद करते हैं, उनके विचारों को आप धैर्य से सुनना चाहते हैं क्योंकि राम जब अपने राज्य में वार्तालाप करते हैं तब आप उन्हें एक राजा के तौर पर समझने से पहले उन्हें उन हिस्सों में देखना और जीना पसंद करते हैं जिनमें वह एक सहज और हम जैसे मानव जीवन के विषयों को छू रहे होते हैं। मेरी समझ से राम का राजा हो जाना और राज्य का संचालन करना आखिरी खंड इसलिए रहा होगा क्योंकि वहां तक मर्यादाओं का ज्ञान और अर्थ की समझ का अंकुरण अपनी शीर्षावस्था में पहुंच जाता है। रामराज्य में राम आपको अपने बहुत करीब महसूस होते हैं, वह आपकी बात, आपके विषय पर बात नजर आते हैं। 

वैसे तो पूरी रामराज्य आपको गहन चिंतन तक पहुंचाती है, मैं बहुत संक्षिप्त में अपने मन की कहूंगा। हम माता कैकेयी पर आते हैं, आशुतोष राणा जी की रामराज्य को जीते समय हमारी उन्हें लेकर धारणा की जटिल बर्फ भी पिघलने लगती है, आप समझ सकते हैं आप स्वीकार करते हैं कि कैकेयी उस राज्य और राम के लिए क्या थीं और उस युग में कैकेयी का होना जब राम मर्यादा लिखने आए थे, अंकुरित करने आए थे उस युग में कैकेयी को कुछ और लिखना था, कुछ ऐसा जिसे केवल उनके कोई और संभव नहीं कर पाता, राम और कैकयी का वार्तालाप एक माता और पुत्र के वार्तालाप से बढ़कर एक गुरु और शिष्य का वार्तालाप अधिक महसूस होता है क्योंकि मां पहली गुरु है और कैकेयी सर्वथा वही महिला हैं। यहां आप रामराज्य में कैकेयी और राम के संवाद में बहुत ऐसा खरा वार्तालाप पाएंगे जिनमें आप स्वीकृति की मुहर लगाते जाएंगे क्योंकि राम का वो राज्य मर्यादाओं को अंकुरण कर पाने के लिए पहचाना गया तो उसके पीछे राम से पहले कैकेयी को रखा जाएगा। उस पूरे वार्तालाप को पढ़ने से अधिक महसूस करने के सुख की मैं व्याख्या नहीं सकता क्योंकि मैं पहले ही कह चुका हूं कि रामराज्य की समीक्षा बेहद कठिन है। कैकेयी मां थीं, मजबूत थीं और एक राज्य की रानी भी सर्वथा वही थीं जो उस दौर के सबसे कठिन अध्याय को जीकर दोबारा राज्य को गढ़ सकती थीं और उन्होंने वैसा किया भी। मैं एक ओर बात कहना चाहता हूं कि कई बार विचार जिद कर रहे हैं कि मैं उस रामराज्य के वार्तालाप को यहां लिख दूं लेकिन मैं आपको उस सुख से वंचित नहीं करना चाहता जो आपको उस समय को जीते हुए, उस पुस्तक को पढ़ते हुए मिलने वाला है, केवल इतना कहना चाहता हूं कि कैकेयी थीं तो राम राज्य संभव हो पाया, वरना केवल राज्य होता वो राम के बिना और उनकी मर्यादाओं के बिना सूखा और बंजर सा। 

यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि मेरा यकीन है कि रामराज्य को पढ़ने और जीने के बाद आप भी आशुतोष राणा से जिद करेंगे और अपनी बात कहना चाहेंगे कि वे लेखक और चिंतक तौर पर अधिक गहरे हैं और हमें पहले वे इसी तौर पर स्वीकार्य हैं।  

हमने महसूस किया कि रामराज्य में सुपर्णा भी थी और शूपर्णखा भी...दोनों के अंतर को भलीभांति महसूस भी किया और गहरे चिंतन को जीया कि शूपर्णखा के सुपर्णा हो जाने का वक्त और अवसर कैसा रहा होगा...? लिखने को इतना है कि एक और मोटी सी किताब तैयार हो जाएगी...। मन ठहरने से मना कर रहा है लेकिन मैं जो महसूस कर चुका हूं उसे मैं अपने मित्रों और परिचितों तक पहुंचा रहा हूं, अपने जैसे विचारों को जीने वालों से अनुनय कर रहा हूं कि रामराज्य पढ़ि़येगा लेकिन उसे केवल शाब्दिक नहीं बल्कि उसे अनुभूति में संग्रह कीजिएगा। अनुभूति का सागर बहुत गहरा और गहन होता है, उसके भीतर केवल अनुभूति ही अनुभूति है, ऐसा ज्ञान, ऐसा मौन, ऐसी गहराई जिसे आप छूना चाहेंगे और अग्रसर होते जाएंगे, चलते जाएंगे। बहुत है लिखने को, हनुमान, लंका, पंचवटी ओह...सभी में हम उस राज्य के हो जाते हैं, उस राज्य और अपने आराध्य श्रीराम का साथ पाते हैं, उनका स्नेह उनका दुलार महसूस कर सकते हैं। हर अध्याय जब लिखा गया तब मुझे लगता है उसे असंख्य बार जीया गया और उसे जीकर लिखा गया, मुझे लगता है कि इससे बाहर निकलने में लेखक को भी बहुत कठिनाई हुई होगी क्योंकि रामराज्य यदि आपके हिस्से आएगा तब आप भी उससे सहज होकर दूर होना नहीं चाहेंगे, यह एक ऐसी यात्रा है जिस पर आप एक बार चल पढें़गे तब उसी में ठहर जाएंगे, क्योंकि रामराज्य यहां कल्पना में नहीं हकीकत में हमारी अनुभूति में आकार ले चुका होता है। मैंने सालों बाद कुछ ऐसा जीया है जिसे मैं अपने जीवन के सबसे खूबसूरत पलों में से एक मानता हूं, मैं उसे कभी भी जीवन से दूर नहीं करना चाहूंगा, क्योंकि रामराज्य मेरे गहरे जा बसा है और मैं उसका नागरिक होना चाहूंगा क्योंकि मैं उसे उतनी ही गहराई से जी पाया हूं। 

लेखनी को विराम देने से पहले मैं लेखक और हमारे सभी के बेहद करीब रहने वाले आशुतोष राणा जी को बधाई देना चाहता हूं, मैं उनसे करबद्व निवेदन करना चाहता हूं कि रामराज्य के अभी और अंक लिखे जाएं...ईश्वर आपको गहराई और नेह प्रदान करे...। 

बहुत सी शुभकामनाएं शाब्दिक नहीं हो सकतीं, आप महसूस कीजिएगा कि मैं आपसे वह कह नहीं पा रहा हूं जो इस पुस्तक के बाद आपसे कहना चाहता हूं...आप साहित्य की धरोहर हैं और रामराज्य इस कलयुग में महसूस हुआ, उसकी अनुभूति भी हमें धन्य कर देती है...। 

प्रयास करूंगा रामराज्य पर बहुत सा जो मन में कहीं ठहर गया है यदि उसे शाब्दिक आकार दे पाया तो आप तक अवष्य पहुंचाने का प्रयास करूंगा। 


आभार

#AshutoshRana

#आशुतोषराणा 

वे पंछी तुम्हारे और मेरे बीच सेतू बने थे


 

तुम्हें याद है वो पहली सुबह साथ-साथ। घर की बालकनी पर रेलिंग पर तुम कितनी देर तक उस आकाश में पंछियों को देखती रहीं थीं। तुम्हारा उन्हें देखकर बार-बार मुस्कुराना मेरे अंदर कुछ कुरेद रहा था। कुरेद रहा था कि तुम अकेला महसूस कर रही थीं मेरे साथ होने पर भी। मैं उन पंछियों को देखता और तुम्हें भी। मैं मन में तुम्हारे उस रीतेपन को उस दौर में जी रहा था, समझने का प्रयास कर रहा था तुम्हें और तुम्हारी खामोशी को। तुम उस दौरान पहली बार साथ आई थीं, मन में बहुत सारे सवाल लिए। मैं भी पंछियों से बतिया रहा था कि दे दो ना...तुम मेरी ओर से जवाब। तुम तो जानते हो मुझे, तुमने तो देखा है इसी बालकनी पर अकेले घंटों इंतजार में जागते हुए। मैं पंछियों से कह रहा था कि बता दो ना उसे कि तुम यूं अकेली कहां हो, साथ हो और हमेशा रहोगी। वो दिन आज भी याद है वे पंछी तुम्हारे और मेरे बीच सेतू बने थे, मुस्कुराते हुए। आज भी तुम बालकनी पर साथ होती हो, पूरी तरह साथ। वो तुम्हारा पहली बार साथ आना अब तक साथ है, याद है। खोजता हूं तो पाता हूं कि उस दिन उन पंछियां ने मेरा भरोसा तुम तक पहुंचाया है, वे मुझे और तुम्हें जानते हैं, ये जीवन यूं ही बुना जा सकता है, अपनी खुशियां के धागों से।

सांझ बहुत अधिक शरमाती है


 हमने कभी कल्पना का सुखद संसार करीब से देखा है या जानने की कोशिश की है... या कभी कल्पना को आकाश पर किसी परिंदे के पंख पर बैठाकर भेजना चाहा है...। नहीं, तो शुरु करें...ये कल्पना लोक बहुत खूबसूरत होता है...। चंद्रमा को तकिया बनाने के लिए उसे सीढ़ी चढकर उतार लें, तकिया बना लें बहुत गुदगुदा है वो....। तारे भी मिलेंगे कोई अधिक चमकदार होगा उस पर चढ़कर अपने थैले में उसकी चमक दोनों हाथों से बटोर लाएंगे और आपस में बांट लेंगे...। सांझ बहुत अधिक शरमाती है, उसका घूंघट उस समय धीरे से हटा देंगे जब सूरज उसके आसपास मंडरा रहा होगा...। सूरज जब लाल होगा उसे कहेंगे थोड़़ी देर हमारे सफेद कपडों से लिपट जाए वो भी रंगीन हो जाएंगे...। तितली के पास तब पहुंच जाएंगे जब वो फूलों से दिल की बात कर रही होगी....। अब बताओ मजा आया या नहीं...। भाई ये उदास की बेरंग और रोज थका देने वाली दुनिया में मैं तो यूं ही ताजा हो जाता हूं, बच्चों को खूब हंसाता हूं और प्रकृति की गोद में जाकर सुस्ताता हूं....।

जिंदगी का फलसफा


 ये सख्त सी जिंदगी है दोस्तों, ये कई बार भुरभुरी सी होकर हाथों से फिसलने लगती है, ऐसा भी लगता है कि हम अपने आप से कोसों दूर निकल गए हैं, कहीं दूर एक स्याह रेगिस्तान की ओर...। जिंदगी का फलसफा भी अजीब है ये हमें अपने आप ही थकाती है और अपने आप ही तरोताजा भी कर जाती है...। समझने और देखने की दृष्टि हमें भीड़ में एकांत और एकांत में भीड़ का अहसास करवाती है...। प्रकृति और उसके अनपढे़ पाठ, उसका कभी न देखा हुआ चेहरा और उसके चेहरे पर हरपल बदलते भाव और उसके भावावेश के पीछे की शीतलता और गहराई...हमारी जिंदगी का सबसे अहम सबक है...जो हमें शीर्ष पर ले जाता है। मैं यहां बहुत सीधी सी बात कहना चाहता हूं कि प्रकृति हमारी हर थकन, हर रेगिस्तानी विचारधारा पर जीत दर्ज करवाना जानती है, वह हमें सिखाती है, हर पल सबक देती है...वो केवल इतना चाहती है कि उसकी इस कक्षा में हम पूरे मन से एक बार पहुंचें तो सही...। उसे समझें तो सही...। देखें तो सही...। वाह, वे जन्तु, वे प्राणी जो केवल इसके ही प्राश्रय में हैं, रहते हैं कितने खुश है, कितने मौन और अपने में अपने साथ जीने वाले...।


अरसा हो गया बारिश में नहाये हुए

उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर द...