प्रकृति के बेहद ज़रुरी सवालों को उठाती कहानियाँ





इस वक्त मेरे सामने मेज़ पर संदीप कुमार शर्मा का ताज़ा कहानी संग्रह 'हरी चिरैया' की पांडुलिपि है। अभी-अभी इससे गुज़रा हूँ और इसके किरदार मेरे भीतर हलातोल मचा रहे हैं। उनकी आवाज़ें गूँज रही है। उनके आसपास की स्थितियाँ मुझे डरा रही हैं। इन कहानियों से होते हुए मैं झाँक पा रहा हूँ उस आसन्न विभीषिका के दरवाज़े के आर-पार। मैं चाहता हूँ कि यह विभीषिका टल जाए लेकिन जिस गति से यह मेरे और मेरे समाज की तरफ़ बढती हुई चली आ रही है, उससे बच पाना तो मुश्किल है। लेकिन इन्हीं कहानियों में दिए गए छोटे-छोटे उपायों के ज़रिए हम इसकी तीव्रता को कम कर सकते हैं और हमारे समाज को आपदा के बड़े और खतरनाक संकट से बचा सकते हैं।

आप सोच रहे होंगे कि मैं कहानियों पर बात करते हुए अनायास ये किस विभीषिका या युद्ध की तरह की बातें कर रहा हूँ तो मैं इन्हीं कहानियों के बरअक्स बात कर रहा हूँ। जी हाँ, यह कहानियाँ महज मनोरंजन या कोरी भावुकता या भाषा और शब्दों की जुगाली भर नहीं है, बल्कि ये पूरे समाज और प्रकारांतर से देशभर को एक बड़ा संदेश देती नज़र आती हैं और यहीं इनका कद अनायास बढ़ जाता है। इस संग्रह में एक लंबी कहानी सहित कुल जमा आठ कहानियाँ हैं और ये सभी पानी और पर्यावरण के मुद्दे पर उद्देश्यपरक होकर लिखी गई हैं। पानी की तासीर की तरह ही ये सहज-सरल, ताज़ी, पारदर्शी और तरल कहानियाँ हैं। इनसे गुज़रना किसी पहाड़ी नदी की बलखाती धाराओं से गुज़रना है। इनमें जीवन के प्रति उसी तरह का अनुराग है जो प्रकृति में सदैव उपस्थित रहता है। कहीं-कहीं उजाड़, तूफ़ान, अकाल, सूखा, त्राहि-त्राहि करते लोग भी हैं लेकिन वे वितृष्णा या जीवन में निराशा नहीं लाते बल्कि चेतावनी देते हुए वे अंत में फिर सब कुछ बदल कर एक सुखद बयार की उम्मीद से सराबोर भी कर देते हैं। मुझे लगता है कि ये मनुष्य की आदिम गहरी जिजीविषा को इंगित करती है और समाज को एक संदेश भी देती है। यह सही है कि कई जगह बात अंडरटोन की सीमाओं से परे नारे की तरह बड़े जोर से कही गई है। हालाँकि इस तरह के विषय चयन में यह होना अवश्यंभावी भी है। करोड़ों लोगों की ज़िंदगी से सीधे तौर पर जुड़े प्रकृति के सवालों को जोर से और नारे की शक्ल में ही कहा जा सकता है। अंडरटोन शायद यहाँ उतना कारगर नहीं है, जहाँ समय और समाज के बाक़ी सवालों को रेखांकित किया जाता है।

शीर्षक कहानी 'हरी चिरैया' संग्रह की सबसे लंबी लेकिन ज़रुरी सवालों से जूझती कहानी है जो नई पीढ़ी को पर्यावरण से जोड़ने की नवाचारी पहल को भी नए अंदाज़ में हमारे सामने लाती है। उपन्यासिका की तरह विस्तार से यह कहानी हमें पौधरोपण की महत्ता से भी रूबरू कराती चलती है। इसे पढ़ते हुए हम अपने आपको पीहू के साथ खड़ा पाते हैं। तूफ़ान में तीन ज़िंदगियों के लील जाने की यह कारुणिक कथा अंत में हमें भीतर तक झकझोर देती है। 'एक पक्षी का क़स्बा' और 'बावले गाँव की कहानी' मनुष्य के सामूहिक श्रम से हालात बदलने की बात को शिद्दत से समझाती है। 'अबके सावन में' और 'संदेश पत्र' बताती हैं कि हमारे जीवन में बारिश का संगीत कितना ज़रुरी है और इसकी सौधी महक हमें भीतर तक कितना भिंगोती है। 'पानी की प्रदर्शनी' और 'सोने-चाँदी का महल' परम्परागत जल स्रोतों की वैभवशाली विरासतों के तेज़ी से खत्म होते जाने की चिंता जाहिर करती है तो 'पाठशाला' बेटियों को कमतर समझे जाने के हमारे समाज के रवैये को धिक्कारती है। किताब का आकर्षक आवरण और भीतर के सुंदर चित्रों को छत्तीसगढ़ की कलाकार लतिका वैष्णव ने आकार दिया है।

आमतौर पर माना जाता है कि संदेशपरक कहानियाँ साहित्यिक गम्भीरता से दूर होती हैं लेकिन संदीप कुमार शर्मा ने इन कहानियों में इन दोनों के बीच की दूरी को पाटने की भरपूर कोशिश की है। ये सभी कहानियाँ हमें पानी और पर्यावरण की महत्ता बताते हुए अपने आप में एक मुकम्मिल कहानी की शर्तों को भी पूरा करती है। इनमें संवेदना भी है, कहन भी और सहज किस्सागोई भी, ये जहाँ इन्हें साहित्येतर होने से बचाती हैं तो दूसरी तरफ़ इनमें अपने समय और समाज की अनुगूँज भी है। इससे पहले 2012 में उनका एक कहानी संग्रह 'चाँद से चिट्ठी आई है' भी आ चुका है।

दरअसल साहित्य समाज का आइना होने के साथ आने वाले समय के खतरों को पहचान कर चेतावनी देते हुए उससे बचने के उपक्रम सुझाता है। साहित्य सीधे तौर पर अपनी कहानी-कविता को लेकर ज़मीनी लडाई नहीं लड़ता लेकिन समाज को जागरूक करने, समझाने और सही बात को जन-जन तक आपने तमाम आयामों के साथ ले जाने के काम को बड़े ही सार्थक रूप से करता आया है और यह काम हर दौर, हर समय में साहित्य ने बखूबी किया भी है। आज़ादी के आन्दोलन का बड़ा उदाहरण हमारे सामने है। हमेशा ही राजसत्ता की मुखालफ़त करते हुए साहित्यकार ने आम लोगों के पक्ष में खड़े रहकर अपने समय की चुनौतियों का सामना किया है, प्रतिरोध करते हुए कई बार यातनाएँ भी सही है और यह काम लगातार हो रहा है, बिना किसी प्रश्रय, दबाव या थोपी गई प्रेरणा के साहित्यकार खुद अपनी स्वेच्छा से इन चुनौतियों को स्वीकार करता है।

यहाँ 'हरी चिरैया' के लेखक भी पत्रकारिता के पेशे में लंबे वक्त रहकर अब प्रकृति आधारित एक पत्रिका 'प्रकृति दर्शन' पत्रिका अपने निजी संसाधनों से निकाल रहे हैं। यह प्रकृति के प्रति उनकी गंभीर किस्म की प्रतिबद्धता ही है। वे यहाँ अपनी पूरी इच्छा शक्ति से लिखते हैं और इन आसन्न खतरों से हमें आगाह करते हैं, वे चेतावनी देकर महज डराते ही नहीं हैं, अपने किरदारों के ज़रिए वे समाज के लिए ऐसे सूत्र भी छोड़ते जाते हैं जिससे हम पानी संकट के इस अभूतपूर्व दौर में भी फिर से 'पानीदार' बनने का सपना पूरा कर सकते हैं। बंजर होती जा रही धरती को हरियाली की चुनर ओढ़ा सकते हैं। उजाड़ में छोटे-छोटे पौधों से पेड़ों का संसार रच सकते हैं। नदियों की असमय मौत के गाल में समाने से रोककर उन्हें सदानीरा बना सकते हैं। लगातार बढ़ते हुए तापमान को कम कर सकते हैं। कुएँ, कुण्डियों और बावडियों की बेशकीमती धरोहर को पानी के खज़ाने से लबालब कर सकते हैं। जंगलों, पहाड़ों और नदियों को जीवनदान दे सकते हैं। खेती को सहेज सकते हैं। इस तरह हम सिर्फ़ पर्यावरण, धरती या पानी को सहेजने तक ही सीमित नहीं होंगे, इससे हम अपनी ज़िन्दगी को भी बचा सकेंगे। पर्यावरण से ही हमारा जीवन है। जीवन और पर्यावरण कभी भी अलग नहीं हो सकते। पर्यावरण जैसे-जैसे बिगड़ता जा रहा है, हम कई तरह की लाइलाज बीमारियों से घिरते जा रहे हैं। हमारी औसत आयु कम होती जा रही है। हमारे शरीर का सहज प्रतिरोध तन्त्र कमज़ोर होता जा रहा है। हम ज़मीनी पानी से ही 'बेपानी' नहीं हुए, हमारे और हमारे गाँवों के चेहरे भी तेज़ी से फीके और बेपानी नज़र आने लगे हैं। हमारी आँखों का पानी भी लगातार कम होता जा रहा है। क्या हम आने वाली पीढ़ी को आज से भी कमज़ोर, बेपानी, बीमार और प्रकृति से कंगाल जीवन सौंपना चाहते हैं।




मनीष वैद्य
अमर उजाला शब्द छाप सम्मान से सम्मानित, कहानीकार, वरिष्ठ पत्रकार 


(प्रकृति संरक्षण पर केंद्रित मेरी कहानी संग्रह ‘हरी चिरैया’ पर मनीष जी द्वारा लिखी गई भूमिका...अवश्य देखियेगा। )


कल हरसूद, आज बक्सवाहा, कल जीवन स्वाहा


 

अगस्त का अंक- आलेख आमंत्रित 

ठूंठ मानसिकता और दांव पर भविष्य

दोस्तों राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ पर अगला विषय है- ‘पहले हरसूद, अब बक्सवाहा, कल जीवन स्वाहा’ आखिर महत्वकांक्षाएं कितने जंगलों को ठूंठ बनाकर उन्हें तबाह करेंगी। हरसूद एक ऐसा नगर जो सालों पहले हमेशा के लिए जलमग्न हो गया क्योंकि एक बांध बनना था, बन भी गया और हरसूद बैकवाटर में डूब भी गया...। मानव आबादी कहीं बसा दी गई, लेकिन क्या उस क्षेत्र के जीव, वन संपदा, पौधे, वृक्ष, पक्षी...जमीन के भीतर रहने वाले और प्रकृति के चक्र के महत्वपूर्ण हिस्सेदार रेंगने वाले जन्तुओं को भी बचाया जा सका...नहीं। खैर, यह सच है कि असंख्य वृक्ष ठूंठ में तब्दील हो गए...। हरसूद बीत गया...बीता हुआ कल हो गया लेकिन हमने उस दौर से क्या कुछ सीखा...? नहीं, हमने कुछ नहीं सीखा क्योंकि अबकी हरसूद की जगह बक्सवाहा है...और पानी, बिजली की जगह अब हीरे हैं...। सोचिएगा कितने बहाने, कितने महत्वकांक्षाएं ऐसे ही बलवती होती रहेंगी और जीवन से उम्मीद दूर होती जाएगी...। विकास के विलाप में कहीं जिंदगी बहुत पीछे छूटने जा रही है, उसे महसूस कीजिए। हरसूद जैसे सच और भी हो सकते हैं, आप लिखना चाहें तो अपने हिस्से का कोई ऐसा विलाप करता हुआ सच लिख सकते हैं। इस महत्वपूर्ण विषय पर यदि आलेख भेजना चाहें तो 21 जुलाई 2021 तक आप हमें ईमेल कर सकते हैं, अपना संक्षिप्त परिचय और फोटोग्राफ भी अवश्य भेजिएगा। 

संबंधित क्षेत्र के कोई फोटोग्राफ भी यदि आपके पास हों तो आप उपलब्ध करवा सकते हैं...। 

आप हरसूद पर लिख सकते हैं

आप बक्सवाहा पर लिख सकते हैं

आप ऐसा ही कोई और सच लिख सकते हैं...। 


संदीप कुमार शर्मा,

संपादक, प्रकृति दर्शन

ईमेल- editorpd17@gmail.com

व्हाटसऐप- 8191903651


(फोटोग्राफ साभार गूगल/पत्रिका)

‘हर बूंद अमृत’

 


दोस्तों मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ जुलाई का अंक कुछ देरी से आया है...क्षमाप्रार्थी हैं...। यह अंक दो हिस्सों में विभाजित किया गया है। पहला हिस्सा प्रकृति पुत्र आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा जी को समर्पित है, उनके जीवन को छूते कुछ संस्मरण...कुछ आलेख। दूसरा हिस्सा ‘हर बूंद अमृत’ बारिश की बेरुखी, बारिश के आने पर उसको लेकर हमें क्या करना होगा, क्या सोचना होगा और बारिश की बूंदें हमारे मानव जीवन के लिए क्या महत्व रखती हैं....यह सभी समाहित है...। कवर पेज ख्यात वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर आदरणीय अखिल हार्डिया जी, इंदौर, मप्र का है, आपके अवलोकनार्थ है...। 

बताते हुए हर्ष हो रहा है कि इस अंक में हमारे दो ब्लॉगर साथी भी इस अंक में अपनी रचनाओं के साथ हैं...। श्रीमती जिज्ञासा सिंह जी और श्रीमती कामिनी सिन्हा जी। आप दोनों को खूब बधाई...।

पत्रिका का यह अंक गूगल प्ले बुक पर भी उपलब्ध है, आप सीधे लिंक पर क्लिक कर उसे वहां से खरीदकर पढ़ सकते हैं। 

https://play.google.com/store/books/details?id=CaI3EAAAQBAJ



आज अभिनय खामोश हो गया...

 


ख्यात अभिनेता दिलीप कुमार साहब का निधन हो गया...मन ये खबर सुनकर कुछ पल के लिए ठिठक गया। एक जगह ठहरकर बैठ गया क्योंकि आज दिलीप साहब के साथ अभिनय भी खामोश हो गया है। ओह...उनकी भूमिकाएं याद आ रही हैं, उनके किए गए किरदार आंखों के सामने से होकर बारी-बारी गुजर रहे हैं। गोपी में एक नादान से युवक की बात कहें या कहें सौदागर के उस एक गुस्सैल मित्र की बात कहें, कर्मा के ईमानदार जेलर को महसूस करें....ओह आप सभी भूमिकाओं में खरे थे...। शहजादे सलीम का आपका अभिनय आज तक दिलों में कहीं ठहरा हुआ है। ओह अभिनय के कैसे-कैसे स्तंभ बनाए आपने, रचे आपने। आपकी संवाद अदायगी...या आप का चेहरा सभी माहिर थे हर फिल्म और हर चेहते के मन में जगह बनाने के लिए। दिलीप साहब का जाना मन को दुखी कर गया है...हालांकि उम्र के बाद इस सच से हरेक को होकर गुजरना है...। आप अपने अभिनय के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। 

फोटोग्राफ- गूगल से साभार। 

बच्चों की ऊंगली थामें, कल्पनालोक ले चलें

 











हमने कभी कल्पना का सुखद संसार करीब से देखा है, या जानने की कोशिश की है... या कभी कल्पना को आकाश पर किसी परिंदे के पंख पर बैठाकर भेजना चाहा है...। नहीं, तो शुरु करें...ये कल्पना लोक बहुत खूबसूरत होता है...। चंद्रमा को तकिया बनाने के लिए उसे सीढ़ी चढकर उतार लें, तकिया बना लें बहुत गुदगुदा है वो....। तारे भी मिलेंगे कोई अधिक चमकदार होगा उस पर चढ़कर अपने थैले में उसकी चमक दोनों हाथों से बटोर लाएंगे और आपस में बांट लेंगे...। सांझ बहुत अधिक शरमाती है, उसका घूंघट उस समय धीरे से हटा देंगे जब सूरज उसके आसपास मंडरा रहा होगा...। सूरज जब लाल होगा उसे कहेंगे थोड़़ी देर हमारे सफेद कपड़ों से लिपट जाए वो भी रंगीन हो जाएंगे...। तितली के पास तब पहुंच जाएंगे जब वो फूलों से दिल की बात कर रही होगी....। आओ प्रकृति के नेह आशीष में इतराती पत्तियों के मन को छू आएं। आओ कुछ फूलों की पत्तियों को छूकर देखें और उनके रंग पर शास्त्रार्थ हो जाए, आओ कुछ पक्षियों के साथ उनकी पीठ पर बैठाकर इस मन को चंद्रमा की सतह तक पहुंचा आएं...। 

दरअसल ये कुछ अटपटी पोस्ट है लेकिन मैं चाहता हूं हमारे जो बच्चे पहले जो कल्पनालोक में जीते थे, कल्पना की दुनिया में उनका बचपन सैर करता था अब कहीं न कहीं मोबाइल और आईपेड के जंजाल में उलझकर रह गए हैं, बेशक वे समय से पहले समझदार हो गए हैं लेकिन क्या आपका उनका बचपन छीनना अच्छा लग रहा है या उनका समय से पहले परिपक्व होना। अब बताओ मजा आया या नहीं...। भाई ये उदास सी बेरंग और रोज थका देने वाली दुनिया में मैं तो यूं ही ताजा हो जाता हूं, बच्चों को खूब हंसाता हूं और प्रकृति की गोद में जाकर सुस्ताता हूं....।

अरसा हो गया बारिश में नहाये हुए

उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर द...