‘हरी हो वसुंधरा’ और बारिश से शुरुआत

 



मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर 
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया। 

ख्यात शायर और गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी जी का ये शेर यहां पूरी तरह से मौजू है क्योंकि कोई शुरुआत कहीं जाकर नदी, पर्वत या विशालकाय और घनेरा वृक्ष हो जाया करती है...। अपनी बात आरंभ करता हूं  दोस्तों प्रकृति पर जमीनी कार्य करने के का अपना ही आनंद है, हम यह भी भलीभांति जानते हैं कि प्रकृति पर अब केवल जमीनी कार्य की ही आवश्यकता है, एक जागरुकता जो स्वतः आपके मन तक ये संदेश पहुंचाए कि हां प्रकृति का संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है और इसके लिए हमें आगे आना होगा। वसुंधरा सभी की है और हम उसकी संतान। पावन उददेश्य के साथ 24 जून को दिल्ली रोड स्थित आवास विकास, मुरादाबाद, उप्र से नीम, आंवला, बरगद, पीपल के वृहद स्तर पर पौधारोपण के लिए जनभागीदारी से ‘हरी हो वसुंधरा’ अभियान की शुरुआत हुई। प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका और गोपालदत्त शिक्षण समिति, एनजीओ द्वारा ये अभियान संयुक्त तौर पर चलाया जा रहा है। जी हां एक और मन को जो बात छू गई वह ये कि हमारे अभियान के ठीक 20 मिनट पहले झमाझम बारिश हुई और उसके बाद कुछ देर बाद सूर्य का प्रकाश फैल गया, मौसम खुल गया....और अभियान की शुरुआत हो गई। इस दौरान अतिथि के तौर पर शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार में सदस्य मो. मज़ाहिर खान और नगरनिगम में नामित पार्षद तथा पूर्व सांसद मीडिया प्रभारी हरीश बोरा उपस्थित थे।
मो. मज़ाहिर खान ने कहा कि कोरोना के इस समय ने हमें सिखा दिया है कि प्रकृति की ओर लौटना चाहिए, प्रकृति संरक्षण में हमें अपनी भूमिका का निर्वहन पूरी ईमानदारी से करना चाहिए। उन्होंने कहा ‘हरी हो वसुंधरा’ जैसे अभियान इस समय मानव और प्रकृति दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। संस्था गोपालदत्त शिक्षण समिति, एनजीओ द्वारा किया गया ये प्रयास सराहनीय है और इस अभियान से हम सभी को पूरी निष्ठा के साथ जुड़ना चाहिए। 
नामित पार्षद हरीश बोरा ने कहा कि प्रकृति समझा रही है कि अब जंगल काटने की जगह हमें पौधारोपण पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। अधिक से अधिक पौधे लगाने के साथ इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि हम शत-प्रतिशत पौधों को वृक्ष बनाने की जिम्मेदारी निभाएं। संस्था ने एक शुरुआत की है और इसे अनवरत रखा जाना चाहिए।
एनजीओ के अध्यक्ष बालादत्त शर्मा ने बताया कि हम अधिकांश नीम, आंवला और पीपल के पौधों का रोपण करेंगे। हमें केवल पौधारोपण ही नहीं करना है ये भी समझ होनी जरुरी है कि इस प्रकृति को आखिर किन पौधों की अधिक आवश्यकता है। मुरादाबाद से आरंभ हुआ यह अभियान उप्र के अन्य जिलों और फिर देश के दूसरे राज्यों तक पहुंचेगा। संस्था के प्रकृति संरक्षण को लेकर कुछ और अभियान है जो जल्द आरंभ किए जाएंगे।
एनजीओ के प्रोजेक्ट डायरेक्टर और पत्रिका के संपादक संदीप कुमार शर्मा ने बताया कि हम पर्यावरण को लेकर बेहद संजीदगी से कार्य कर रहे हैं और ये पौधारोपण अभियान उसी का एक हिस्सा है। हमारा मानना है कि हमारी ये वसुंधरा आरंभ में हरी थी, वृक्षों से भरी हुई थी और मौजूदा दौर में ये उससे विपरीत स्थिति में है। हमारा यह अभियान वसुंधरा को हरा करने का प्रयास है। हमारा उददेश्य इस दौरान उन पौधों का रोपण करना है जो प्रकृति को बेहतर होने में सहयोग प्रदान करते हैं इसीलिए नीम, पीपल, आंवला और बरगद को हमने अभियान में प्रमुखता से रोपित करने का निर्णय लिया है, बेशक इनमें जो पौधे हैं वे वृक्ष बनने में कई साल लेते हैं लेकिन ये भी सच है कि एक पौधा जब वृक्ष बन जाता है तब वह लंबे समय प्रकृति के इस मौसम चक्र का हिस्सा हो जाता है। 
इस दौरान आवास विकास पार्कों में नीम, पीपल, आंवला के पौधों का रोपण किया गया। इस दौरान आवास विकास कालॉनी से महेंद्र शर्मा, एम.पी. शर्मा, भुवनेश शाक्य, जाकिर सुरूर, महेश कुमार, गीतांजलि पाण्डेय, श्रीमती एम.पी.शर्मा, डॉ. कमला शर्मा, डॉ. ललिता पाण्डेय, मोहिनी देवी शर्मा, श्री गोपालदत्त शर्मा, दिव्यांशी शर्मा, कनिष्का शर्मा, कृतिका शर्मा सहित  क्षेत्रवासी भी उपस्थित थे, सभी ने पौधारोपण में संस्था के सहयोग का संकल्प लिया।
पौधे भेंट करने आगे आए रहवासी
इस अभियान के बाद आवास विकास के रहवासी पौधारोपण अभियान सतत चलाने के लिए मदद के लिए आगे आए और उन्होंने अपनी ओर से संस्था को बारी-बारी पौधे मुहैया करवाने की बात कही, श्री महेंद्र शर्मा जी तथा श्रीमती गीतांजलि पाण्डेय द्वारा 50-50 पौधे संस्था को उपलब्ध करवाने का आश्वासन दिया गया। पौधारोपण का ये कार्य संस्था द्वारा जनभागीदारी से किया जा रहा है।
आप भी सहभागिता कर सकते हैं
ये अभियान मुरादाबाद, उप्र के आरंभ होकर उप्र, उत्तराखंड के बाद देश के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचेगा। आप भी यदि इसमें सहभागिता करना चाहते हैं या हमारे एनजीओ से जुड़ना चाहते हैं या एनजीओ को पौधे उपलब्ध कराना चाहते हैं तब आप हमसे संपर्क कर सकते हैं। इस अभियान को जनभागीदारी से चलाने का उददेश्य केवल इतना है कि हम एक से दो, दो से चार और चार से हजार होना चाहते हैं, हम चाहते हैं सभी अपने आप में अंकुरित हों और पौधारोपण और प्रकृति संरक्षण के प्रति सजग हों...। 

संदीप कुमार शर्मा 
प्रोजेक्ट डायरेक्टर, गोपालदत्त शिक्षण समिति, एनजीओ
website- www.onlinengo.org
email- gdss2009@gmail.com
what'sapp- 8191903651, 8191903650

 







जय नागड़ा- एक शानदार शख्सियत



 









(आओ सोशल मीडिया को सामाजिक बनाएं-हम लोग )

मैं आज आपको एक गहरे फोटोग्राफर, गहन पत्रकार और उससे भी कहीं बढ़कर एक शानदार चिंतन वाले इंसान से परिचित करवा रहा हूं...। वरिष्ठ पत्रकार और आजतक तथा यूएनआई के संवाददाता तथा मेरी पत्रकारिता को परिकृष्त करने वाले आदरणीय जय नागड़ा जी का 17 जून को जन्मदिन था, उन्हें मैंने कुछ हटकर शुभकामनाएं दी हैं, मैं सोचता हूं कि आप किसी को जानते हैं ये इस बात से पता चलता है कि आप उसे उसके खास दिन पर किस तरह से कोई यादों का तोहफा भेंट कर सकते हैं...और वही मैंने किया...। मैं चाहता हूं कि सोशल मीडिया पर केवल बधाई और शुभकामनाएं ही न दी जाएं....आप किसी को जानते हो तो उसे सभी से परिचित करवाएं उसके श्रेष्ठ कर्म और जीवन की चर्चा सभी से हो...। 

जय नागड़ा जी के  पिता प्रफुल्ल नागड़ा जी वे व्यक्ति थे जिनके व्यक्तित्व ने उन्हें निखारा और तराशा, ये बेहद सहज होकर कहने की बात है कि वे अपने पिता को देखकर बहुत सीखे हैं, प्रफुल्ल नागडा जी ही वे व्यक्ति थे जिन्होंने उन्हें बेहद तराशा है, अंदर से रोपा है, उन्हें अंकुरित किया है, पल्लवित किया है। हालांकि ये आदरणीय जय नागड़ा जी के जन्मदिन का अवसर है और चाहें तो रस्म अदायगी में केवल शुभकामनाएं लिख दी जाएं तब भी कोई हर्ज नहीं है लेकिन मैंने सोचा कि सोशल मीडिया पर कुछ और लिखा जाए...ये शायद एक शुरुआत है और शायद ऐसा होना चाहिए कि हम यदि किसी के जन्मदिन पर शुभकामनाएं दे रहे हैं तब केवल उस एक तिथि को यादकर उसे शुभकामनाएं दे देने भर से कुछ भी खास नहीं होता, उसे और बेहतर तरीके से सोचिएगा कि हम जिसे शुभकामनाएं दे रहे हैं उसकी शख्सियत क्या है और किसके कारण है, कौन है जिसका नाम उनके साथ लिया जाना चाहिए, कौन है जिसे उस व्यक्ति के साथ लिखा जाना चाहिए। अमूमन यहां पिता हो सकते हैं, मां हो सकती हैं, पत्नी हो सकती है या परिवार का कोई सदस्य, कोई दोस्त, कोई परिचित या कोई एक बार मिला और फिर कभी न मिला अंजान सा मुसाफिर...। मैं यहां आरंभ कर रहा हूं इस बार कि मैं जब भी किसी के जन्मदिन पर कोई पोस्ट लिखूंगा तब ये भी अवश्य लिखूंगा कि वह कौन है और किसकी वजह से है...। शुरुआत जय नागड़ा जी से...। 

उनके साथ तकरीबन तीन वर्ष नईदुनिया में कार्य किया है...बतौर पत्रकारिता सीखने के उददेश्य से....बिना किसी पत्रकारिता अध्ययन प्राप्त किए बिना...। खैर, अपनी बात कभी और लेकिन आज बात करते हैं वरिष्ठ पत्रकार जय नागड़ा जी। आज मैं यहां दो फोटोग्राफ पोस्ट कर रहा हूं दोनों ही आपकी फेसबुक वॉल से बिना अनुमति के उठाए गए हैं, प्रेम और भरोसे के वशीभूत होकर। एक फोटोग्राफ है जय नागड़ा जी के पिता प्रफुल्ल नागड़ा जी का जो पार्श्व गायक किशोर कुमार जी के साथ हैं और दूसरा फोटोग्राफ है जय नागड़ा जी का जो मप्र के मुख्यमंत्री रह चुके और बेहद आत्मीय नेता कैलाश जोशी जी के साथ हैं...। बात ये आती है कि जय नागड़ा जी बचपन से पिता को देखते रहे कि वे किस तरह जीवन को सृजित कर रहे हैं, कैसे अपनी कला को कभी कैमरे की नजर से कभी नारियल के मुखौटों में आकार दे रहे हैं। वे पिता को देखते गए और अंदर से सृजित होते गए, कैमरा उस उम्र में थामना जब जिंदगी विरोध सिखाती है, क्रोध सिखाती है उस दौर में कैमरा थामने का साहस और धैर्य प्रफुल्ल नागड़ा से जी से मिला। वे शांत और अपने कर्म में जुटे रहने वाले व्यक्ति के आसपास निखर रहे थे। विरासत मिल भी जाती है लेकिन जरुरी नहीं है कि जिसके हाथ में वह पहुंच रही है वह उसे सहेज पाए, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ वे फोटोग्राफी के साथ, अखबार और अपने आपको पूरी तरह से परिकृष्त करते रहे, समय बीतता गया...। अक्सर सिखाने वाले पिता हमेशा साथ थोड़े ही रहते हैं...लेकिन यह जय नागड़ा जी की खूबी है कि उन्होंने अपने पिता से मिली कला को जीवंत रखा और परिष्कृत कर समय की धूल नहीं जमने दी और आज बेहतर बनाकर वे उसे सहेज रहे हैं चाहे फोटोग्राफी हो, स्पष्टवादिता हो या फिर मिलनसारिता...। सच का साहस उन्हें इसलिए भी अनूठा बनाता है क्योंकि उन्होंने एक ऐसे परिवार में जीवन जीया है जहां मन को शांत रखने की कला शायद सबसे पहले सिखाई जाती रही होगी...। लिखने को बहुत कुछ है कि आज तक जैसे ख्यात न्यूज चेनल तथा यूएनआई के संवाददाता होने के साथ एक सहज और बेहद भावुक इंसान भी हैं...चलिये उन्हें नए अंदाज में शुभकामनाएं देते हैं कि वे इसी तरह उत्तरोत्तर उन्नति करें और सच को बेखोफ सामने लाते रहें जैसा कि ये खंडवा शहर उनसे उम्मीद लगाए बैठा करता है अक्सर।

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(पहला फोटोग्राफ जय नागड़ा जी के पिता प्रफुल्ल नागड़ा जी का है, वे पार्श्व गायक किशोर कुमार के साथ हैं...ये बहुत पुराना फोटोग्राफ है..।)

(दूसरा फोटोग्राफ जय नागड़ा जी का है वे मप्र के मुख्यमंत्री रह चुके कैलाश जोशी जी के साथ हैं...। ) 



‘प्रकृति दर्शन’ का जुलाई अंक सुंदरलाल बहुगुणा जी व बारिश पर (आलेख आमंत्रित)



 (अगले अंक के लिए आलेख आमंत्रित)

राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ का जुलाई 2021 का अंक 

दो हिस्सों में विभाजित है...

1

पहला हिस्सा पर्यावरणविद् स्व. सुंदरलाल बहुगुणा जी पर केंद्रित रहेगा। 

- दोस्तों पिछले दिनों पर्यावरणविद् आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा जी का स्वर्गवास हो गया, वे हममें प्रकृति संरक्षण की एक गहरी समझ बो कर कर गए हैं, उसे किस तरह से अंकुरित और पल्लवित करेंगे हमें तय करना है, आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा जी पर आप आलेख भेज सकते हैं, उनके साथ संस्मरण, कोई सीख, कोई बात जो आपको उनके विषय पर लिखने को विवश कर दे...। 

और 

2

दूसरा हिस्सा बारिश पर।  ‘बचपन की बारिश, अब की बारिश’

दोस्तों बारिश पर हमेशा लिखी जानी चाहिए, लिखी जाती रही है, कविताओं में, साहित्य में, अखबारों में आंकड़ों में...अबकी लिखिये बचपन की बारिश और अब की बारिश...। बारिश में वृक्षों और जंगल की भूमिका पर भी लिखा जाना चाहिए...लिखियेगा...क्योंकि हम प्रकृति को बेहतर बना सकते हैं। 

केवल एक निवेदन है कि हमें आपके आलेख, रचनाएं, फोटोग्राफ हर हाल में 21 जून तक ईमेल के माध्यम से मिल जाएं। आलेख के साथ संक्षिप्त परिचय और अपना फोटोग्राफ भी अवश्य प्रेषित कीजिएगा....। 


संदीप कुमार शर्मा,

संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका 

ईमेल- editorpd17@gmail.com

मोबाइल/व्हाटसऐप- 8191903651


(फोटोग्राफ गूगल से साभार)

कैसी होगी बिना पानी दुनिया




मानो या मत मानों पानी हमसे और हमारी पहुंच से दूर जा रहा है क्योंकि इसे लेकर हमारी गंभीरता बहुत कम हो गई है। पानी आज है, हमें मिल रहा है लेकिन हालात यही रहे तब पानी हमारे बीच नहीं होगा...सोचियेगा कि बिना पानी दुनिया कैसी होगी...क्या हम उसे जी पाएंगे, क्या हम उस दुनिया का हिस्सा होना चाहते हैं....यदि नहीं तो पानी पर कार्य करने के लिए पूरे मन से आगे आईये, उसे बाजार का हिस्सा मत बनने दीजिए...।
एक पल के लिए सोचियेगा उन शहरों के बार में जहां पीने का पानी खत्म होने लगा है, उन शहरों के बारे में जिन्हें डे जीरो में सूचीबद्व कर लिया गया है....सोचियेगा कितना खौफनाक होगा वह समय जब पानी के लिए हम अपने अंदर रोज एक युद्ध लड़ रहे होंगे...



 

वह पहली दोपहर (लघुकथा)











लघुकथा

अक्सर होता ये था कि पूरे साल में गर्मी का मौसम कब बीत जाता था पता ही नहीं चलता था क्योंकि घर के सामने रास्ते के दूसरी ओर नीम का घना वृक्ष था और उसकी छांव में गर्मी का अहसास ही नहीं होता था, वह वृक्ष और उसकी पत्तियां उस गर्मी को, तपिश को सहकर छांव पहुंचाया करती थी और तो और दादी के नुस्खे के क्या कहने किसी को चोट आती तो वह नीम की छाल निकालकर घिसती और पैर पर लगा देती, बस अगले दिन सब ठीक हो जाया करता था। रोज की तरह आज भी बंशी ने अपना दरवाजा अपने आप पर झुंझलाते हुए खोला और बोला ये रात तो काटनी मुश्किल है, घर में कोई कैसे काट सकता है इतनी परेशानी वाली रात। इससे दिन अच्छा है कम से कम छांव तो मिलती है, हवा तो मिलती है, धन्य हो नीम....इतना कहते ही उसकी नजर सामने कटे हुए नीम के वृक्ष की कटी हुई भुजाओं पर गई और माथे पर हाथ रखकर दरवाजे से टिककर रह गया। मन ही मन बुदबुदाया ये क्या, ये कौन काट गया और क्यों...? वह परेशान सा पास वाली दुकान के मालिक रामचंद्र के पास पहुंचा और बोला रामू ये वृक्ष कौन काट गया , रामचंद्र बोला कल कुछ अधिकारी आए थे कह रहे थे कि यहां यह मार्ग संकरा है इस पर काम होना है और ये वृक्ष बाधा बन रहा था इसलिए इसे काटना जरुरी है, वह इसके बदले वो देखो एक पौधा लगा गए हैं...और कह गए हैं कि उसे पानी देते रहना, एक दिन वह भी वृक्ष हो जाएगा....। गुस्से से चीखता हुआ बंशी बोला हम उसे अंकुरित करेंगे ये काट जाएंगे, फिर हम उसे अंकुरित करेंगे ये फिर काट जाएंगे...आखिर ये कब समझेंगे कि एक पौधे को वृक्ष बनने में कितना समय लगता है, कितनी दोपहर और उसकी तपिश, कितनी बारिश, कितने तूफान झेलकर वह वृक्ष बनता है और उस घनेरी छांव का क्या...वह रोता हुआ कभी वृक्ष को देखता तो कभी उस पौधे को...और कभी उस दोपहर वाली झुलसन को जो अब उसे कई साल सहनी थी...। सिर पर हाथ रख बंशी लौट आया और घर से एक लोटे में पानी लाकर पौधे को अर्पित कर दिया...उसके चरण छूकर बोला हम तुम्हें वृक्ष अवश्य बनाएंगे क्योंकि तुम हमारे लिए बहुत जरुरी हो...। तुम हमारा जीवन हो...। 

 

सवाल आक्सीजन का है ?


 






















प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका के जून माह के अंक का कवर पेज- 

सवाल आक्सीजन का है ?

कवर बनाते समय खूब सोचा गया कि भयावह हालात दिखाते हैं, हांफते लोग दिखाते हैं, मरते शरीर दिखाते हैं, कटे जंगल दिखाते हैं...फिर सोचा कि पहले ही ये दौर हमारे अंदर नकारात्मकता का जहर भर गया है, ऐसे में हमें वह दिखाना चाहिए जो एक संबल बंधाए, उम्मीद बंधाए, हौंसला बंधाए...तब हमने ये फायनल किया...क्योंकि हमारे लिए ये पत्रिका  केवल एक पत्रिका नहीं है ये उम्मीद है जो एक दिन इस धरा पर पूरी ताकत से अंकुरित होना सिखा जाएगी। 

कवर पेज आपके अवलोकनार्थ है, कवर पर फोटोग्राफ ख्यात वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर श्री अखिल हार्डिया जी का है। पत्रिका का लिंक भी जल्द शेयर किया जाएगा। काफी मंथन के बाद और कई एक्सपर्ट की राय के बाद इस कवर पेज को बनाया गया है...आप भी अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा...। 

जल्द ही इस पत्रिका का गूगल लिंक यहीं पर शेयर कर दिया जाएगा। 

ब्लॉग लिख रहे समस्त साथियों से बेहद विनम्रता से निवेदन है क्योंकि वे लिखना जानते हैं, वे उन असंख्य उन लोगों से अलग हैं जो लिखना नहीं जानते जिन्हें अपनी बात की अभिव्यक्ति नहीं आती...यदि आप इस पत्रिका को पढ़ना चाहते हैं या इसके पुराने अंक देखना चाहते हैं तब मुझे आप नीचे लिखे नंबर पर अपना व्हाटसऐप नंबर दीजिएगा ताकि हम उस पर आपको सीधे पीडीएफ सेंड करेंगे, ये सुविधा केवल ब्लॉग पर लिख रहे साथियों के लिए हैं...आप चाहें तो लेखन के तौर पर ही हमसे जुड़ सकते हैं, केवल इतना कहना चाहूंगा कि अभी हम किसी भी तरह का मानदेय देने की स्थिति में नहीं हैं...

संदीप कुमार शर्मा, 

संपादक, प्रकृति दर्शन, मासिक पत्रिका 

व्हाटसऐप- 8191903651, ईेमल- editorpd17@gmail.com

बेहतर प्रकृति ही बेहतर प्रवृत्ति बनाती है




फ्रांस का अध्ययन है कि 2000 से 2020 के बीच ग्लेशियर के मेल्ट होने की स्पीड दोगुनी हो चुकी है ये उनका अपना अध्ययन है, क्या करेंगे ग्लेशियर। समुद्र में जाएंगे समुद्र का तल बढे़गा, हमारे 70प्रतिशत पानी का सोर्स हिमखंड ही हैं। पानी की हाय-हाय मचेगी। समुद्र को बर्बाद करने में आपने पूरा जोर लगा दिया, सारा कचरा समुद्र में जाए तो ये प्रबंधन का अभाव ही तो है। चार सौ डार्कजोन वैसे ही समुद्र में बन चुके हैं, वह मानसून को भी प्रभावित करेगा। मनुष्य ने अपनी एक भूल से आने वाला गहरे भविष्य खतरे में डाल दिया है। हमने ये एक मापदंड बना लिया रखा है कि कितनी बार चाइना गए, इग्लैंड गए और क्या करके आए। अपने देश में ही देखियेगा वैज्ञानिकों को सम्मान ही तब मिलता है जब उनकी कोई वैज्ञानिक शोध अमेरिका के जर्नल में छपे या इग्लैंड में। ये एक तरह की दासता है, गुलामी वाली हमारी सोच है क्योंकि अगर ऐसा नहीं हो तो हमारे वेद शास्त्रों में अदभुत प्रयोग बहुत पहले ही किये जा चुके हैं और कभी भी हमने उन पर झांककर देखने की कोशिश नहीं की वरना सभी तरह के उत्तर हमारे पास थे। हमें समझना होगा कि जीवन से ही जीवन पलता है। बेहतर प्रकृति ही बेहतर प्रवृत्ति बनाती है।  
ये विचार प्रकृति संरक्षण पर प्रेरक कार्य कर रही इंदौर की सेवा सुरभि संस्था द्वारा 2 जून को आयोजित वेबिनार में पद्मश्री, पद्म भूषण  माउंटेन मैन डॉ. अनिल जोशी जी व्यक्त किए। कोरोना के बाद पर्यावरण’ विषय पर आयोजित इस वेबिनार में वक्ता के तौर पर वरिष्ठ पत्रकार खुशहाल सिंह पुरोहित जी भी शामिल हुए। 
डॉ. अनिल जोशी जी ने कहा कि पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि प्रकृति दो सालों में विभिन्न तरीके से हमें कुछ सिखा रही है। क्या सिखाना चाहती है वह बहुत साफ और सामने है। पहला बड़ा सबक कि जिस चीज के पीछे हमने लंबी चौड़ी दौड़ लगाई और अंत में एक ही सूत्र और मंत्र माना था कि इकोनॉमी आर्थिकी बेहतर होनी चाहिए और करीब 1935-40 के आसपास उससे पहले यूरोप जो दुनिया का तथाकथित सबसे विकसित भूखंड है उन्होंने औद्योगिकीकरण की नींव रखी, बात ये थी कि खेती बाड़ी से खाली पेट भर सकता है पर अगर जीवन में मौज करनी है और बेहतर सुविधाएं उठानी हैं तो वो एक ही रास्ते से बेहतर हो सकता है कि हम उद्योगों के उत्पादों को बेहतर जीवन के लिए लाएंगे और इससे आर्थिकी रोजगार पैदा होंगे। 1950 के आसपास अपने देश में भी सबसे बड़ी चुनौती थी कि इकोनॉमी की और हम भी उसके पीछे दौड़ गए। जब हम सब दौड़ लगा रहे थे तब हम कुछ चीजें भूल गए क्योंकि ये हमारी प्रवृत्ति बन गई है कि जो कुछ होना है और जो हमारी दिशा तय कर रहा है वह सात समन्दर वाले ही बेहतर कर सकते हैं क्योंकि अंग्रेजों ने राज किया था तो वो ही उनके अंग्रेजी सूट बूट और हैट...। हैट ने हमारी बुद्वि खो दी और कपड़ों ने हमारी वेशभूषा खो दी और भोजन पर तो स्वतः आक्रमण होना ही था। जब हैट पहन लिया सूट पहन लिया तो आपका भोजन तो कांटों से ही चलेगा। हमने तीनों चीजें खोई, सबकुछ खो दिया और इसको कहा गया डेव्लपमेंट। इसको ही विकास की परिभाषा का मूलमंत्र मान लिया गया। जब ये सबकुछ हो रहा था, ये सबकुछ करते सारी दुनिया के लोग पर हम तो कुछ और थे। हम उस देश के रहने वाले थे जहां हवा, मिट्टी, जंगल, पानी को देवतुल्य माना जाता है। हमारे शास्त्रों में बड़ा स्पष्ट है भूमि मां है, ये मां हमको पालेगी लेकिन ये मन में नहीं रहा और हमारे मन लालची हो गए, हमने उसी और दौड़ लगा ली कि जिस ओर सारी दुनिया चली गई। अब एक सवाल खड़ा हो गया कि वो तमाम तरह के विकसित देश वो तमाम तरह के मजबूत देश जहां आप और मैं भी दौड़कर जाना चाहते हैं और हमने ये एक मापदंड बना लिया रखा है कि कितनी बार चाइना गए, इग्लैंड गए और क्या करके आए। अपने देश में ही देखियेगा वैज्ञानिकों को सम्मान ही तब मिलता है जब उनकी कोई वैज्ञानिक शोध अमेरिका के जर्नल में छपे या इग्लैंड में। ये एक तरह की दासता है, गुलामी वाली हमारी सोच है क्योंकि अगर ऐसा नहीं हो तो हमारे वेद शास्त्रों में अदभुत प्रयोग बहुत पहले ही किये जा चुके हैं और कभी भी हमने उन पर झांककर देखने की कोशिश नहीं की वरना सभी तरह के उत्तर हमारे पास थे। हमारी गलती ये थी कि शब्दों में अंतर नहीं कर पाए और वह शब्द था हमने कहा डेव्लपमेंट, आप चले जाईये अपने चार सौ, पांच सौ, छह सौ साल पहले भारत के इतिहास में ये कहीं शब्द नहीं था। ये विकास नामी शब्द किसी युग में नहीं था, कलयुग में ही इसका जन्म हुआ जबकि हमारा शब्द कुछ और था हमारा शब्द था समृद्धि, डेव्लपमेंट तो बड़ी अकेली सी चीज है कि आप कोई इंस्फास्टचर डेव्लप कर रहे हो, बाजार बना रहे हो, मॉल बना रहे हो वही जो हम अपनी पश्चिमी सोच और तरीकों से बात करते हैं वही हमारे सामने हमारा मूलमंत्र बन गया। समृद्धि का मतलब होता है सबको जोड़कर बेहतर जीवन ही समृद्धि कहलाती है। आप अपने क्षेत्र के विकास की बात करते हैं तो वहां सबकुछ हो खेती बाड़ी भी हो, सड़क भी हो, अस्पताल भी हो, जंगल भी हो, पानी भी हो इसे समृद्धि कहते हैं और विकास किसे कहते हैं ताबड़तोड़ आप बड़े बडे़ ढांचों को तैयार कर दो, बड़े बड़े उद्योगों को लगा लें, विकासनामी शब्द के आसपास यही चीजें घूमती रहेंगी, हमने समृद्धि को भुला दिया और यही सबसे बड़ा कारण भी बना। हमने क्यों नहीं सोचा कि आखिर इस देश में जब शास्त्रों ने तमाम बातें कही हैं, जीवन के मूल तत्वों को ही सबकुछ माना है क्योंकि आपको आश्चर्य होगा कि हमारे यहां जो बातें कहीं गई उन बातों का वैज्ञानिक आधार भी है। अब आप देखिये हमारे ही तथ्यों के बीच में कहा गया कि आप अकेले नहीं हैं, आप अकेले जी भी नहीं सकते और सत्य भी है कि आप और मैं निर्भर हैं इस पृथ्वी पर निर्भर हैं, हम हवा, मिट्टी, पानी, कार्बन, नाईटोजन, फास्फोरस से तो बने हैं, हम निर्भर हैं और दूसरी बात पारस्परिक निर्भरता भी है, आपको कुछ खाना है तो पत्थर नहीं खाएंगे आप। आप फसल पैदा करेंगे, वृक्षों पर उगाएंगे, जीवन से ही जीवन पलता है यहां यही कहा गया है, यहां ये भी कहा गया तत्वों का आदान प्रदान है ये। आप एक केमिकल सिस्टम हैं, जिसके आप बने हैं उसी से तो पौधे और फसल बनती है, उन सभी तत्वों की आवश्यकता उन्हें भी होती है तो ये एक केमिकल दूसरे केमिकल में टांसफर होता है। भोजन के रूप में और इसी को पृथ्वी ने तय किया जीवन आपसी होगा, पारस्परिक होगा। हमारी आदत है कि यूनाईटेड नेशन कहेगा, अमेरिका कहेगा तो सबकुछ हो जाएगा, बड़े-बड़े देश कहेंगे तो हम उनके पीछे भागेंगे। 

मेरा सवाल यह है कि कौन सी चीज ससटेनेबल है बताईये। 1972 के बाद कोई योजना सरकारी या गैर सरकारी हो या कोई भी हो एक शब्द जरूर कहा जाता है ससटेनेबिलिटी, ससटेनेबल प्रोजेक्ट, ससटेनेबल फार्मिंग...। कौन सी चीज ससटेनेबल रह गइंर् नदियां खत्म, हवा खत्म, आपकी इमोनॉमी जिसके लिए आपने इतनी दौड़ लगाई तो पाताल में पहुंच गई जीडीपी। दो साल से उपर नहीं आ पाई। जीडीपी की मारकाट थी जिसके प्रताप से इतने तमाम तरह से विश्व भर में जो आज जीडीपी का बड़ा संकट आया एक ऐसे जीव ने जो कि प्रकृति ने मनुष्य के दुस्साहस को देखते हुए उसे बोतल से बाहर निकाल दिया और सारी दुनिया में उसने एक साथ आक्रमण कर दिया। बताईये कौन सा डेव्लपमेंट काम आया, अमेरिका फ्लेट, इटली फ्लेट, स्पेन फ्लेट सब एक एक करके धराशाही हो गए कहां गए उनके विकास के तथाकथित अस्पताल और देखिये दो साल में वो जीडीपी पाताल में पहुंच गई। इकोनॉमी सबकुछ नहीं हो सकती अगर इकोनॉमी को बेहतर बनाना है तो बेहतर ईकोलॉजी होनी चाहिए। मै ंये भी कहना चाहूंगा कि डेव्लपमेंट जो है वो भोगवादी सभ्यता को पनपाता है और हमारा प्रोसपेरिटी जो शब्द था वो संरक्षण की तरफ भी इशारा करता है। दोनों में बड़ा अंतर है समृद्वि संरक्षण को जोड़ते हुए ही कल्पना करती है। मैं किसी विकास के विरुद्व नहीं हूं, पर सवाल ये पैदा होता है कि हमारी लालच की सीमा क्या होगी, हम कितना कुछ करना चाहेंगे, कितना पृथ्वी को नोचेंगे, डेव्लपमेंट का प्रसाद है जो किसी के किसी के हाथ लगता है सभी के हाथ नहीं लगता जबकि समृद्धि में ऐसा नहीं होता। समृद्धि सब की भागीदारी पर बात करती है सबसे साथ जुड़ना ये समृद्धि ने हमें सिखाया है। हमें कहीं समझना होगा कि कहीं हम भूल और चूक कर रहे हैं क्योंकि ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलेगा। आप क्यों नहीं मान रहे हैं कि कुछ दिनों पहले तूफान आया, उससे कुछ दिनों पहले ताउते आया, उससे पहले एंफर आया पिछले एक दशक में कितने कितने तूफान ने हमको चपेट में लिया है। सोचिये ये नये नये तूफान, नये नये नामों के साथ जो प्रकट हो रहे हैं क्यां हो रहे हैं, कहां से आ रहे हैं। अब बीमारियों को देख लीजिए, एक डेढ़ दशक में कितनी नई नई तरह की बीमारियां झेली हैं और ये सबकुछ सांइटिफिक स्टडी है, ये सब सोर्स वाइल्ड एनिमल से गए हैं, उन्हें आप खाने पर उतारु हो गए। ये जो प्रवृत्ति हमारी बन रही है ध्यान रखिये कि बेहतर प्रकृति ही बेहतर प्रवृत्ति बनाती है। भोगवादी सभ्यता भयानक सीमा पर जा चुकी है, अब समय आ गया है कि हमारा देश इस ओर चिंतित होना चाहिए, क्या आप बता सकते हैं कि कितना जंगल बढ़ा है, क्वालिटी और क्वांटिटी में, बताईये कि कितना पानी हमें इंद्रदेव से मिला और हमने उसे संरक्षित किया, उसे बहने क्यों दिया। नाम था प्राणवायु अब वही प्राण लेने लग गई है। जब प्राणवायु को प्राण लेने वाला हमने बना दिया हो तो क्या लगता है प्रभु हमें माफ करेंगे दंड तो झेलने ही पडें़गे। अभी समय है कि हम नये सिरे से सोचना शुरू करें, कोरोना काल में शायद ये समझ हमें बनानी होगी कि हम प्रकृति के प्रति किस तरह पेश आएं क्योंकि इसके बाद शायद हमें कोई अवसर नहीं मिलेगा क्योंकि कोरोना ने जिस तरह से पूरी दुनिया को लपेटा है, कल कुछ और आएगा, समय समझने का है। इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार खुशहाल सिंह पुरोहित ने कहा कि प्रकृति के साथ हमारा मां- बेटे का रिश्ता है। प्रकृति की पूजा करना हमारे संस्कार में रहा लेकिन आज हम उसका शोषण भी कर रहे हैं जिसके कारण पृथ्वी का जल स्तर गिरा ,नदियां प्रदूषित हुई और हवा सांस लेने लायक नहीं रही। 
वेबिनार मे डॉ. पर्यावरणविद किशोर  पवार, डॉ. जयश्री सिक्का, पत्रकार संदीप कुमार शर्मा, मेघा बर्वे, डॉ. संदीप नारुलकर, डॉक्टर मनीष गोयल डॉ. ओ.पी. जोशी, डॉ. मनीष गोयल,  शिवाजी मोहिते, कुमार सिद्धार्थ पेनल में शामिल किए गए। ओमप्रकाश नरेड़ा जी ने संस्था सेवा सुरभि के संबंध में जानकारी दी। इस बेविनार के कार्यक्रम संयाजक और सूत्रधार ख्यात भूजलविद और पर्यावरणविद सुधींद्र मोहन शर्मा जी थे। अंत में आभार माना वीरेंद्र गोयल जी ने।
मेरा सवाल उत्तराखंड के पेयजल संकट पर 
इस वेबिनार में मुझे डॉ. अनिल जोशी से सवाल पूछने का अवसर मिला तब मैंने उत्तराखंड पर एक सवाल पूछा जिसका आपने बहुत ही सुलझा हुआ जवाब दिया। मेरा सवाल था कि उत्तराखंड में भी अब पेयजल संकट गहराने लगा है, विशेषकर कुमाऊं क्षेत्र में देख रहे हैं कि प्राकृतिक जल स्त्रोत सूखने लगे हैं, विशेषकर नौले या तो सूख गए हैं या लापरवाही के चलते सुखा दिए गए हैं...ऐसे में उत्तराखंड की प्यास कैसे बुझेगी, कैसे उत्तराखंड को पेजजल संकट की ओर बढ़ने से रोका जाए, इसका क्या हल हो सकता है।
हमारे प्रयास जारी हैं, उम्मीद हैं बेहतर परिणाम आएंगे 
2010 में एक प्रयोग हुआ है हम हमारे साथियों द्वारा कि जो जलागम होते हैं वही हमारे धारों के सोर्स हैं और वर्षा जनित नदियों के भी सोर्स हैं, इन जलागमों का ही पानी के जलछिद्रों के द्वारा क्योंकि वृक्षों का भी वही योगदान है जो जलछिद्र करेंगे तो हमने एक मीटर स्कावयर के एक हेक्टेयर के तीन सौ, चार सौ जलछिद्रों को बनवाया, पोंड बनवाए ताकि बारिश का पानी जलछिद्रों में पडे़ और ये सीधे धारों को भी सींचे, मैं आपके संज्ञान में ले आना चाहता हूं कि पांच छोटी नदियों का वापसी जन्म हुआ और 126 धारे तैयार हुए, हमने सरकार को भी शामिल करने की कोशिश की है, खास तौर पर वन विभाग को। इसके कुछ परिणाम दिखाई देने शुरू हो चुके हैं आशा है आने वाले समय में चार पांच साल में बेहतर परिणाम हमारे पास होंगे।

सिर कटे वृक्षों पर कौन जीवन खिलखिलाएगा


कल्पना कीजिएगा कि आप कोई मूवी देख रहे हैं और उसमें कटे हुए सिर वाले मानवों की कोई बस्ती है और वहां किसी सिर वाले व्यक्ति को रहने और खुश रहने का आदेश दे दिया जाता है और वहां उसे सर्वसुविधायुक्त महल भी सौंप दिया जाता है बस वहां कोई सिर वाला इंसान नहीं होगा, कोई बोलने वाला इंसान नहीं होगा, कोई भावनाओं को व्यक्त करने वाले चेहरे नहीं होंगे, तब क्या और कैसे होगा, क्या वह सिर वाला व्यक्ति उन कटे सिर वालों के समाज में खुश रह पाएगा, मुस्कुरा पाएगा, खुश हो पाएगा, सपने देख पाएगा, अपने बच्चों को लाकर वहां बसा पाएगा, उनके भविष्य के सपने उन्हें दिखा पाएगा...सोचियेगा कि कटे सिर वाले शरीर के समाज की कल्पना मात्र ही हमें इतना विचलित कर सकती है तब सोचियेगा कि निर्दयी होकर हमारे समाज में जंगल काटे जा रहे हैं और उन्हें काटने के लिए बेतरतीब निर्णय भी लिये जा रहे हैं। हरे वृक्षों का सिर कटा जंगल हमें चीखता हुआ प्रतीत नहीं हो रहा है, उसकी चीख सुनाई नहीं दे रही है। 

मूंदिये आंखें, फेर लीजिए मुंह दूसरी ओर

सोचियेगा कि सिर कटे वृक्षों पर कौन जीवन खिलखिलाएगा ? कौन पक्षी आएगा, कौन मोर नाचेगा, कौन राहगीर छांव पाएगा और कौन सा पौधा उस जंगल में वृक्ष बनने का साहस दिखा पाएगा। बात चुभने वाली है लेकिन ये सच है कि हम जंगल को जिस स्थिति में पहुंचा रहे हैं वहां से जीवन की हर हद समाप्त होती नजर आ रही है, बेशक आप खामोश रहिये क्योंकि जंगल से किसी का कोई सरोकार नहीं है क्यांकि यदि कुछ महत्वकांक्षी योजनाओं ने जंगल उजाड़ भी दिया तब भी हम मनुष्यों की सेहत पर क्या फर्क होगा, हमारा घर सुरक्षित है, हमारे शहर तक कोई दर्द नहीं पहुंच रहा है लेकिन ये संकट को ठीक करीब आता देख आंखें मूंदने जैसा है, यकीन मानिये कि संकट दरवाजे से कुछ दूरी पर है...मूंदिये आंखें, फेर लीजिए मुंह दूसरी ओर, उलझा लीजिए अपने मन और दिमाग को दूसरी जगहों पर, अबकी संकट श्वास का आएगा और तब आप उससे निपट भी नहीं पाएंगे। 

प्रकृति भी कभी बाजार  नहीं हो सकती

यकीन मानिये जहां भी जंगल को कोई एक वृक्ष भी कट रहा है तब आप तक बेशक की चीख न पहुंचे लेकिन ये भी है सच है कि ऑक्सीजन भी नहीं पहुंचेगी...तब भागते रहियेगा सिलेंडर सर पर रखकर हांफते हुए इस बाजार के पीछे....ये क्रूर बाजार आपको हांफता देख खुश होगा क्योंकि इसी में उसे फायदा नजर आता है, बाजार कभी भी प्रकृति नहीं हो सकता और प्रकृति भी कभी बाजार  नहीं हो सकती...। 

श्वास के बदले हीरे

तसर आता है मुझे तो कि आखिर कोई सरकार केवल हीरों के लिए किसी जंगल को उजाड़ने का सोच भी कैसे सकती है, कैसे आप ये सोच सकते हैं कि हीरों के लिए असंख्य जिंदगियों को दांव पर लगा सकते हैं, कैसे आप असंख्य मनुष्यों के लिए एक भविष्य का संकट आकार दे सकते हैं, कैसे आप अंजान बनकर उस निर्णय के बारे में सोच सकते हैं जिसके बाद एक गहरे संकट का आना तय है। छतरपुर के बक्सवाहा जंगल में वृक्षों के बदले हीरे, जीवन के बदले हीरे, भविष्य की श्वास के बदले हीरे, उम्मीद और भरोसे के बदले हीरे...क्या कीजिएगा और कितने दाम के होंगे वे हीरे...कहीं जाकर तो उनकी कीमत खत्म हो जाएगी और सोचियेगा कि सवा दो लाख वृक्षों का एक जंगल जो असंख्य जीव- जन्तुओं के साथ हम मनुष्यों के जीवन की रीढ़ बना हुआ है, रीढ़ पर प्रहार करना अच्छा नहीं है, ये तमीज नीति नियंताओं में स्वतः ही होनी चाहिए। 

कैसा निरीहपन

अबकी उस जंगल को बचाने के लिए प्रतिबद्व हो जाईये क्योंकि आज नहीं जागे तब यकीन मानिये कि कल वही सिर कटे, शरीर कटे वृक्षों का ठूंठ वाला जंगल आसपास पसरा होगा, कैसे हम अपने बच्चों से कह पाएंगे कि हमें पता था कि कोई जंगल केवल इसलिए काट दिया जा रहा है कि उसके नीचे हीरे थे और हम खामोश रह गए, कैसे हम अपने बच्चों की नजरों का सामना कर पाएंगे कि वह कहेंगे नहीं लेकिन हमें कसूरवार करार दे चुके होंगे कि आप हमारी घुटती श्वास वाले उन निर्णयों पर भी क्यों नहीं चीखे, कैसी खामोशी थी और कैसा निरीहपन। ये मानवीयता तो कतई नहीं है। ये जंगल यदि हीरों के लिए काट दिया जाता है और उस दौर में जबकि हाल ही में हमने मेडिकल ऑक्सीजन का एक बड़ा और गहरा संकट देखा है, भोग रखा है? हम जानते हैं कि हम प्रकृति की ऑक्सीजन की सप्लाय की बराबरी कभी नहीं कर सकते, लेकिन संकट आ धमका और यदि आज ये जंगल कटने से नहीं रोका गया और यदि ये काट दिया गया तब यकीन मानिये कि कल कोई जंगल नहीं बचेगा और हम किसी जंगल पर उसकी सुरक्षा पर अपनी आवाज बुलंद नहीं कर पाएंगे क्योंकि हारे हुए समाज का मिटना तय हो जाता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि हम इस मुददे पर पूरी ताकत से जागेंगे और अपनी उपस्थिति दर्ज करवाएंगे क्योंकि हीरे कभी भी मायूस जिंदगी वाले समाज में शोभा नहीं देते। 

सुनिये सरकार---

सुनिये सरकार, आखिर कैसे उन हीरों की चाहत आपको इतना निष्ठुर बना सकती है कि आप जंगल को काटने के निर्णय की ओर अग्रसर होने की सोचने लगे...उम्मीद की जानी चाहिए सरकार से कि वह ये अंतर समझेगी कि श्वास और चमक में से पहले श्वास चुनी जाती है, आप हीरों से श्वास नहीं ले सकते लेकिन वृक्षों से आप उन हीरों की चमक से खरीदी गई किसी भी जिंदगी से बेहतर जिंदगी जी सकते हो...। सोचियेगा कि ये समय निर्णय लेने का है...। 




अरसा हो गया बारिश में नहाये हुए

उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर द...