जीत ही जीत चाहिए...ये कैसा दंभ है


बहुत हुआ सबकुछ अब तक, बेशक तुम्हें पराजित होना पसंद नहीं है, हार स्वीकार नहीं है लेकिन ये सब तब ही तो संभव हो पाएगा जब ये धरती होगी, लोग होंगे, जीवन होगा, सपने होंगे, श्वास होगी, जल होगा। इन सबके बिना कहां किसी की जीत यदि ये नहीं तब हार ही हार है, हार भी वह जो आपकी इस दंभी जीत से उपजेगी। आईये बहुत चुका जीत और उसमें झूमने का नशा, आईये अब मानवीय हो जाईये। हम इंसान भी ना बहुत अजीब हैं, हममें घेरने की प्रवृत्ति बहुत खतरनाक है। हम पैदा होते हैं, अस्पताल में एक छोटे से झूले में समा जाते हैं, फिर माता पिता की छोटी सी गोद में, फिर शिक्षा की पहली छोटी सी पायदान, फिर पहले छोटे से सपने की ओर बढ़ना, फिर पहले सपने के सच होने पर खिलखिलना, फिर जीतना। यहां तक तो हम बहुत गहन और संक्षिप्त में जीने वाले होते हैं लेकिन फिर क्या होता है जब आप सफल होकर आततायी जैसा बर्ताव करने लगते हैं, जीत के बाद दो राह हो जाती हैं, एक केवल जीतना चाहता है और दूसरा जीतता भी है और हारता भी है, मेरी समझ से केवल जीत इंसान को जिद्दी और दंभी बना देती है, उसके अंदर का इंसान धीरे-धीरे के विचारों के रास्ते एक क्रूरतम जिद में तब्दील हो जाता है। 

जीतने वाले को केवल जीत चाहिए, फील्ड कोई भी हो उससे फर्क कहां पडता है, लेकिन हर बार जीत नहीं मिलती, हर बार हार भी नहीं मिलती लेकिन हार और जीत के बीच हमें इंसान बने रहना जरुरी होता है लेकिन अब तो अक्सर देखने में आ रहा है कि जीत पाते ही इंसान जीत को जब्त करना चाहता है, जीत को पाकर वह जीत पर एकाधिकार जमाना चाहता है जबकि हमेशा ऐसा नहीं होता। जीतने वाले यदि दंभी हो जाया करते हैं तब उनके साथ प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत काम करता है, उन्हें पता ही नहीं चलता कि जीत के आदी होकर वे कितनी बार हार जाते हैं, कितनी बार गिरते हैं, कितना गिरते हैं और गिरते ही जाते हैं। इस बीच हार भी है उसकी बात करने से पहले हमें उस प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत पर लौटते हैं, जब हम अपने आपको सर्वशक्तिशाली मानकर सीना चौड़ा कर भाग रहे होते हैं तभी कुछ ऐसा होता है जब हम बहुत गहरे गिरते हैं और चकनाचूर हो जाते हैं। अब इस दौर में तो ये भी देखा जा रहा है कि जीत के लिए किसी भी हद तक गिरा जा रहा रहा है, किसी भी सीमा के पार जाया जा रहा है, जीत अब हासिल की जा रही है, जीत अब छीनी जा रही है...ओफ गिरने की इंतेहा हो गई है। 

मैं पूछता हूं कैसी रेस है और कैसी जीत हार। कैसा दौर है इस दौर में भी प्रतिस्पर्धा है, धर्नाजन की, अपने आप को अच्छा साबित करने की, बेहतर बताने की, जीत का तमगा पाने की, अपने आप की ताजपोशी कराने की, जो इस दौर को एक सुनहरा अवसर मान रहे हैं, जो लूट रहे हैं, चूस रहे हैं, जो हैवानियत की हद तक पार जा चुके हैं, उनमें वे भी शामिल हैं जो ये सब देखते हुए खामोश हैं और अपने आपसे कोई सवाल नहीं पूछ रहे हैं वे हार रहे हैं, रात में अपना चेहरा आईने में देख नहीं पाएंगे क्योंकि उस पर पुती कालिख आपको अपना चेहरा नहीं देखने देगी। यकीन मानिये दुनिया के इतिहास को उठाकर देख लीजिए जो दंभी हुआ उसका अंत बहुत खतरनाक हुआ है, दंभी बनकर आप कुछ नहीं पा सकते, समाज को कुछ नहीं दे सकते।  

बात करें हार की तो हार हर बार भी खराब होती है लेकिन जीत के बाद हार और हार के बाद जीत ये नियति है और इसी को स्वीकार्य करना चाहिए। जो आज समृद्ध हैं वे सोचें कि किस तरह से वे अपने स्तर पर मदद के लिए आगे आ सकते हैं, खामोशी से घर पर बैठकर आप केवल अपने आप को बचा लेंगे लेकिन आप उस मानवीयता को स्थापित नहीं कर पाएंगे जिसकी आज आवश्यकता है और जिससे मानव की पहचान है। सीखिये ना ये समय का सबक है, ये दौर सबक लेकर आया है कि समरसता जरुरी है, एकालाप आपको अकेला कर देगा, आपकी चीखने की भी बारी आ सकती है तब आपको कौन सुनेगा, जीत का दंभ हमें अंदर से पत्थर की तरह सख्त बना देता है, टूटने दीजिए इस दौर में उसे क्योंकि ये दौर हमें टूटना सिखा रहा है तो सृजन की राह भी इस रास्ते निकलेगी। दंभी हो जाना मानवीयता को गला घोंटना है और मानवीय हो जाना इस दौर की आवश्यकता है। आईये जीत और हार, लाभ और हानि, अपने और पराये, धनवान और गरीब, ताकतवर और कमजोर के अंतर को बाजू में रखकर ये विचार करें कि ये दौर कुछ कह रहा है और उसकी सुनकर हम अपने जमीर की सुनते हुए केवल सहयोग में जुट जाएं, आपकी जीत तो तब भी बड़ी मानी जाएगी जब आपके कारण परेशान लोगों के चेहरों पर मुस्कान लौटेगी, उनकी परेशानी की काली घटा छंट जाएगी। सोचियेगा कि जीत के गुमान कहीं आपको ऐसे गहरी खाई में न ले जाए जहां न आपको कोई पहचान पाएगा और न ही कोई आपको याद करना चाहेगा। सोचियेगा अवश्य...। 

  


मां कैसे छू लिया करती थी नब्ज


 

मैं नहीं जानता कि जब हम बच्चे थे तब मां कैसे देख लिया करती थी हमारी हाथ की नब्ज में बुखार और उसकी हरारत को। कौन जाने क्या देखती थी, क्या महसूस करती रही और हमारी कौन सी नब्ज को छू लिया करती थी कि हमें ये अहसास तत्काल हो जाया करता था कि हां अब हम ठीक हो जाएंगे क्योंकि मां हर बुखार में कह देती थी कि थोड़ी सी हरारत है, ठीक हो जाएगी, चिंता मत करो। वो अपने हाथ की ऊंगलियों को हमारी कलाई पर हमेशा ही वैसे ही रखती जैसे डॉक्टर देखा करते थे। हम हमेशा पूछते थे कि मां तुम डॉक्टर हो जो हमारी नब्ज वैसे ही देखती हो, हम जानते थे कि हमारी मां बिलकुल पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन उसने न जाने कहां से वो नब्ज को महसूस करना सीख लिया...शायद वो मां है इसलिए संभव हो पाया। एक दिन पूछ लिया यूं ही कि ये कैसे कर लेती हो, मां ने कहा कि समझना कौन सा मुश्किल है नब्ज कैसे चल रही है यही तो देखना है वह मुझे आता है, हां लेकिन सीखा कहां से इस पर वह हंसते हुए बोलती कि ठीक हो जाएगा जल्द...बस बात यहीं समाप्त हो जाया करती थी। अब तो मां बहुत उम्रदराज हो चुकी है, सोचता हूं कि मां कितनी गहरी है कि उसके पास सबकुछ है और सबसे बड़ी ताकत उसके प्रेम और विश्वास की है। 

एक और वाकया एक दिन अचानक मेरी तबीयत अधिक खराब हो गई, मां ने नब्ज देखी उसे लगा जैसे कुछ ठीक नहीं है उन्होंने आस पड़ोस में आवाज लगाई और देखा कि कुछ ही देर में घर में काफी लोग आ गए, उसके बाद पिता के नौकरी से लौटने तक उन पड़ोसियों ने ही सब कुछ संभाला और मां को ढांढस बंधाते रहे...सोचियेगा कि वह समय कैसा था जब एक मां जो अक्षर ज्ञान से बेखबर होने के बाद भी नब्ज पढ़ लिया करती थी साथ ही हमें भी और कैसे जबरदस्त रिश्ते उसने बुने कि एक आवाज पर पड़ोसी दौड़े चले आते थे, लेकिन आज क्या हो गया है और कैसे हो गया है, सबकुछ वह पुराना बदल कैसे गया। 

समझने का विषय तो है क्योंकि ऐसे ही हम इसे नकार नहीं सकते, क्या हमारी शिक्षा दोषी है, क्या हमारे स्वार्थ प्रबल हो गए हैं, क्या हममें से ही बहुत ये महत्वकांक्षा पाल बैठे कि हमें केवल अपनी सुननी है या फिर हमें अपने बुजुर्गों की दखलंदाजी पसंद नहीं आती। कारण जो भी मान लिया जाए लेकिन हम वह तासीर अपने अंदर नहीं रखते जो मां रखती है, जो उसके हाथ में थी, उसकी समझ में थी, उसके रिश्तों में थी, उसके भरोसे में थी। हम बेशक बहुत अधिक शिक्षित हो गए लेकिन कहीं न कहीं हममें एक गुरूर भी आकार लेता गया कि हमसे श्रेष्ठ कोई नहीं है, हम ही ताकतवर हैं और हमसे आगे हम किसी को होने नहीं देगे जबकि हकीकत ये है कि समय करवट लेना भी सिखाता है क्योंकि वो खुद करवट लेता है, इस दुनिया में धूप है तो छांव भी है, दिन है तो रात भी है और कुछ रातें अमावस की तरह लंबी होती हैं, उन रातों को पार करने के लिए बहुत गहरे संबल की आवश्यकता होती है और भी सच है कि ऐसी रात हरेक के जीवन का हिस्सा होती हैं। वह गहराई, धैर्य, सुनने की क्षमता और शांत सा व्यक्तित्व क्या आज के दौर के बच्चों में है, क्या हम अपने बच्चों में गहराई, धैर्य, मंथन और अपनापन सींच रहे हैं। ये कोरोना काल उदाहरण पेश कर रहा है क्योंकि यदि हम बहुत अधिक शिक्षित हैं तो हम अंदर से गुंथे हुए नहीं हैं यदि गुंथे हुए हों तो हमें मुसीबत के आते ही विचलित नहीं होना है लेकिन मैं देख रहा हूं इस दौर में बहुत जल्द हम विचलित हो रहे हैं, आपा खो रहे हैं, हम अकेले रहना सीख गए हैं इसलिए हम अकेलेपन में जीते जीते जल्द भयभीत होना सीख गए हैं हम डरने लगे हैं अपने साथ होने वाले किसी भी अहित की आशंका के अहसास से भी। सोचिएगा मेरी या आपकी मां या उस दौर के लोग क्या मुसीबत को भांपते नहीं थे, भांप लेते थे लेकिन वे डरते नहीं थे, वे उसके समाधान पर विचार करते थे। उन्हें और अपने आप को हम एक साथ रखकर देखेंगे तब हमें यकीन होगा कि शिक्षित होकर भी उथले से रह गए। हमें उनके वे सबक दोबारा याद करने होंगे जो हमने देखे हैं, उनसे सीखे हैं। शिक्षित होना जरुरी है लेकिन यदि शिक्षा आपको धैर्य और गहरा नहीं बना पाई तब यकीन मानिये कि आपकी शिक्षा अर्थहीन है, बेशक वह आपको सफल कर जाएगी लेकिन आप उस सफलता के शिखर पर अकेले ही होंगे। देख रहा हूं कि जो परिवार अपने माता-पिता को बहुत गहराई से समझते हैं वे अपने बच्चों में उसी गहराई का संचार करते हैं। मेरी मानिये तो बच्चों को शिक्षित करने के साथ संस्कारित अवश्य कीजिए और घर के बुजुर्गों के साथ भी उन्हें समय बिताने दीजिएगा क्योंकि बुजुर्गों के अपने अनुभव जब उन्हें मिलेंगे तब वे मजबूत बनेंगे और आज के दौर में बुजुर्गो के अनुभवों को आपको तरजीह देनी चाहिए क्योंकि वे ही हैं जो आपको इस दौर में मजबूत बनाएंगे। देखता हूं अंग्रेजी बोलते बच्चों के माता-पिता उन्हें तहजीब समझना ही भूल जाते हैं...। अंग्रेजी सफलता के लिए जरुरी है और संस्कार इस पूरे जीवन के लिए, पीढ़ियों के लिए और ऐसे कठिन दौर के लिए जिसमें आप बहुत भयभीत होकर जी रहे हैं। 


मत बनाईये भावनाओं का मरुस्थल


चीखेंं सुनिये, रुदन सुनिये, सुर्ख और सूजन से थकी आंखों को गौर से देखिये कितने सवाल हैं, कितना शोर है इनमें, ये दहक रही हैं, बेशक इस दौर में ये मौन हैं लेकिन क्या ये भविष्य लिखने वाली हैं...ये दौर सिखाकर जा रहा है कि आपको भविष्य में कैसा इंसान, कैसा समाज, कैसा विश्व तैयार करना है। कैसा क्रूर समय है बाजार का सबसे क्रूरतम चेहरा इस दौर ने दिखाया है, ये भी दिखाया है कि बाजार की असलियत क्या है और वो किस हद तक गिर सकता है और ये भी समझाया कि आप बाजार के पिछलग्गु बनाना छोड़ दीजिए ये केवल आपको छलकर ले जाएगा। 

बाजार में छल का गुण हमारी उथली शिक्षा, आलस्य और हमारे वैचारिक तौर पर पराधीन हो जाने का प्रतिफल है। बात करें इस दौर की तब क्या सोशल मीडिया और क्या मीडिया, सभी पर केवल चीखें हैं और दर्द है। कौन सा दर्द, दर्द वह जिसका वर्गीकरण आप कर सकते हैं, समाज कर सकता है, नीति नियंता भी कर सकते हैं लेकिन वह जिसने उस दर्द को सहा है, भोगा है, जीया है, जिसने किसी बेहद नजदीकी को खोया है तो वह उसका वर्गीकरण नहीं कर पाएगा क्योंकि उसके लिए तो केवल मन में गुबार है और चीख है जिसे एक खुला आसमान चाहिए जहां उसकी चीख गूंज सके, जहां उसकी चीख का प्रतिउत्तर सुनाई दे। जहां उसे चीखते हुए देख समाज उसकी ओर देख रहा हो, उसकी चीख के मायने और निष्कर्ष पर परिणाम भी जहां परिभाषित हो। दर्द में चीखते लोग थके नहीं हैं, रो रहे हैं, बोझिल हैं उनमें से बहुत से हैं जिन्होंने अपना पूरा परिवार खो दिया, अपनों की मौत पर अपनों का कांधा नहीं, अपनों की मौजूदगी नहीं, ये कैसी विदाई है अपनों की इस संसार से। दरअसल सत्य है कि जो तन लागे, सो जन जाने। 

मैंने इसी दौर में चीखते और रोते लोगों की मदद में उठते हुए कुछ हाथ भी देखे हैं जिन्होंने ये नहीं सोचा कि ये महामारी का दौर है और इसका असर उनके जीवन पर क्या होगा, कैसे बचेंगे वे इस दौर में। सिस्टम के अनुसार अपना सिस्टम बनाया और सेवा में जुट गए। ये सच है कि मानवीयता के कई उदाहरण भी हम देख रहे हैं लेकिन ये समाज की ओर से उठाए गए कदम हैं, समाज में कहीं दर्द बसता है, अपनापन भी बसता है जो अच्छे और भले लोगों ने सींचा है। ये दौर बहुत से सबक दे रहा है, कैसे जीना है, क्या खाना है, कितना खाना है, कैसे खाना है, कितने स्वतंत्र होकर बाहर निकलना है, किस पर भरोसा करना है, कैसे और कितना करना है। 

ये दौर ये भी सिखा रहा है कि भारत को अपनी पुरातन संस्कृति में लौट जाना चाहिए, एकल परिवारों का मोह खत्म हो और परिवार का वही समग्र स्वरुप हमें गढ़ना होगा। एक परिवार जब समग्र होता है, तब मुश्किलों और कष्टों को कई हिस्सों में विभाजित कर सभी बांट लेते हैं, लेकिन एकल परिवार कैसे इस दौर को सह पाए हैं वे खुद जानते हैं। इस दौर ने ये भी सिखाया है कि आपके पास कितनी भी अकूत संपत्ति है उससे कोई मतलब नहीं है, आपके कितने मधुर संबंध हैं ये महत्वपूर्ण है, अपार धन भी इस दौर में लोगों की जान बचा नहीं सका है, लेकिन वे अवश्य सुरक्षित रह गए जिन्होंने समय से संबंधांं को सींचा और बोया था। आपका दर्द सुनने का समय किसी के पास नहीं है और दर्द सुनने वाले खरीद भी नहीं सकते, लेकिन यदि आपने संबंध बोए हैं तब आपको अपने दर्द की नमी अपनों की आंखों में अवश्य नजर आएगी। बदलिए अपने आप को, ये समय कहता है कि आप समय से बदल जाएंगे, अपनों के करीब और अपनी महत्वकांक्षा से दूर होंगे तभी आप आने वाले समय में खुशियां की एक छत बुन पाएंगे। आपकी जिद, आपका अहंकार सब बोथरा साबित होगा जब आप अकेले होंगे, आपके संबंधों में यदि समरसता है तब मानिये कि आप इस दुनिया के सबसे गहन व्यक्ति हैं। केवल विनम्र निवेदन करना चाहता हूं कि इस खूबसूरत दुनिया में भावनाओं का मरुस्थल मत बनाईये। इसे यूं ही खूबसूरत रहने दीजिए और बेहतर बनाईये

चीखता हुआ वक्त कह रहा है कि दर्द को महसूस करना सीखये क्योंकि दर्द का नियम है उसकी कसक कब कहां और किसे भोगनी है पता नही है। सामूहिक परिवार भारत की पहचान थे, ताकत थे और हिम्मत भी, लेकिन इस दौर ने समझा दिया कि परिवारों का विखंडन और एक परिवारों का निर्माण केवल कुछ एकल सुख तो दे सकता है लेकिन समग्र दुख में भी आप अकेले हो। कोरोना का ये दौर बहुत कुछ दे रहा है, दर्द का एक ऐसा महाग्रंथ हर उस मन में आकार ले रहा है जिन्होंने इस दौर में अपनों को खोया है, बेशक संभव है कि हर ग्रंथ शाब्दिक आकार न पा सके लेकिन हर ग्रंथ एक हुंकार अवश्य बनेगा ये सत्य है और उसे कोई नहीं रोक सकेगा। 


(फोटोग्राफ अखिल हार्डिया जी, इंदौर मप्र का है, साभार )

कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो....


हम तो जी भारतीय हैं और हमें तो बातें करना वैसे भी बहुत पसंद है लेकिन हम दायरे भी जानते हैं कि कौन सी बात कब की जानी चाहिए और कब सुनी जानी चाहिए, हर बात हर समय बोलने की भी नहीं होती और हम बात हर समय सुनने की भी नही होती, कब, क्या और कितना बोलना जाना चाहिए ये बहुत महत्वपूर्ण है, आपको कौन सुनना चाहता है, कितना और आपसे क्या सुनने की उम्मीद रखता है ये सब बातें हमें बोलने से पहले बहुत सोचनी चाहिए। मान लीजिए कि कोई उलझनों में है और अपने ही खोया हुआ है तब आप उस उसे कोई भी वकतव्य नहीं सुना सकते, उसकी मनोदशा के अनुसार ही आपको आचरण करना होगा, उसे समझना होगा और उसे समझाना होगा। आप बहुत अच्छे वक्ता भी हैं तब भी आपको हर बार ये सोचना चाहिए कि मैं जिन्हें अपनी बातें सुनना चाहता हूं वे किस मनोदशा के लोग हैं उनकी आवश्यकता क्या है। इस दौर में केवल बोलने वालों को ही पचाया नहीं जा सकता क्योंकि बोलने पर कोई समाधान हो, कोई सलाह हो, कोई ऐसी बात हो जो हमें बेहतर बनाने का सबक हो। 

एक पुराने गीत की पंक्तियां भी याद आ रही हैं...

कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो, क्या कहना है, क्या सुनना है, मुझको पता है, तुमको पता है समय का ये पल...थम सा गया है...और इस पल में कोई नहीं है...बस एक मैं हूं...बस एक तुम हो....।

दोस्तों बातों पर बात करते हुए एक कथा आपको बताता हूं संभवत आप उससे जान पाएंगे कि हालात भी कितने जरुरी होते हैं ये तय करने के लिए क्या कहना चाहिए और कितना कहना चाहिए। 

यहां एक बहुत छोटी सी कथा है एक समुद्र में जहाज के मुसीबत में फंसने के कारण जान बचाने के लिए लोग स्वप्रेरणा से नौका पर सवार हो जाते हैं, उनमें पांच तरह के लोग होते हैं, एक जो लगातार चीख रहा था, उस जहाज के कप्तान को कोस रहा था, दूसरा उस कोसते हुए को सुन रहा था और बीच-बीच में हां बोलकर सिर हिला रहा था, उसे देखकर लगा जैसे उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा केवल वह उस चीखते आदमी से प्रभावित है। उसी नौका पर तीसरा व्यक्ति भी था जो बेहद डरा हुआ सहमा हुआ कभी समुद्र के पानी को देखता तो कभी हिचकोले खाती नाव को, वह व्यक्ति उस समय मन से वहां था ही नहीं इसलिए वह किसी की नहीं सुन रहा था वह केवल डरा था और अपने डर से बातें कर रहा था, बुदबुदा रहा था। चौथा व्यक्ति भी था जो नियति मानकर नाव के एक हिस्से में लेट गया, मुंह पर पंछा डालकर धूप से खुद को बचाकर लेट गया, केवल इतना ही बोला कि जो हमारे हाथ में है ही नहीं उसका क्या सोचें, जो होगा देखा जाएगा। पांचवा व्यक्ति इन सब से अलग था और वह केवल ये सोच रहा था कि इस स्थिति से बाहर कैसे निकला जाएगा और इन शेष चारों को भी कैसे इस भंवर से निकाला जाए। वह प्लानिंग में लगा था और देख रहा था पानी की लहरें कितनी उछाल ले रही हैं, हवा का रुख कैसा है, नौका में किस ओर वजन अधिक है और किस ओर कम है, वह उस सिस्टम पर चीखते आदमी को केवल देख रहा था लेकिन उसकी बातों पर कतई ध्यान नहीं दे रहा था, तभी जहाज पर से भी कप्तान की आवाज आई कि आप अपने मन को मजबूत रखना, नौका पर निकले हो, सही तरह से उसे चलना, हवा की दिशा देखना मुझे भरोसा है आप ऐसा करोगे तो सही सलामत किनारे पहुंच जाओगे। प्लानिंग करता हुआ आदमी केवल उसे देखकर अपनी प्लानिंग में लग गया और चीखता आदमी उसे प्रतिउत्त्र देने लगा कि तुमसे अपना जहाज तो संभल नहीं रहा हमें मत बताओ, जो व्यक्ति फालो कर रहा था वह दो पल के लिए उस जहाज के कप्तान से भी प्रभावित हो गया, बाद में उस चीखने वाले की ओर आ गया। अगले ही पल जहाज के कप्तान की ओर होकर बोला वे जानकार हैं, उम्र वाले हैं वे भी सही बोल रहे हैं, चीखता आदमी बोला जानकार हैं तो जहाज को अच्छे से चलाएं मुश्किलों में फंसे जहाज को दुरुस्त करने की जगह ज्ञान क्यों बांट रहे हैं, वो कप्तान हैं और हम भरोसे उसे उनके जहाज पर सवार हुए थे, अगर जहाज सही नहीं चला सकते तब हमें भी ज्ञान न दे। उस नाव पर जो लेटा था उसने मुंह निकालकर देखा और कप्तान की बात सुनी और फिर सो गया। डरा व्यक्ति हाथ उठाकर कहने लगा मैं आपके जहाज पर लौट सकता हूं क्या, कप्तान मुस्कुराकर अंदर चला गया। प्लानिंग कर रहे व्यक्ति ने उसे हाथ पकड़कर बैठाया और शांत रहने को कहा...और ये सफर चलता रहा। 

हम इस कथा को किसी भी तरह लें लेकिन ये जीवन की हकीकत है कि हम इसी तरह के हैं, विभिन्न स्वभाव और भाव के। ज्ञान कितना है और उसका उपयोग विपरीत परिस्थिति में कैसे करना है हमें नहीं पता, लेकिन हम ज्ञानी होने का दावा करते हैं, हमारा क्रोध हमें अगले ही पल पराजित कर जाता है, हम हार जाते हैं लेकिन हम शांत होकर सोचना नहीं जानते। हमारे यहां शांत होकर भय के समय अनुसरण करने वालों के साथ कुछ गिनती के लोग चिंतन करने वाले भी होते हैं जो उस भंवर से सभी को निकालने का भी सोचते हैं...। उस जहाज के कप्तान जैसे भी लोग होते हैं जिससे अपना जहाज नहीं संभल रहा लेकिन वे नौका में सफर करते लोगों को बचने के गुण समझाते हैं...। सोचिएगा इस कथा में जब परेशान व्यक्ति उस कप्तान से कहता है कि मैं आपके जहाज पर आ सकता हूं तब वह केवल मुस्कुराकर अंदर चला जाता है, यहां ये बात समझ से परे है कि डूबते जहाज का कप्तान आखिर मुस्कुरा भी कैसे सकता है। 

ये कठिन दौर है और इसमें बात कीजिए ना अपनों से। बात करने की मनाही नही है, लेकिन वह कहिए जो उसके दर्द पर मरहम लगाए, उसे राह बताईये, उसकी राह आसान हो वह बातें उसे बताईये। कुछ भी अकड़म-बकड़म कौन सुनने का समय किसी के पास नहीं है। इस दौर में लेकिन वे सुनना क्या चाहते हैं आपको पता तो हो, वे राग विराग में जी रहे हैं और आप उन्हें राग मल्हार सुना रहे हो। मत कीजिए, आप नहीं जानते तो खामोश रहिये और लोगों को अपनी ताकत खुद बनने दीजिए। ये समय पीठ पर हाथ रखकर ताकत बंधाने का है, जीत के प्रति भरोसा जगाने का है, उम्मीद बंधाने का है किसी को जीवन का हौंसला देने का है। हम रोज कम से कम पांच लोगों से बात करें और उनसे उनके परिवार की कुशलक्षेम पूछें कोई कारोबारी बात नहीं, कोई राजनीति की बात नहीं, कोई बेकार की बहस नहीं केवल परिवार की पूछें, आप जो जानते हैं उन्हें बताएं वे जो जानते हैं आप सुन लीजिए...देखिये समाज बहुत खूबसूरत है और इसे और बेहतर हम बना सकते हैं बस बोलने सलीका, समझ और समय को समझना सीख जाईये। देश में इस समय बहुत से ग्रुप हैं जो सेवा में जुटे हैं, पीठ थपथपा रहे हैं, हमारे यहां आदमी कमजोर नहीं है वह खुद जीतना जानता है बस आप उसका हौंसला बेहतर बनाईये। बात कीजिए ना बात करने से दर्द बंटता है, मन मजबूत होता है लेकिन बातें भी तो वह हो जनाब जिनसे अपनेपन की महक आए।

कई मोर्चों पर लड़ता आदमी


ये वह दौर है जब एक सामान्य आदमी कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रहा है, जूझ रहा है, खुद ही उलझ और सुलझ रहा है। बात करें उस अपने से लड़ते और सवाल करते आदमी की। भयभीत है क्योंकि महामारी फैली हुई है, घर से निकलना जरुरी है क्योंकि घर कैसे चले, पेट कैसे पले और बच्चों की पढ़ाई की गाड़ी कैसे खिंचे। पहले एक मास्क जरुरी था अब बताया जा रहा है कि दो मास्क जरुरी हैं, उस पर भी अधिक भीड़ में हैं तब फेस शील्ड भी चाहिए। चलिए वह घर पर समझाइश देकर और अपनों से भय में लिपटा ज्ञान लेकर निकल पड़ता है। बाजार में कौन ठीक है कौन बीमार कुछ पता नहीं है, अपने आप को पूरे दिन बचाता, हाथों पर महंगा सेनिटाइजर लगाता, बार-बार डरता और भयभीत होता अपनी डयूटी की जिम्मेदारी निभाता है। सब्जी की महंगी मार से उन्हें केवल देखता हुआ घर आ जाता है। रास्ते भर किसी की मौत की किसी के गंभीर बीमार होने की खबरों से कई बार हिल जाता है। घर की, परिवार की जिम्मेदारियों में अकेले में हैरान सा खुद को कोई हल खोजने को पूरा दिन उलझाता है। इसी बीच इंटरनेट बंद होते ही बच्चे चिल्लाते हैं, अपने आप को कोसता है कभी कंपनियों को। खीझता है नेट के रिचार्ज पर, कभी बच्चों पर। कहता है संभाल कर उपयोग करना सीखों नेट का। बीच में ही स्कूल के फरमान आ रहे हैं, किताबें जरुरी हैं, खरीदनी हैं, फीस का भय सता रहा है, उधर रोज मालिक डयूटी पर काम के बदले भय बताता है। 

डरा हुआ आदमी इन दिनों कई मोर्चों पर लड़ रहा है, उसके पास कोई हथियार नहीं है, लेकि हथियार किन्हें बना रहा है यदि परेशानी के बीच घर में बिटिया या बच्चे खिलखिला दें तब वह मजबूत हो जाता है, पत्नी पीठ पर हाथ रखकर कह दे कोई बात नहीं सब ठीक हो जाएगा, सब मिलकर साथ हैं आपके वह धीरे से मुस्कुरा उठता है। इसी बीच किसी रिश्तेदार का फोन आ जाए कि फलां बीमार हो गया है, तब वह भयभीत सा आदमी उम्मीद बंधाता है, खुश रहना सिखाता है, न डरने और मन को मजबूत करने के सबक भी सिखाता है, फोन रखते ही अगले पल ठंडी श्वास लेकर अंदर से हिल जाता है। भोजन में क्या बनेगा क्या बना है और क्या बना करता था जब अच्छे दिन थे परिवार के इस पर चर्चा आरंभ होते ही वह आदमी बहुत ही जिम्मेदारी से परिवार को समझाता है कि जो है वह वैसा ही हमेशा नहीं रहेगा, समय निकाल लें हम मिलकर। सोने से पहले थका हुआ आदमी कुछ देर टेलीविजन के सामने बैठ जाता है, सिस्टम पर चीखते लोगों और जवाब सुनने न्यूज एंकरों पर अपनी बेबस नजर घुमाता है, बार-बार चैलन बदलता है, हर जगह बीमारी, उलझनों, परेशानियों और मौत का मंजर नजर आता है, वह भारी मन से बीच में कहीं पुराने गीत सुनने को ध्यान लगाता है, थका सा सोफे पर ही पसर जाता है, पत्नी आती है और कहती है बहुत थक गए हो, सो जाओ, वह उसे देख मुस्कुराता है और देर रात भी बेवजह चाय बनवाता है और पत्नी को पास बैठाता है, मन की समझाता है कहता है कैसा भयावह दौर है, पूरा दिन कैसे जीता हूं मैं ही जानता हूं, जीता क्या हूं केवल अपने शरीर को इस परिवार के लिए बचाकर लाता हूं, हर पल घबराता हूं कि कहीं परेशानियां ने घेर लिया तब क्या होगा, लेकिन अगले ही पल पत्नी कहती है क्यों घबराते हो वे हमारे साथ-साथ खिलखिलाने वाले दिन अवश्य आएंगे, अमावस की रात स्याह होती है लेकिन बीतती तो अवश्य है और हम मिलकर इस मुसीबत वाले दौर को पार कर जाएंगे, मन ही मन वो दोबारा मजबूती पाता है और पत्नी के कांधे पर हाथ रख उसे मजबूत होने का अहसास करवाता है और थका हुआ आदमी रात को अपने घर के उस सुरक्षित से लगने वाले कमरे में सो जाता है, अगली सुबह के उगने वाले दिन और उसकी मुसीबतों को भूलकर....। 

ऐसा ही कुछ है आजकल का दौर, ये हर घर की कहानी है जो समृद्व है वह भी परेशान है और जो मध्यमवर्गीय है वह डरा सा एक पूरा दिन मुश्किल से काट रहा है क्योंकि परिवार उसके लिए उसकी सबसे खूबसूरत दुनिया है और वह उस दुनिया को मुस्कुराते देखना चाहता है और इसी के लिए वह आदमी पूरा दिन बिता आता है, खतरे में मुस्कुराता है और हर रात उम्मीद को जल अर्पित करता है कि आने वाला कल पहले की तरह खूबसूरत होगा। अब बताईये क्या हर आदमी अंदर अनुभव का एक महाग्रंथ नहीं लिख रहा है...देखियेगा ये दौर बीतेगा तब आदमी जीएगा और लिखेगा मुसीबतों के इन दिनों को अपने दर्द की स्याही में भिगोकर। हर आदमी अब अंदर से जंगल है, सूखा गया है, तप रहा है...कहीं कहीं सुलगता और बुझता हुआ, धुंआदार आदमी। 


खौफनाक अंत की ओर ले जा रहा है प्लास्टिक


सुविधाभोगी हम ये नहीं समझने को तैयार हैं कि जिस प्लास्टिक को हमने अपने जीवन को आसान बनाने का साधन मान लिया है वह धरती के बाद समुद्र के गर्भ में पैर पसारता जा रहा है, ये सब तेजी से हो रहा है तो इससे क्या होगा...आपका सवाल हो सकता है इसका जवाब ये है कि इसका एक समय के बाद कोई जवाब नहीं होगा क्योंकि प्लास्टिक हमारी इस खूबसूरत धरती, जल, धरा, वायु और मानव जाति को खौफनाक अंत ही ओर ले जा रहा है और हम उस ओर स्वतः तीव्र गति से भाग रहे हैं। क्या हम जानते हैं कि प्लास्टिक दुनिया के सबसे विशाल पर्यावरर्णीय खतरे में से एक है और इसका अब तक कोई ठोस हल नहीं तलाशा जा सका है, ये हमारी आम जिंदगी की लापरवाही के कारण अब इतना विशाल हो जाता रहा है कि इसे समेटना और इसे खत्म करना असंभव हो गया है। धरती के बहुत से हिस्से इस प्लास्टिक के जहर को सालों से ढो रहे हैं, इससे जमीनी पानी दूषित हो रहा है और उसी के कारण हमारी धरा, जमीन भी इससे दूषित होती जा रही है। प्लास्टिक के पर्वत आप महानगरों के बाहरी हिस्सों में देख सकते हैं। सभी के लिए अब अनसुलझी पहेली हो चुके हैं, खूब प्रयास हो रहे हैं कि इसे खत्म करने का कोई तरीका तलाश लिया जाए लेकिन अब तक कोई उल्लेखनीय कामयाबी हासिल नहीं हुई है। धरा के साथ अब दुनिया के प्रमुख महासागरों के गर्भ में भी प्लास्टिक ठूंसा जा रहा है। महासागरों के लिए और उसके पानी के लिए ये एक बहुत खौफनाक खतरा बनकर तैयार हो रहा है। कहां ले जाएंगे इस लापरवाही उगलते शरीर को। खत्म कर दीजिए न इसे क्योंकि यदि हमने अपनी आदत में प्लास्टिक को शामिल रखा तब यकीन मानिये कि ये एक ऐसे खौफजदा संकट को हमारी ओर ला रहा है जिसका कोई इलाज आप खोज नहीं पाएंगे, सोचिएगा कि हमारी हरी भरी धरती प्लास्टिक के जंजाल में उलझकर कितनी बेबस हो जाएगी। सोचिएगा कि एक अच्छी आदत से दुनिया के किसी भी विशाल संकट को रोका जा सकता है, क्योंकि ये शुरुआत होती है। धरती केवल पौधे लगाने से हरी नहीं रहेगी, पौधों को जीवन देना तो अब हमारा कर्तव्य है ही लेकिन प्रकृति तो तब संवर पाएगी जब हम इस प्लास्टिक के संकट को रोकने में सफल हो पाएंगे। दुनिया के देशों के सामने अब प्लास्टिक एक ऐसा संकट बन चुका है जिस पर कोई राह नजर नहीं आ रही है, ये दमघोंटू प्लास्टिक पहले धरा का, महासागर का और बाद में इस मानव जाति का जीवन समाप्त कर देगा। जागिये कि समय से सुधार के रास्ते खोजे जा सकते हैं, प्लास्टिक का उपयोग के पहले अपने मन को ना कहने की आदत डालिए क्योंकि कल आपके बच्चों को आप एक जीवन देकर जाने वाले हैं क्या वह प्लास्टिक वाली सख्त और बिना हवा वाली दुनिया होगी....सोचिएगा...

अब हम बाजारू पानीदार हैं...!

हमारे संसार में पानी के बाद हवा भी बिकने लगी, पानी का कारोबार पूरी तरह से स्थापित और सफलता पा चुका है, इसके लिए बाज़ार ने भयाक्रांत करने वाला पैंतरा अपनाया, प्रकृति और उसके पानी को दूषित ठहराया, बीमार कर देने का लांछन लगाया और अपना पानी प्लास्टिक की बोतल बंद कर हमें थमा दिया। हम कितने समझदार हैं कि पानी के मूल स्वरूप और उसकी हकीकत को समझने के पहले ही बोतलबंद पानी के कारोबार पर भरोसा कर बैठे...पीढ़ियां जिस पानी को पीकर जिंदगी की कई खूबसूरत नज़ीर लिख गईं, हमने उसे अनदेखा कर कारोबार और बाज़ार के सामने नतमस्तक हो जाना बेहतर समझा...। ये जो बाज़ार है इसने हमारी समझ पर कब्जा कर लिया है वह जानता है कि हम स्वभाव से अब वैसे हो गए हैं जैसा बाज़ार हमें बनाना चाहता था। मूल को मिटाकर बाज़ार अर्थ तंत्र को विकसित कर रहा है, यकीन मानिए आप अपने आप को जितना जानते हैं उससे कई गुना अधिक बाज़ार आपको जानता है...। मैं मूल पर लौटता हूँ जब नदियों का जल है, कुएँ हैं, बावड़ी हैं, तालाब हैं, नौले हैं, पोखर हैं तो उनका पानी क्या आपकी प्यास नहीं बुझा सकता और ये किसने प्रचारित किया कि प्रदूषण बढ़ रहा है, पानी से बीमारियां हो रही हैं, इलाज पर खर्च करने की जगह बाज़ार का पानी खरीदो या पानी को साफ करने के वाली मशीन को रसोई में स्थान दो...। हमने मान लिया कि बाज़ार कह रहा है तो सही है और हमने रसोई में रखे मटके फोड़े, तांबे के कलश ओंधे रख बाज़ार की समझ वाला पानी पीने लगे...। हममें से बहुत बड़ा वर्ग तो इतना असहाय है कि वह अब मूल पानी. हकीकत में पचा नहीं पा रहा है... उसकी प्यास केवल बाज़ार ही बुझा सकता है...। चलिए पानी प्रकृति से छीन अब बाज़ार के हिस्से आ गया, अब हम बाजारू पानीदार हैं...। 

बाज़ार को जब लगा कि पानी अब ब्रैंड होकर बिक रहा है तब नया किया जाए, अब आक्सीजन पर बाज़ार सक्रिय हो गया। अब मर्ज जो हो रहे हैं उनमें दम घुटने की पीड़ा को आपके सामने पेश किया जा रहा है, पीड़ा के बाद इसी बाज़ार ने प्रचारित किया कि हवा दूषित है, अब आपको जीना है तो आक्सीजन सिलेंडर पीठ पर लटकाने होंगे, बस क्या था अब बाज़ार हमारी पीठ पर भी लद गया, हमारी समझ का शिकार करने के बाद बाज़ार अब हमें पूरी तरह पंगु बनाना चाहता है, देखिए स्वस्थ जीवन और खुली हवा में जीने वाली दुनिया में आक्सीजन को लेकर कैसा हाहाकार मचा है।

अब राज्यों की अपनी अपनी आक्सीजन हैं, कोई किसी को नहीं देना चाहता। कैसी दुनिया है जब जीवन और सिस्टम ही वेंटिलेटर पर हो तब आदमी और बाज़ार की आक्सीजन की लूटमार जैसे हालात कोई आश्चर्य नहीं हैं..। प्रकृति की आक्सीजन में कभी सिलेंडर की आवश्यकता ही नहीं थी, जबसे ये छलिया बाज़ार हमारे जीवन में, घरों में आया है हमें सिलेंडर भरने पड़ रहे हैं। मैं तो इतना ही जानता हूँ प्रकृति की आक्सीजन में कभी ऐसी पाबंदियां नहीं रहीं, कोई टैक्स नहीं, कोई पैकैज नहीं...। अब भई आखिर में क्या ये भी लिखूं की बाज़ार और बाज़ारवाद की मायावी दुनिया से बाहर आईये और प्रकृति को पहचानिए क्योंकि प्रकृति ही आपको इस चपल बाज़ार के शिकंजे से मुक्त करवा सकती है, अपना पानी, हवा, जीवन इस प्रकृति के पास हैं उन्हें बेहतर बनाईये, ये बाज़ार हमारी दुनिया को कलुषित बना रहा है इसकी ओर पीठ कीजिए और अपने मन की सुनिए....। 

एक सवाल उठाना चाहता हूँ, बाज़ार को प्रकृति में दाखिल होने से रोकिये वरना हम पंगु होकर जल्द ही बिखर जाएंगे...। 

हुकमरां तुम्हें कौन सुनना चाहता है...

 


जब किसी किले में पहुंचता हूं बार-बार  अंदर से एक ही आवाज सुनाई देती है कि ‘हुकमरां तुम्हें कौन सुनना चाहता है...’। मैं आम व्यक्ति बनकर जब भी किले में दाखिल होता हूं तब मेरे साथ चलती है कतरा-कतरा आदमियत...सहमी सी, डरी सी और अपने में कहीं बहुत गहरी उलझी सी...। गाइड जो इतिहास रट चुका है, इतिहास जिसकी रोजी है, रोटी है, कहता जाता है, कहता जाता है वही सब जो उसने पहले वालों से कहा और वही जो उसे किताबें बताते आई हैं, हां उसमें भी आम आदमी बसा करता है वही डरा सा, सहमा सा...लेकिन पतले और सूखे से बदन से गोटियों की तरह झांकती आंखें किले में क्या खोजती हैं, वो गाइड को देखती हैं, लेकिन हुकमरां को महसूस भी करना चाहती हैं। सदियां बीत गईं, राजसी किले अब बाहर से भी खंडहर होने लगे हैं, अंदर कहीं संबंधों की राख है, कहीं बेहताशा शानो-शौकत...। गाइड नहीं थमता, उसे कहना है उसे उसी तरह लय में कहना है राजा की तारीफ, राजा के जीवन का वर्णन...उसके पुराने हो चुके कपड़े, हथियार, वाहन, पहनावा और भी बहुत कुछ...गाइड सिर झुकाकर अब तो आरामगाह में भी दाखिल हो जाता है उस बेसब्री आंखों से लदी भीड़ को...धीरे से कहता है यहां वे रानी के साथ विश्राम करते थे...और बाहर आ जाता है...। आम आदमी गाइड की नहीं सुनता वो उस आरामगाह के ऐशो आराम को अपनी गोटियों जैसी आंखों से चुग लेना चाहता है मानों वो सत्ता कभी उसकी कर्जदार रही हो...गाइड कहता है ये सिंहासन है यहां से राजा का दरबार चलता था, आम आदमी फिर नहीं सुनता अबकी तो वो कान पर हाथ रखकर पीठ कर लेता है उस सूने सिंहासन की ओर...गाइड पूछता है क्यों क्या हुआ भाई देखना नहीं चाहते...वो डरा सा, सहमा सा खीसे निपोरता हुआ नहीं कह देता है, बुदबुदाता है हुकमरां तुम्हें कौन सुनना चाहता है...। वो दबी नजरों से सिंहासन को देखता है और उसे दरबारियों का शोर विचलित कर देता है, वे चीख रह हैं राज्य के संकट पर, लेकिन हुकमरां मौन हैं, वे चीख रहे हैं राज्य में फैली बीमारी पर लेकिन हुकमरां खामोश है, वे चीख रहे हैं कि फसलें चौपट हो गई हैं, लेकिन तंत्र उनकी जेब खींच रहा है लेकिन हुकमरां चुप हैं, वे चीख रहे हैं कि जनता भूखी है, नंगी है, बेजान है, उलझी है और बीमार है....लेकिन हुकमरां खामोश हैं....। उस भीड में खडे़ आम आदमी पर गाइड हाथ रख देता है और उसका मौन टूट जाता है...गाइड कहता है क्या बुदबुदा रहे थे कि हुकमरां तुम्हें सुनना कौन चाहता है, आम आदमी बोला हां सच तो है किले की ये दीवारें कभी भेद नहीं पाईं आम आवाजों को, अलबत्ता किले भेदे जा चुके हैं। आज भी चीखें हैं किले के अंदर और बाहर एक समान...। गाइड कहता है कि पहले भी राजा और बादशाह कहते थे, लोगों की सुनते थे उनके लिए काम करते थे, आम आदमी बोला हां, बहुत ही थोडे से थे, लेकिन ये किले और उसकी दीवारें बताती हैं कि खाई सदियों पहले भी थी और आज भी है, रही बात हुकमरां के कहने की तो वो वही कहते थे जो उन्हें कहना होता था, आम व्यक्ति उसे सुनना नहीं महसूस करना चाहता था, पहले भी और अब भी...गाइड उसे देखता रहा गया, आज बेशक किले नहीं हैं लेकिन दीवारें तो हैं...। भीड़़़ जा चुकी थी आम आदमी भी खामोश सा हमेशा की तरह सवालों में उलझा हुआ बाहर निकल गया, जाते हुए बोला सुनो गाइड इतिहास का सच ही कह रहे हो ना तुम...पूरा सच या आधा अधूरा...? क्योंकि इतिहास भी वही बना है जो हुकमरां चाहते थे... गाइड दीवारों से सटकर खड़़ा रह गया....। 


’प्रकृति दर्शन’ का अप्रैल का अंक टैरेस गार्डिनिंग पर


राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ’प्रकृति दर्शन’ का अप्रैल का अंक टैरेस गार्डिनिंग पर केंद्रित है...। कोरोना काल में हम प्रकृति के करीब आने का संदेश इस माध्यम से लेकर आ रहे हैं...। छत है तब हरियाली होनी चाहिए... ये हरियाली हमें अंदर से सूखने नहीं देगी...। अंक है-अपनी छत, सबकी हरियाली...। कवर पेज अवलोकनार्थ है, इस अंक को आप नीचे दिए गूगल प्ले बुक के लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं...इस अंक में कृषि वैज्ञानिक आपको बता रहे हैं... कैसे छत पर हरियाली और जैविक सब्जियां आप लगा सकते हैं...। हम उन्हें भी लाए हैं जिन्होंने अपनी छत पर हरीतिमा वाली दुनिया बसा रखी है...।

इस अंक में ब्लॉगर साथियों....जिज्ञासा जी की कविता और गगन शर्मा जी का आलेख भी शामिल है....। 

गूगल प्ले बुक के लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं.

https://play.google.com/store/books/details?id=2HcpEAAAQBAJ

सालों जीवित रही झुमके की वह ख्वाहिश



मैं झुमके तिराहे पर ठहर गया और फोटोग्राफी करने लगा, देख रहा था कि झुमका भारी भी था और काफी ऊंचाई पर बेहद करीने से लगाया गया था। कानों में गीत गूंजा और मुस्कुराहट फैल गई- झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में...। देखता रहा और सोचता रहा कि फिल्म के इतने साल बाद जब यहां एक तिराहे पर ये झुमका लगाया गया तब भी शहर उस पहचान को कितने करीने से अपने मन में बसाए हुए है। साधना और सुनीलदत्त अभिनीत फिल्म के उस गीत ने बरेली को झुमका और उस दौर में खासी पहचान दी, लेकिन झुमका यहां कितनी गहराई से मन में बसा रहा, हालांकि फिल्म में वह गुम चुका था लेकिन हर बरेलीवासी के मन में कहीं जाकर वह एक सुरक्षित जगह पर लटका रहा, सालों बीत गए, फिल्म पुरानी हो गई, गीत अब भी जीवित है और जीवित रही झुमके की वह ख्वाहिश। आखिरकर एक गीत जीत गया, एक ख्याल जीत गया, एक फलसफा जीत गया जब बरेली ने उस गुमे हुए झुमके से कई गुना वजनी झुमका अपनी पहचान पर सुशोभित कर लिया आज बरेली के प्रवेश मार्ग पर आपको वह गीत दोबारा ताजा हो उठेगा...जाईयेगा तो देखियेगा कि शब्दों और भावों का वह झुमका असल में बरेलीवासियों के लिए क्या मायने रखता है...? 1966 में सुनील दत्त और साधना अभिनीत फिल्म ‘मेरा साया’ आई तब किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि फिल्म की आभासी दुनिया में गुम हुआ झुमका असल में एक दिन इस शहर को मिलेगा और कई गुना विस्तार पाकर। हालांकि भावनाओं का कोई आकार नहीं होता इसलिए उसके आकार पर बहस बेमानी है लेकिन एक भाव जन्मा और यहां आकार पा गया। जी हां, बरेली को झुमका भी मिला और उस गीत के बोल भी अमर हो गए। अब एक तिराहे पर भारीभरकम झुमका शोभायमान है। आप अगर दिल्ली से लखनऊ या लखनऊ से दिल्ली हाईवे से गुजर रहे हैं तब इस पर आपकी नजर अवश्य जाएगी क्योंकि ये बरेली के प्रवेश मार्ग पर ही जीरो पाइंट पर आपका ध्यान खींच लेगा। सोचियेगा कि जब साधना अभिनीत फिल्म में वो चर्चित गीत लिखा गया था- झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में तब वह केवल एक गीत था लेकिन एक शहर झुमके की पहचान पा गया, सालों बाद ये मांग उठाई गई कि बरेली के झुमके को लेकर कुछ होना चाहिए। शहर में झुमका लगाने की पहल 90 के दशक में हुई थी तब बीडीए ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण से दिल्ली-बरेली मार्ग 24 पर ‘झुमका’ तिराहा की मांग की थी, बरेली विकास प्राधिकरण ने शहर में एनएच 24 पर जीरो प्वाइंट पर एक भारी भरकम झुमका लगाने का प्लान बनाया और आखिरकार बीते वर्ष फरवरी में यह मांग पूरी हो गई। इस तिराहे पर 2 क्विंटल (200 किग्रा) का झुमका 14 फीट ऊंचे खंभे पर लगाया गया है। ऐसा बताया जाता है कि इसे बनाने में पीतल और तांबे का इस्तेमाल किया गया है। इसकी लागत भी लाखों में है और गुड़गांव के कलाकार ने इसे तैयार किया है। झुमका गिरा, लेकिन उसे मिलने में बेशक सालों लग गए लेकिन वह आज बरेली की शान है। 


‘...और कितने बुंदेलखंड’


 

अगला अंक ‘...और कितने बुंदेलखंड’ आलेख आमंत्रित हैं 

मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ का अगला अंक ‘‘...और कितने बुंदेलखंड’ पर केंद्रित रहेगा। दोस्तों जमीनी और पर्वतीय हिस्सों में जल के एक जैसे हालात हैं। बुंदेलखंड से पूछिये कि प्यास और जल कैसे होते हैं। पूछियेगा उस क्षेत्र के लोगों से बुंदेलखंड के मायने वे क्या समझ पाए हैं...इसी तरह मैं जानता हूं कि पर्वतीय हिस्से जहां प्रकृति बहुत मनोरम नजर आती है लेकिन वहां के प्राकृतिक जल के भंडार खत्म होते जा रहे हैं, सूखते जा रहे हैं, पर्वतीय हिस्सों पर जलसंकट गहराने लगा है और जहां तक मैं समझ पाता हूं पर्वतीय हिस्सों पर यदि हालात बेकाबू हुए तब उन्हें संभालना आसान नहीं होगा। आपको नहीं लगता कि देश के कई हिस्से बुंदेलखंड होने की ओर अग्रसर हैं...। यदि पर्वतीय हिस्से बुंदेलखंड जैसी आपदा तक पहुंचे तब यकीन मानिये कि सबकुछ खत्म हो जाएगा। लिखिए इस प्रमुख विषय पर....आलेख आमंत्रित हैं, ये मई का अंक है और हमें आलेख 20 अप्रैल तक मिल जाने चाहिए...। 

जो शोध कर रहे हैं इस विषय पर उनसे भी निवेदन है कि अपने आलेख भेजिए....प्रकृति दर्शन, पत्रिका एक ऐसा मंच है जो मानवजन को प्रकृति के करीब ले जाने पर कार्य कर रहा है। 

आप अपना आलेख, अपना फोटोग्राफ, संक्षिप्त परिचय हमें मेल कर सकते हैं, व्हाटसएप कर सकते हैं....। यदि जलसंकट के फोटोग्राफ हों, नदियों, तालाबों, पोखरों, कुओं के मौजूदा हालात पर फोटोग्राफ हों तो अवश्य भेजिएगा...।


Email- editorpd17@gmail.com

Mob/WhstsApp- 8191903651

(फोटोग्राफ आदरणीय ललित शर्मा जी)

प्रेम का अनुरोध


प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, ये तो यूं ही सूखे पत्तों सा सजीव है, सच्चा है, ये नेह में गर्म हवाओं के पीछे दीवानों की भांति भागता है, ये सूखे पौधों में पानी बन जाता है। प्रेम तो प्रेम है ये अंकुरण में भरोसा करता है, ये प्रकृति के भाव में जीता है, ये वृक्ष के सीने में कहीं कोई बीज बनकर पनप उठता है, ये कुछ मांगता नहीं है, ये देता ही देता है, ये जीता है और जीता केवल अपने लिए, अपने जैसों के भरोसे पर...। तुम ठहरो तो तुम्हें ये प्रकृति समझाएगी कि उसके कण-कण में प्रेम है, प्रेम की धारा है और प्रेम का अनुरोध निहित है....।


सांझ सत्य और सुबह भरोसा है


प्रकृति बहुत ही गहन सबक अपने में संजोए है, वो सांझ के दौरान तपस्वी की आभा देती है, हम समझें तो बहुत साफ है कि सांझ जीवन का सत्य है लेकिन सुबह एक भरोसा है। जिंदगी कभी नहीं थमती, वो निरंतर बढ़ती जाती है। कुछ बहुत पुराने पेड़ कभी हल्की हवा में उखड़ जाते हैं, कुछ छोटे पेड़ आंधी भी सह जाते हैं ---आशय ये है कि सांझ में शरीर दुर्बल हो जाता है लेकिन आत्मा और मन मजबूत हो जाते हैं। एक समय आता है जब सांझ में हमें अपना वो अपना ईश्वर बहुत करीब नज़र आने लगता है ---।

कितनी मिठास है ना ---इस घर शब्द में


घर यूं ही तो नहीं बन जाता। हरेक  मन के किसी कोने में अपना घर और उसकी तस्वीर रखता है। इसकी पहली झलक जीवन के कई वसंत बाद नज़र आती है। मन का घर, विचारों का घर, अहसासों का घर, सपनों का घर, अपनों का घर---। कितनी मिठास है ना ---इस घर शब्द में। अपना दालान, अपनी छत जैसे अपने हिस्से का आसमां, अपने हिस्से की हवा। एक-एक ईंट हमें अपनी उम्र के घंटों और मिनटों जैसी प्रिय लगती है। हमारा पहला कदम घर कीओर नहीं अपने मन की ओर होता है। पहले कदम की खुशी 😃 का अहसास पूरे मन से करें, घर को जीएं, उसे संस्कारों से सिंचित करें ---। अकेले में सही घर से बतियायें, अपनी कहें उससे अपने मन की बात करें। आपसे कहूं कि ये घर आपके साथ जीता है, आपके दर्द को महसूसता है और आपकी खुशी में गुदगुदाता है। अब खुशियों का घर यदि शब्दों में परिभाषित किया जाए तब आपको वह सबसे प्रिय महाग्रंथ लगेगा....सहेजकर रखियेगा देखिये आपका घर मुस्कुरा रहा है। 

दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी भूमिगत जलसंरचना कुंडी भंडारा

 




































मुगलकाल में बनी जलसंरचना

- आओ हाथ बढ़ाएं, जल विरासत को बचाएं 

ये प्रकृति और उसके अंदाज...महसूस तो कीजिए...। ये अपनी विरासत खुद है और इसके नेह की अनगिनत धाराएं हैं...। जमीन के ऊपर और नीचे...। हम समझ पाए तो प्रकृति को दर्शन मानकर उसे महसूस करने की कोशिश करते हैं और यदि समझकर देख पाए तो (कुंडी भंडारे) जैसा आशीष पा जाते हैं... जी हां, प्रकृति की जल विरासत...। मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक शहर बुरहानपुर के लिए कुंडी भंडारा गौरव का शीर्ष है। सोचिए तो सही कोई शहर जिसकी पहचान पानी और उसकी भूमिगत संरचना हो ...तो वो इस विश्व के साथ मानव सभ्यता के लिए भी एक जीवंत प्रेरणा का स्वतः उदाहरण हो जाता हैं। हमें इस गौरव का अहसास होना चाहिए कि हम वो हैं जो इस अदभुत और अकल्पनीय जलसंरचना कुंडी भंडारा के साक्षी हैं...। तकरीबन 400 साल पुरानी इस जलसंरचना में अब जल का बहाव कम होना चिंता बढ़ा रहा है। जल विरासत पर कैल्शियम कहर बनकर टूट रही है, स्वतः जल संचार के मार्ग इस संरचना के झीरे अब इस जिद्दी कैल्शियम-मैग्निशियम परतां के नीचे दम तोड़ने लगे हैं। यदि जलसंरचना में पानी का बहाव थम गया...तब यकीकन ये हमारी चेतना की हार होगी। ये वो पराजय होगी जिसे हमारी पीढ़ियां भी माफ नहीं करेंगी...। बेहतर है चैतन्य मन और विश्वास से हाथ आगे बढ़ाएं और प्रत्येक अपनी जिम्मेदारी मानकर इस अद्वितीय जलसंरचना को बचाने, सहेजने के लिए कार्य करने का संकल्प लें...। 

1615 ईसवीं का उपहार- पहली ईरान में, दूसरी भारत में 

- मुगल बादशाह अकबर के नौ रत्नों में एक अब्दुल रहीम खानखाना को इस संरचना के बारे 1612 ईसवीं में पता चला और उन्होंने 1615 में यहां एक जलसंरचना का निर्माण करवाया, चूना और पत्थरों से सुदृढ़ सुरंग बनाई गई। सतपुड़ा की पहाड़ियों का जल रिसकर इस संरचना में और वहां से ये नगर तक पहुंचता रहा है। ..जैसा कि अब तक सूचनाएं मिल पाईं हैं इसका निर्माण ईरान के कारीगरों ने किया। ये दुनिया की दूसरी और भारत की इकलौती भूमिगत जलसंरचना है...। विश्व में पहली भूमिगत जलसंरचना ईरान में थी, वो सूखकर खत्म हो चुकी है।  

कम होता जल रिसाव 

- इसकी विशेषता ये है भूमिगत जलसंरचना में कुल 101 कुंडियां थीं, लेकिन उनमें से कुछ धंस चुकी हैं। वर्तमान में इससे शहर के उपनगर लालबाग की आबादी को जल आपूर्ति की जा रही है, हालांकि अब इसमें कैल्शियम की परतें बढ़ने से पानी का रिसाव कम होता जा रहा है जो चिंता का गहरा सबब है और इसे सहेजना अहम और जिम्मेदार चुनौती है। 

स्वतः तैयार हुईं ये जिद्दी परतें 

- सालों से पानी के प्रवाह के कारण यहां कैल्शियम और मैग्निशियम की परतें स्वतः ही तैयार हुई हैं...हालांकि इन परतों के बीच से बहता हुआ पानी बेहद सुंदर प्रतीत होता है लेकिन यहां इसी के कारण विरासत मुश्किल के दायरे में आ खड़ी हुई है।

परतें हटेंगी तभी जल प्रवाह बढ़ेगा

- 1999-02 में उत्तरप्रदेश जलबोर्ड की टीम ने यहां सर्वे किया था और उनकी रिपोर्ट के अनुसार जब तक यहां से ये परतें नहीं हटेंगी तब तक जलस्तर और उसका प्रवाह बढ़ेगा। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि कैल्शियम-मैग्निशियम की परतों को नहीं निकाला जा सकता...लेकिन अब भी इस दिशा में प्रयास जारी हैं...उम्मीद है कोई हल खोजा जाएगा जो जल को उसकी उन्मुक्त राह दोबारा सके।  

यूनेस्को तक दस्तक

- इसे विश्व की धरोहर में शामिल करने के प्रयासों के तहत 2007 में यूनेस्को की टीम बुरहानपुर पहुंची थी लेकिन कुछ छोटी-मोटी खामियों के कारण तब विश्व धरोहर में ये शामिल नहीं की जा सकी। 

80फीट जमीन के नीचे पानी का राज

- जो इस संरचना में गहरे उतर चुका है उसका अपना अनुभव है। ऐसे ही कुछ लोगों से जब बात हुई तो उनका कहना था कि नीचे पहुंचकर लगता है कि आप एक ऐसी विरासत से रुबरु हो रहे हैं जो हमें जमीन के उपर कभी नजर नहीं आएगी...यहां प्रकृति ने अपना साम्राज्य पानी को सौंप रखा है। जमीन से लगभग 80 फीट की गहराई में उतरने के लिए कुंडियों की खोह जैसी गुफा के रास्ते दाखिल होना पड़ता है और वहां से पानी की जल संरचना नजर आती है। यहां के पानी की वाकायदा जांच भी करवाई गई हैं उनसे ये बात सामने आई है कि इसका पानी मिनरल वाटर से भी अधिक शुद्व है। 

प्रतिवर्ष हों...जल महासम्मेलन 

- ये केवल बुरहानपुर नहीं बल्कि देश और दुनिया की विरासत है। चिंता और चुनौती कैल्शियम और मैग्निशियम की परतों के तौर पर मुश्किल होती जा रही है, झीरियों का दम घुट रहा है। इसे बचाने के लिए मिलकर चलना होगा। हमारा जज्बा इसे पीढ़ियों तक जीवित रख सकता है। इसे सहेजने और इसकी बेहतर राह के लिए यहां प्रतिवर्ष जल महासम्मेलन होना चाहिए। जिसमें देश और दुनिया के जलविद् और जमीनी पानी पर कार्य कर रहे लोगों को शामिल होना चाहिए ताकि इस दिशा में एक समग्र अभियान जमीनी तौर पर गति पा सके, हालांकि जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधि यहां बेहतर करने का प्रयास समय-समय पर करते रहे हैं। लगभग 17 वर्ष पहले यहां के पूर्व पार्षद नफीस मंशा खान और उनकी टीम ने इस दिशा में सराहनीय कार्य किया था जिससे बंद हो चुके पांच कुएं और झीरों को नया जीवन मिला था लेकिन इतना ही काफी नहीं है इसके लिए राज्य, केंद्र सरकारों के अलावा जल और भूजल के जानकारों को भी आगे आना होगा। 

(सभी फोटोग्राफ- मुन्ना पठान, खंडवा, मप्र) 

उस आंसुओं वाली जगह पर बहुत कोलाहल था



 

सुबह के साढे चार बजे थे, मैं हरिद्वार के स्टेशन पर अवाक सा देखता रहा दीवार पर बनाई गई इस पेटिंग को देखकर। कलाकार की गहराई और कार्य को देख रहा था, अकेला और बहुत अकेला। भीड बहुत थी, आवाजाही के बीच मैं बहुत अकेला था उस कलाकार की तरह जो उसे बना चुका था और जो उसे बनाते समय जिस एकांत में जी रहा होगा। सोच रहा था कि कलाकार किसी दीवार पर वृद्वा की पथराई आंखों में जब आंसुओं को उकेर रहा होगा तब उसका मन भीगा हुआ रहा होगा, संभव है कोई वृद्वा या अपना सा कोई वाकया उसे छूकर गुजर गया हो। उस दीवार पर रंग भी थे, लेकिन आंसुओं का सैलाब भी। मैंने छूकर देखा कि दीवार भी क्या पसीजी हुई थी, पाया कि उस आंसुओं वाली जगह पर बहुत कोलाहल  था। आप देखियेगा इस आर्ट में वृद्वा की आंखें...आपको मेरी तरह ही अनुभूति होगी। मैं उस कलाकार को महसूस करने लगा कि आखिर इतना दर्द उसके मन में था या वह यूं ही उकेर गया, क्योंकि दर्द उकेरना आसान नहीं होता क्योंकि उसके उभरने पर मन में गहरी टीस भी उभर आती है अक्सर। आखिर क्या रहा होगा उस कलाकार के दिमाग में आखिर उसने उस उम्र की उस महिला को उस दीवार पर बसाते हुए क्या सोचा और कितनी देर वह उसके दर्द को जी सका होगा। वृद्वा की उम्र और आंखें अक्सर आंसुओं को सोख लेती हैं लेकिन यहां आंसू आकार लेकर भी सूखे नहीं, वरन दीवार ने दर्द को जगह दे दी अलबत्ता वह भी दर्द से पसीज गई लेकिन खामोश हो गई। मैं देखता रहा, लोग आते रहे जाते रहे लेकिन किसी ने उस वृद्वा और उस आर्ट की ओर नहीं देखा, दर्द मैं और वह कलाकार साथ लेकर वहां से लौट आए, दीवार पर वह वृद्वा अब भी है, आंसू भी हैं, वे इतने जीवंत और गहरे हैं कि अपनी ही कहते हैं, हम उनके आगे कुछ कह नहीं सकते...। मेरी आंखें कलाकार को खोजती रहीं, अब तक खोज रही हैं कि आखिर ये तस्वीर जिसने भी बनाई है, दीवार पर उकेरी है उसने उस वृद्वा के आंसुओं और दर्द का आखिर क्या किया...जानना चाहता हूं...?

पर्यावरण और जीवन पर तम्बाकू का खतरा

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर डब्ल्यूएचओ ने अपनी एक रिपोर्ट पर ध्यान दिलवाते हुए स्पष्ट चेताया है कि भविष्य में तम्बाकू से हो रहे पर्यावरणीय औ...