धन्य है हमारी संस्कृति

 


धन्य है हमारी संस्कृति और पावन है हमारी प्रकृति। कैसा अदभुत संसार है। हमारे पर्व मौसम के बदलने के साक्षी होते हैं। सूर्य की दिशा, उसके नए रास्ते और उससे हमारे जीवन में परिवर्तन। ये सब सुखद जीवन चक्र है जिसे हम स्वीकारें या नकारें लेकिन ये सब यूं ही स्वतः संचालित होता है। हम पढ़ लिख कर बेशक शब्द ज्ञान में बेहद आगे हो गए हैं लेकिन हम प्रकृति को नहीं पढ़ पाए। उसके सबक और ज्ञान के आगे सब अधूरा है, जो इसे पढ़ पाया वो मूल के आरंभिक बिंदु को महसूस कर पाया है। हम उस तत्व को समझने की बेहतर ताकत रखते हैं क्योंकि हम भारतीय हैं। 

ये दौर ही कुछ ऐसा है...



ये तस्वीर पुरानी है लेकिन आज को चीख चीखकर बयां कर रही है...। कोई दो बूंद खुशी से बेज़ार है कोई नहा रहा है खुशियों की बरसात में...। दरअसल हम अपने बनाए.सिस्टम को केवल महसूस करें...अच्छा लगे और जंच जाए तो फिर खूब नहाईये कौन रोकता है, भाई बुरा लगे दूर खड़े होकर केवल निहारिए... क्योंकि तब आप केवल मूक दर्शक होंगे...। यहां भैंसों से खासकर गर्मी में झुलसते बेपानी लोग चिड़ने लगेंगे लेकिन ये व्यर्थ है क्योंकि भैंस अपनी बुद्धि कहां रखती है  बुद्धिमान तो मालिक है जिसे सिस्टम समझ आता है...। अब आप तय कीजिए...क्या चाहते हैं...

प्यास की बिसात पर सूखता बुंदेलखंड


 

देश में वैसे तो कई राज्य हैं जो जलसंकट को हर वर्ष भोगते हैं लेकिन बुंदेलखंड का दर्द कुछ अलग है, ये क्षेत्र जो कभी अपने पानी, तालाबों के लिए पहुंचाना जाता था अब समय ने इसके चेहरे पर सूखी लकीर खींच दी है। बुंदेलखंड पानीदार से सूखा और प्यासा आखिर कैसे हो गया और इसके कारण क्या थे उन्हें समझना बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन एक और प्रमुख बात है और वह यह कि बुंदेलखंड क्या राजनीति की बिसात पर हर बार और बेहद सहजता से पिट जाने वाला प्यादा बन चुका है जिसका उपयोग केवल चुनावों में जीत तक ही किया जाता है, हर चुनाव में बुंदेलखंड में बिसात पर प्यास ही रहती है, यहां के रहवासियों से पूछियेगा तब वे बताएंगे कि हर चुनाव में वे शब्दों के पानी से खूब लबरेज हो जाया करते हैं लेकिन चुनाव बीतते ही उनके भरोसे का पानी सूख जाता है, अब भरोसे में भी सूखे की तरह दरार पड़ने लगी है। आखिर बुंदेलखंड सूखता रहा और सत्ताएं परिवर्तित कैसे होती रहीं, कभी भी किसी ने भी बुंदेलखंड के भाग्य से सूखे की वह लकीर मिटाकर उसे हरा भरा करने का जिम्मा क्यों नहीं उठाया। बुंदेलखंड राजनीति बिसात पर तो हर बार पराजित सा महसूस करता आया है क्योंकि इसे पूरी तरह पानीदार बनाने के वायदे कभी भी जमीनी हकीकत में परिवर्तित नहीं हो पाए हैं। एक और महत्वपूर्ण कारण है क्योंकि यहां तालाबों वाले हिस्सों पर अतिक्रमण भी एक अहम मुददा है। बहरहाल बुंदेलखंड वह भोग रहा है जो उसके हिस्से आ गया है, लेकिन क्या ये जलसंकट केवल बुंदेलखंड तक है, नहीं ये पूरे देश के अनेक राज्यां का मुख्य संकट साबित होता जा रहा है, हालात बिगड़ते जा रहे हैं, मौसम साथ नहीं दे रहा, तालाब नहीं हैं, जहां हैं तो उनका रखरखाव नहीं हो पाता है, ये कहा जा सकता है कि संकट महासंकट की ओर अग्रसर है और हमारे प्रयास मुट्ठी भर हैं जिन्हें बहुत बड़े स्वरूप में अब तक परिवर्तित हो जाना था। हम इस अंक में महासंकट को उठा रहे हैं, बुंदेलखंड के साथ उसकी तरह तैयार होते देश के दूसरे हिस्सों को हमने इसमें शामिल करने का प्रयास किया है, मूल ये है कि हम संकट से जनसामान्य को अवगत कराना चाहते हैं, उनमें जागरुकता लाना चाहते हैं साथ ही नीति नियंताओं तक भी एक संदेश देना चाहते हैं कि ऐसे हिस्सों के लिए जल्द महत्वपूर्ण प्रयास आरंभ हों, सूखते हिस्से, सूखते राज्य, सूखते लोग और सूखता देश कभी भी विकास की कोई गाथा नहीं लिख सकता...आईये बदलने के लिए एक जुट होकर इस दिशा में कार्य करने का संकल्प लेते हैं और लिखिये अपने तंत्र को कि उन्हें पानी चाहिए, तालाब चाहिए, तालाबों का रखरखाव चाहिए और चाहिए एक पानीदार भविष्य।  


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      अखिल हार्डिया जी

(फोटोग्राफ आदरणीय अखिल हार्डिया जी है, हार्डिया जी दैनिक भास्कर, इंदौर में फोटो एडिटर रह चुके हैं, वे वर्षो से वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी कर रहे हैं)


हम शर्मसार होंगे क्योंकि हमारे हाथ रीते हैं


आने वाला कल कैसा होगा कोई नहीं जानता लेकिन ये सभी समझ गए हैं कि वह बहुत ही चुनौतीपूर्ण होने वाला है, सोचिएगा कि इस दौर के बच्चे जब कल पूछेंगे हमारे दौर के विषय में तो हमारे उन्हें दिखाने के लिए क्या है...कोरोना जैसी महामारी, नदी में तैरते शव, नदी की रेत में गाढ़ दिए गए अपनों के ही शव, ऑक्सीजन की कमी में हांफते लोग, दवाओं की चिंता, बिलखती तस्वीरें, जलती चिताएं, अस्पताल के बाहर कतारें, घरों में कैद हम, वैश्विक अस्थिरता,  गरीबी से नीचे नर्क ढोते परिवार, अपराधों की भरमार, चीखते चैनलों की वीडियो क्लिप, भूकंप, तूफान, बेरोजगारी, दम तोड़ती योग्यताएं, सूखते कंठ, पानी का कारोबार, परेशान भीड़ पर ठहाके लगाता बाजार, दहकते हुए जंगल, ठंड में टूटते ग्लेशियर, फटते बादलों से निकला प्रकृति का क्रोध, घटते पक्षी, बढ़ता तापमान, प्रदूषित वायु, गगनचुंभी इमारतें, घुटते सपने और न जाने कितना है जो यहां लिखा जा सकता है। 

क्या आप नकार पाएंगे इस सच को। क्या आप जवाब दे पाएंगे अपने बच्चों के प्रश्नों की कतार का। दरअसल हमारे पास कुछ है भी नहीं, जो है वह बहुत थोड़ा है यदि हम कहें कि हमने विकास किया हम हाईटेक हो गए, यदि हम कहें कि हमने चिट्ठियों के युग से आज डिजिटल युग पर आ पहुंचे हैं, यदि हम कहें कि हमने दुनिया को करीब लाने का कार्य किया है, लेकिन ये हममें से हरेक व्यक्ति जानता है कि हमारे इन वादों ने हमें कितना जीवन दिया है और कितनी जीवन की उम्मीद छीनी है, रिश्तों में खारापन पैदा किया है, जीवन में सूखा भरा है, एकांकीपन का जहर घोला है। यदि हम कहें कि हमने विकास किया तब संभवत बच्चों का सवाल होगा कि फिर कोरोना से हार क्यों गए, क्यों समय से उसका इलाज नहीं खोज पाए...आप अनुत्तरित हो जाएंगे। आप यदि कहेंगे कि हम डिजिटल के युग में आ पहुंचे तब बच्चे कहेंगे कि फिर पारिवारिक दूरिया क्यों बढ़ी। यदि आप कहेंगे कि हमने दुनिया को करीब लाने का कार्य किया तब बच्चे पूछेंगे कि उस आभासी दुनिया की करीबी किस काम की जब आप हर कदम हार गए, जब आप एक दूसरे से मिले नहीं दूरियां बढ़ गईं, आप केवल आभासी दुनिया में जीते रहे, खुश होते, रिश्ते और मित्रता मजबूत करते रहे। बहुत से सवाल होंगे और बेहद तीखे होंगे, कैसे करोगे सामना उनका, वे पूछेंगे क्योंकि अगली पीढ़ी के सवाल और पिछले पीढ़ी के जवाबों का आमना सामना अवश्य होता है, उस समय हम केवल लज्जित होंगे क्योंकि वाकई हमने एक अच्छी प्रकृति, एक अच्छा विकास, एक भरोसे वाला समाज, एक स्वस्थ्य उम्मीद वाला जीवन नहीं बुना, हम बाजार के अनुसार सबकुछ बुनते गए, वह हमारे घर के बैडरुम से लेकर रसोई तक में दाखिल हो गया और हम उसका अनुसरण सहर्ष स्वीकार करते रहे, आखिर हुआ ये कि बाजार क्रूर होता चला गया उसने आपको हर तरह से अवशोषित करना आरंभ कर दिया, आप हारने लगे लेकिन फिर भी आप उसके पीछे चलते रहे क्योंकि आप अभ्यस्त हो चुके थे, आप अपनी राह बनाना भूल चुके थे, आप प्रकृति से कोसों दूर जा चुके थे ऐसे में ये सब तो होना ही था....बहरहाल चलिए इंतजार करते हैं कि आने वाले साल और समय हम इन संकटों से सीखते हैं और सुधार की ओर दु्रतगति से अग्रसर होते हैं या फिर यही चाल और यही ढाल हमें अपनानी है, ये तो समय बताएगा...लेकिन तैयार रहिये आज आपका तरकश खाली है क्योंकि आपकी चेतना भी गिरवी रखी ली गई है, अब केवल धुंधली राह है और उस पर चलने का आपका हुनर जो बाजार तय कर रहा है...देखते जाईये आगे आगे होता है क्या...। लगता है उस अहम समय में हम शर्मसार होंगे क्योंकि हमारे हाथ रीते हैं...और हमें सुधार में एकजुट होना नहीं आता, हमें बेहतर चुनना नहीं आता, हमें सच को स्वीकार करना भी नहीं आता। दरअसल हम अपने ही जाल में फंस गए हैं, हम अपने ही जीवन को जाल की तरह बुनते रहे और अब हम उसमें उलझन सी महसूस करने लगे हैं। 


एक अच्छी तस्वीर का इंतजार...


अमूमन आप कैमरा हाथ में पकड़ते हो और फोटोग्राफी की फीलिंग आने लगती है, आनी भी चाहिए लेकिन एक अच्छी तस्वीर इंतज़ार के बाद मिलती है...आपके पास कैमरा भी है नज़र भी है बावजूद इसके वो एक अच्छी तस्वीर की भूख नहीं मिटती...। अच्छी तस्वीर के मायने हैं जिसके क्लिक होते ही अहसास हो कि मन खुशी से भर गया और कैमरा, मन, आंखें और नज़र का एक तारतम्य बना और एक साथ क्लिक पर फोकस हुआ...बस फिर क्या था... एक तस्वीर आपके सामने थी...। कहा जाता है फोटोग्राफी के लिए कैमरा महत्वपूर्ण नहीं है, नज़र खास होना चाहिए... देखने का एंगल (नजरिया) जरूरी है...। मैं नेचर फोटोग्राफी करता हूँ मुझे अधिक धैर्य तब रखना पड़ता है जब पक्षियों को बतियाते देखता हूँ और उन्हें उसी अंदाज में तस्वीर बनाना चाहता हूं... खैर फोटोग्राफी यदि आपका शौक है तब यकीन मानिए कि आप प्रकृति के करीब स्वतः ही हो जाते हैं... फूल बतियाते ही नहीं बीच में खिलखिलाते भी हैं... पक्षी भी कई खूबसूरत अंद़ाज दिखाते हैं...आपके मन पर धैर्य जरूरी है क्योंकि एक अच्छी तस्वीर एक अच्छी जिंदगी जीने और अच्छे सपने के पूरा होने का ही सुख देती है...। आईये मन की नज़र पर रखें नज़र कि काश कोई ख्वाब तस्वीर हो जाए...।

बहुत सा अनकहा खोजा नहीं जा सकेगा उम्रभर



 कैसा दौर है कि अचानक आई उम्र की इस ठिठकन में कोई भी अपना करीब नहीं था, सोचिएगा कि कितना कुछ अनकहा सा रह गया हो जिसे वह जो इस दुनिया में अब नहीं हैं बताना चाहते होंगे और उसे उस महत्वपूर्ण समय में सुनने वाला कोई नहीं होगा। ये कैसा अकेलापन और ये कैसा खौफनाक अंत। व्यक्ति पूरी उम्र को रेशे-रेशे से बुनता है, रिश्तों को उम्मीद से सींचता है, उम्मीद टांकता है लेकिन ऐसी एक ठिठकन सबकुछ मिटा गई। सोचिएगा कि उस आखिरी वक्त कितनों के गले रुंध गए होंगे, आवाज गले तक आकर ठहर जाती होगी, नजरें बार-बार अस्पताल के दरवाजे पर जाती होंगी, मन भागने को करता होगा, मन ये भी करता होगा कि लिख ही दूं कि क्या रह गया, कौन सी जिम्मेदारी कहां अटकी रह गई, कौन सा सच अधूरा सा ही बता पाया, कौन सी रणनीति बताने का समय आने वाला था लेकिन अब ये हाल...। घर में कहां क्या रखा है, किसे क्या दे रखा है किससे क्या लेना है, जीवन के लिए बुनी गई सुविधाओं का कौन सिरा जरुरी था जो परिवार के जिम्मेदार व्यक्ति में स्थानांतरित होना था लेकिन नहीं हो पाया, कौन सा सिरा छूट गया इस तरह और टूट गया। जमीन के पेपर, गांव का घर, करीबी सा दोस्त, बच्चों का जीवन, उनकी तरक्की, पत्नी को दिया गया भरोसा कि बुजुर्ग होने पर साथ घूमेंगे हाथों में हाथ डालकर कहीं छिटक गया, चीख और खीझ कई बार निकली होगी, बिस्तर पर चादर को मुट्ठी से कसकर पकडे़ जाने पर उभरी हुई सिकुड़न इस बात की गवाह होगी कि दर्द कितनी बार रह रहकर उठा होगा। कौन जाने कौन सा दर्द वे साथ ले गए और कौन सी खुशी जो वे बांटने ही वाले थे परिवार के साथ। आंखों की कोरों में मोटा सा नमक भी साथ ले गए जो जमा होगा इतने दिनों के आंसुओं के लगातार बहने से...। ओह कौन समझा होगा उस दर्द और कितनी ही ऐसी अनकही बातें हमेशा के लिए खो गईं जिन्हें ताउम्र खोजा नहीं जा सकेगा। 

परिवार की बात करें तो वे अलग तरह से रोज टूटे हैं, उनकी चटखन भी दर्द से भरी है, देखने की बेबसी, मिलने की बेबसी, उनके दर्द में उन्हें ढांढस न बंधा पाने की बेबसी अंदर तक गहरे जख्म कर गई है, इसने रिसता रहेगा दर्द सालों तक, टीस भी उभरेंगी रह रहकर। ओह...ये दौर क्या दे गया और क्या ले गया...। मन खिन्न भी है और मन टूटा भी हुआ है, कहीं कोई हिस्सा साबुत है और कह रहा है कि काश उस भागती जिंदगी में एक बार साथ बैठ गए होते बाबूजी के...मां के, बहन के, पत्नी के, पति के, बच्चे के...ओह रिश्तों का दामन आंसुओं से भीगा है, मन में गहरी सीलन है....और वहां हवा भी नहीं जा सकती क्योंकि उसमें भी जहर घुला है....।


इससे तो बेहतर था धरातल में समा जाती नदी



क्या आखिरकार अब स्वीकार कर लिया जाना चाहिए कि हमारी मानवीयता की सामूहिक हार हो चुकी है, हम वैचारिक तौर पर हार चुके हैं, हम भयाक्रांत होकर विवश हो गए हैं और सबकुछ हमारे हाथों से फिसल रहा है, अगर ये सच नहीं है तो जीवन देने वाली नदी क्यों भोग रही है शवों का भार, क्या ये हमारे तंत्र की हार है ? आखिर ये अपराध किसका है कौन है जिसने नदी में शवों को प्रवाहित कर इस दौर में मानवीयता को गहरा आघात पहुंचाया। दुखों के भंवर में जीते लोगों को ऐसे दृश्य हजार बार मार रहे हैं, लेकिन इस महामारी के दौर ने ऐसे दृश्य भी दिखा दिए हैं जिन्हें कोई भी याद रखना नहीं चाहेगा लेकिन मैं कहता हूं आप इसे सदियों भुला भी नहीं पाएंगे, संस्कारों के साथ अब दर्द पीढ़ियों तक पहुंचेगा। नदी में आखिर शवों को प्रवाहित क्यां किया गया ? क्या उन परिवारों की भी सोची है जिनके शव नदी में बहा दिए गए क्या वे अब भी इंतजार कर रहे होंगे...? ओह...मत कीजिए ऐसे कर्म कि मानवीयता बुरी तरह थर्रा उठे। ये दौर बहुत से विषयों पर सोचने का है...विचार करने का है, मंथन करने का है...। मेरा कहना है कि नदी जीवन है उसे मौत मत दिखाओ, शव मत दिखाओ क्योंकि उसका रहना बहुत जरुरी है इस धरा पर। ये ऐसा अपराध है जिसमें मानवीयता शर्मसार है, अब तो हम नदी के भी अपराधी हो गए हैं। हमारे इस दौर में प्रदूषण ढोती नदी हमसे सुधार की उम्मीद आखिर करे भी कैसे जबकि वह जानती है कि हमारे अंदर मानवीयता को रेगिस्तान आकार ले चुका है। सोचियेगा कि शवों की नदी से हम जीवन किस तरह मांग सकेंगे। ऐसे समाज में रहने से तो बेहतर था कि नदी धरातल में ही समा जाती। 

समय तो लिखेगा कि इस दौर में कौन लापरवाह रहा, कौन ढोंगी, कौन कलुषित विचारों वाला, कौन खामोश रहा, कौन बाद में चीखा, कौन जिसने अपनों को खोया और फिर भी नहीं खोया आपा, कौन जिन्होंने सबकुछ खोकर भी जीवित रखा भरोसा, कौन चीख रहा था, कौन छाती पीट रहा था, कौन भाग रहा था अपनों से, कौन भाग रहा था जिम्मेदारियों से और कौन था जो इस दौर में जीवट बनकर आ डटा, कौन था जिसने दिखाया कि केवल अर्थ ही सबकुछ नहीं होता उस अर्थ के पीछे भी एक अर्थ होता है जीवन का और मानवीयता का, कौन इस दौर में राजनीति करता रहा, कौन इस दौर में मानवीयता दिखाकर परेशान मानव जाति का दर्द सहता रहा, कौन हारा और कौन जीता, कौन...कौन...कौन आखिर कौन...?

कैसा दौर है जब केवल कराह सुनाई दे रही है, नदियां पाप धोते धोते अब शवों को ढोने लगीं, कैसा दौर है कुछ इस दौर में भी लूट रहे हैं, कुछ इस दौर अपना खजाना खोलकर बैठे हैं। चीत्कार नहीं लिखना चाहता क्योंकि वह तो हरेक के मन में, शरीर के हर हिस्से में और इस मस्तिष्क में कहीं गहरे समा गई है। रोते लोग, चीखते लोग समय लिखेंगे, आप यकीन मानिये कि मौन बेकार नहीं जाएगा, ये पूरी ताकत से चीखेगा जिन्होंने अपनों को खोया है वह केवल शरीर होकर अपने आप में जब्त होकर रह गए हैं, उनकी आत्मा असंख्य सवालों से दबी हुई है, छटपटा रही है, सवालों की लंबी फेहरिस्त है, हरेक के पास। जवाब नहीं है, जवाब का ये है कि यदि वह समय से दिया जाए तब मन में गहरे जाकर बैठता है लेकिन जब जवाब समय के बीत जाने के बाद दिया जाता है तब वह अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। 

मैं यहां बात करना चाहता हूं राजनीति पर तो बहुत अच्छी छवि इस दौर में वह नहीं बना पाई है, मानवीयता कहती है कि जब जीवन पर संकट हो तब राजनीति को नीति में तब्दील होकर सोचना आरंभ कर देना चाहिए, किसी भी तरह की खींचातानी, आरोप प्रत्यारोप इस दौर में...? जो लगा रहे हैं उनसे सवाल है कि ये दौर संकट के समाधान को खोजने का है या दोयम दर्जे की राजनीति करने का है ? जिन्हें जिम्मेदारी दी गई है उन्हें नेतृत्व करना चाहिए और इस संकट में फंसे हरेक व्यक्ति के सवाल के जवाब देने चाहिए, उन्हें वह सब मुहैया करवाया जाना चाहिए जो अब तक नहीं मिला है, जीवन रहेगा तब राज भी रहेगा और उसका सुख भी लेकिन बिना जीवन कैसा राज और कैसा तंत्र। निवेदन है रोते और चीखते हुए तंत्र पर तो गिद्ध भी अपनी नजर गाढ़ने से पहले दो पल सोचता है, हम तो इंसान है उस ईश्वर की सबसे भरोसेमंद कृति। आप क्यों कर इस दौर में नीति से राज को अलग नहीं कर पा रहे हैं...शर्म कीजिए कहीं ये दौर आपके चेहरों पर नाकामी की ऐसी स्याह कालिख न पोत दे जिसे आप चाहकर भी कभी धो ना पाएं...मत कीजिए...सुनिये चीखें और उनके मर्म को...ये दौर वह है जब सभी की निगाहें आपकी ओर हैं...दिखाईये कि आपको चुनकर देश ने गलती नहीं की है...या ओढ लीजिए खामोशी कि उसके बाद कोई सवाल नहीं होंगे, केवल घूरती आंखें होंगी आपकी ओर। 

मैं यहां बात मीडिया की भी करना चाहता हूं आज मीडिया मुखर है, चीख रहा है और उस चीख में दर्द भी है और चीखने वालों की आवाज भी, मैं यहां पूरी मीडिया पर बात नही कर रहा हूं लेकिन मीडिया के एक धडे़ पर बीते समय में ये आरोप खूब लगे हैं कि वह खामोश हो गया, मुझे भी लगता है कि कहने और कहने में बहुत अंतर होता है, एक बात कई तरह से कही जा सकती है, महत्वपूर्ण बात ये है कि आपकी जुबान उसे किस लहेजे में बोली या अपकी कलम उसे कितने गहरे तक टटोल पाई लेकिन जब आपकी जुबान पर सवाल होने थे, तब आपकी जुबान पर खामोशी कुछ अधिक दे ही ठहर गई या शब्द भी आए कि जिम्मेदारों को ये अहसास ही नहीं हो पाया कि वे दोषी हैं और उन्हें क्या करना चाहिए कैसे आप उस दौर को लौटा पाएंगे, कैसे उस खामोशी को आप बिसरा पाएंगे, कैसे उस दौर की खामोशी को महसूस कर चुके लोगों और जिन्होंने सबकुछ खो दिया और वे आपकी इस खामोशी पर आपको देखना, सुनना, पढ़ना छोड़ चुके हैं उस सच को कब तक झुठला पाओगे। मैं लिखूं या न लिखूं, कोई कहे या नहीं कहे, कोई आपकी खामोशी को खामोशी कहे या उसे कुछ और कह दे लेकिन ये समय तो देख रहा है, ये समय तो लिखेगा एक दिन और जब ये लिखेगा तब आपकी खामोशी भी गहरे अक्षरों में रेखांकित की जाएगी। मीडिया पर इतने गहरे आरोप इसी दौर में लगे हैं, मैं यहां किसी का भी नाम कोड नहीं करना चाहता क्योंकि ये तो अंर्तआत्मा की आवाज है जो एक बार सुनाई अवश्य देती है। यहां एक बात बहुत स्पष्ट कहना चाहता हूं कि मीडिया में से कुछ थे जो लगातार चीख रहे थे उस सच को जो पूरी ताकत से उस दौर में चीखा जाना चाहिए था। समय गवाह है कि मीडिया पर यदि ऐसे आरोप समाज के बीच से लगते हैं तब ये शर्मनाक है और क्यांकि मीडिया ही वह प्रमुख केंद्रबिंदु है जो इस सिस्टम को पटरी से उतरते देखता है तो उसे दोबारा पटरी पर ला सकता है, बहुत ताकत है मीडिया में, राहत की बात ये है कि देरी से ही सही लेकिन अब मीडिया महसूस हो रही है इस दौर में। 

हमेशा लांछन सहने वाला सोशल मीडिया इस दौर में बेहद गंभीर और जिम्मेदार साबित हुआ है, सोशल मीडिया पर कम्यूनिटी हेल्प का एक पेज बनाया गया जिसमें लोग एक दूसरे की मदद करते रहे, एक दूसरे से मदद मांगते रहे। सोचियेगा कि सोशल मीडिया इस दौर में वरदान साबित हुआ है कि क्योंकि उसने अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझी और निभाई है। 

एक और प्रमुख विषय है जिसे समय अवश्य लिखेगा और वह ये कि हम कहीं बहुत गहरे पिछड़ गए इस बात को समझने में कि हमें विकास चाहिए तो क्या हम जीवन का कोई बैकअप फोल्डर बना पाए हैं, हम ये समझने में कहीं चूक गए कि हम विकास के पथ पर बहुत आगे निकल गए लेकिन क्या सबकुछ उसी तरह बदल रहा है जैसे हम भाग रहे हैं, हम ये भी समझने में चूक गए कि हमें विकास को कौन सी शक्ल देनी चाहिए क्या वह मानवीयता का हनन कर रहा है या मानवीयता को अंगीकार कर रहा है, सोचियेगा कि ये दौर एक कठिन किताब की तरह है जिसके शब्द हमें ये सिखाकर रहे हैं कि भविष्य उजला तो कतई नहीं है क्योंकि जब दर्द बाजार को बाजार बना लिया जाए, जब आंसुओं पर कारोबार ठहाके लगाने लगे, जब शरीरों को बीमार कर उसमें सीमाओं का विस्तार और सुखों का संसार खोजा जाने लगे तब ये मान लिया जाना चाहिए कि हमें विकास से अधिक अपने आप को मजबूत करने की आवश्यकता है, सोचियेगा सवाल बहुत हैं और आप समझते भी हैं कि कब, कहां और कैसे अपने मौन को आवाज देनी है। 

संदीप कुमार शर्मा, संपादक, प्रकृति दर्शन 


खबर साभार दैनिक भास्कर, पटना 



जून अंक का विषय- वेंटिलेटर पर ऑक्सीजन, हांफता सिस्टम

 

जून अंक का विषय- वेंटिलेटर पर ऑक्सीजन, हांफता सिस्टम

राष्ट्रीय मासिक पत्रिका प्रकृति दर्शन का जून अंक का विषय- ऑक्सीजन (घटती ऑक्सीजन, घुटता दम, बेदम सिस्टम, घुटता दम, वेंटिलेटर पर ऑक्सीजन, हांफता सिस्टम) 

कोरोना संक्रमण काल है और इस दौर में ऑक्सीजन चिंता का एक प्रमुख विषय बनकर हमारे सामने है। ऑक्सीजन के मायने भी समझ आए और प्रकृति की अहमियत भी। हमारे संसार ने जो रचा है उसमें कोरोना भी है और ऑक्सीजन भी...लेकिन ये भी साबित हो गया है कि हमारे आत्मरक्षा के प्रयास कहीं उतने मजबूत नहीं हैं क्यांकि इस दौर ने दिखा दिया कि बिना ऑक्सीजन या ऑक्सीजन की कमी के बाद सिस्टम और जिंदगी कितनी जल्दी बेहद होने लगती है। पूरा का पूरा सिस्टम हांफ रहा है। ये अंक बेहद महत्वपूर्ण है इसमें आलेख आमंत्रित हैं, ऑक्सीजन के संकट पर, प्रकृति की ऑक्सीजन पर, ऑक्सीजन कैसे बढ़े, कैसे हमारा ये सिस्टम ऑक्सीजन पाकर वेंटिलेटर से अपने आप को मुक्त कर पाए। विषय एक है लेकिन लिखने को बहुत है। हम बताएं कि कैसे हम भविष्य में ऐसे किसी भी संकट से बच सकते हैं, कैसे हमें हालात बदलने होंगे, कैसे हमें प्रकृति से सीखना होगा, समझना होगा। 

आपसे निवेदन है कि हमें आपके आलेख संक्षिप्त परिचय और फोटोग्राफ के साथ 20मई तक ईमेल के माध्यम से अवश्य मिल जाएं। 

लिखियेगा क्योंकि ऑक्सीजन के बिना सिस्टम का और हमारे इस संसार का बेदम होना अच्छे संकेत नहीं दे रहा है...लिखियेगा क्योंकि बच्चों का भविष्य संकट में है...। 


Email- editorpd17@gmail.com

Mob/What'sapp - 8191903651


नाविक (लघुकथा)


 लघुकथा...।

एक नाव थी, लोगों को आराम से लाने ले जाने का काम करती थी, सभी उस नाविक के कम बोलने. पर अक्सर तंज कसा करते थे, वह नाविक बिना कुछ कहे केवल मुस्कुरा कर अपने काम में लगा रहता। एक दो बार बड़े तूफान भी आए लेकिन उस नाविक ने अपने कौशल से नाव को डूबने से बचा लिया, ये सभी यात्री भी समझ रहे थे लेकिन फिर भी खामोशी पर सभी टोका करते थे...। एक समय आया जब किनारे एक आदमी अपने आप को बेहतर नाविक बताकर उस खामोश रहने वाले नाविक को बुरा भला कहने लगा। वो चीखकर कहता मैं बेहतर हूँ, नाव खेना जानता हूँ, आपकी सुनूंगा और कहूंगा भी...लोगों को लगा इस नये नाविक के साथ सफर शानदार रहेगा... और लोग उस नये नाविक की मानकर नाव पर सवार हो गए...। नया नाविक खूब बातूनी था, लोगों को मजा आने लगा और उसकी बातों में खो जाते...। सब यूं ही चलता रहा और फिर एक के बाद एक कई तूफान आए, नाव डोलने लगी, लोग भयभीत थे वे चाहते थे नाविक नाव चलाए लेकिन वो मधुर बातों में लगा रहा , एक समय आया जब नाव डावांडोल होने लगी, उसमें पानी भरने लगा, लोग डूबने के डर से चीखने लगे...। वह नाविक अपनी अजीबोगरीब योजनाओं में व्यस्त रहा... लोग चीखने लगे और वो नाविक नाव के खाली हिस्से में पहुंच मंथन करने लगा...। नाव डूबने लगी वो यात्रियों की ओर पीठ कर बैठ गया... कुछ कहने लगे इससे तो बेहतर वही था संकट से निकाल ले जाता था...। लोग चीखते रहे और अपने हाथों नाव को खेते रहे...जैसे तैसे नाव किनारे पहुंची...। अगली बार वो नाविक फिर बुलाने लगा लेकिन लोग पीठ दिखाकर उस दूसरे नाविक की ओर चले गए...। 

दोस्तों तूफान में नाविक समझदार होना बहुत जरूरी होता है... यह कहानी हमें यही शिक्षा देती है...।

पर्यावरण और जीवन पर तम्बाकू का खतरा

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर डब्ल्यूएचओ ने अपनी एक रिपोर्ट पर ध्यान दिलवाते हुए स्पष्ट चेताया है कि भविष्य में तम्बाकू से हो रहे पर्यावरणीय औ...