भूगोल तो चाहिए लेकिन वो अर्थ की धरती पर नहीं


 दुनिया किस तरह से चल रही है, इसका भूगोल क्या है, क्या उसका कोई धरातल है या अर्थ की पीठ पर बैठकर अब भुगोल का चक्र घुमाया जा रहा है, बहुत ही पेंचीदा सवाल है लेकिन हकीकत ये है कि इस दुनिया का भुगोल और अर्थशास्त्र दोनों ही अपनी जगह पर नहीं हैं। विषय कुछ अटपटा है दोस्तों लेकिन सोचता हूं कि दुनिया के अपने कायदे हैं, अपनी शर्तें, अपने मापदंड और अपनी जिद। अव्वल तो कोई किसी को सहन क्यों करे और दूसरा सवाल ये है कि कोई किसी को भी सहन कर सकता है लेकिन उसमें भी कोई ठोस कारण हों तो। खैर, कबीर कह गए हैं कि

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर.

आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर .

अर्थ : कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरतीं।

मैं दुनिया को कई दफा समझने का पूरा प्रयास करता हूं लेकिन पाता हूं कि वह वैसी नहीं है जैसे मैं उसे समझता हूं, वह वैसी है जैसी हमने उसे बना दिया है। हम साहूकार से हो गए हैं और साहूकार सा ही आचरण करने लगे हैं। हमें ज्ञान और बातों में अब कोई नहीं पराजित नहीं कर सकता लेकिन हकीकत ये है कि हम कभी जीत नहीं पा रहे हैं ये हम जानते हैं, हालांकि दुनिया जो देखती है वो हमारा आवरण है, हमारे अंतस को दुनिया महसूस नहीं कर सकती। हमें लगता है कि एक ऐसा समाज हम बना चुके हैं जहां उसकी कतई आवश्यकता नहीं है जो एकांकी है और अपने तक सीमित रहना चाहता है, सच बोलना और सुनना चाहता है, सच के साथ जीना चाहता है। हां, उनकी है जो सच को अपने अनुसार परिभाषित कर दें, सच को उस चेहरे में ढाल दें जैसा वह चाहें और ऐसे कुशल लोगों की संख्या बहुत है, अब आपको कोई एकांकी व्यक्ति मिलें तो पूछना भाई जीवन का अनुभव क्या कहता है, पूछियेगा उनसे कि आखिर वह सोचते क्या हैं। मेरा मानना है वे कुछ नहीं कह पाएंगे या तो वह मन में अपने गुबार को और वजन दे देंगे या फिर केवल मुस्कुराकर आपकी पीठ थपथपाकर चल देंगे। सच दुनिया को अपनी तरह से और अपने तौर तरीकों से जीना ही अच्छा लगता है, उसे ये पसंद नहीं है कि कोई उसकी उस पसंद पर अपनी पसंद की मिलावट करे। जीवन की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने तरीके से करता है लेकिन ये भी सच है यह युग तो माया अर्थात धन का है, यहां रिश्ते, मान और सम्मान में माया की गंध को महसूस किया जाता है, यदि माया की गंध नहीं है तब आप इस सिस्टम में कतार के आखिरी व्यक्ति हो जो धुंधली आंखों से अपनी बारी का इंतजार करते हुए चिलचिलाती धूप में हलकान है और विवश है कांपते पैरों पर कतार में बने रहने को। जीवन के इस वस्त्र को दरअसल हमने खुद बुना है और उसकी बुनाई और फंदों के बीच का अंतर हमें पता है इसलिए सच और सच के बीच का वह खालीपन हम जानते हैं जो कभी मजबूरी में रह जाता है और कभी जानबूझकर वो रिक्त स्थान हम रहने देते हैं। दुनिया का ये भूगोल यदि हमें एक दिन का अवसर दे कि हम इससे बात कर सकें तब यकीकन अधिकांश सवाल यही होंगे कि हमें भूगोल तो चाहिए लेकिन वो अर्थ की धरती पर नहीं, उसकी अपनी धरती, अपना आकाश बेहतर है। 

12 टिप्‍पणियां:

  1. "सच और सच के बीच का वह खालीपन हम जानते हैं जो कभी मजबूरी में रह जाता है और कभी जानबूझकर वो रिक्त स्थान हम रहने देते हैं।"
    सत्य वचन,ये अर्थ हो या भूगोल बस अपने-अपने नजरिए की बात है,सार्थक सृजन,सादर

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  2. माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर.

    आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ...बहुत सुंदर भाव और आपकी खोज भी उम्दा है ,सार्थक सृजन के लिए आपको नमन ।

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    1. आभार आपका जिज्ञासा जी। आपको मेरा लेखन पसंद आ रहा है। जिज्ञासा जी मेरा अपना मत है कि हमें बहुत गहरे हो जाना चाहिए इस दौर में...। ये दौर लिखने वालों की जिम्मेदारी का भी है क्योंकि मुझे लगता है कि जब प्रकृति संकट में हो तब प्रेम गीत लिखे और सुने जाने पर भी इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।

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  3. संदीप जी, सोचती हुँ धरती उस समय कितनी खूबसूरत lgtee होगी जब उसके पास अपना सब वैभव मौजूद था। अर्थ तंत्र ने उसका वजूद खोखला करके उसे भीतर बाहर दोनों से खाली कर दिया। कैसे लौटेगा वो वैभव?
    आप का भावनाओं से भरा लेखन सराहनीय और सार्थक है। हार्दिक शुभकामनाएं।

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    1. आभार आपका रेणु जी। समय हमें केवल अवसर देता है, हमें कैसा होना है ये हम स्वयं तय करते हैं इसीलिए ये धरती और ये दुनिया वैसी ही है जैसी हम इसे बनाना चाहते थे। बहुत गहरे होकर सोचने और निर्णय लेने का समय है। आभारी हूं आपका जो आपको मेरा लेखन पसंद आता है।

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ अप्रैल २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  5. अपना भूगोल न बिगड़े बस यही ख्याल अधिकांश रखते हैं

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