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प्रकृति के बेहद ज़रुरी सवालों को उठाती कहानियाँ
कल हरसूद, आज बक्सवाहा, कल जीवन स्वाहा
अगस्त का अंक- आलेख आमंत्रित
ठूंठ मानसिकता और दांव पर भविष्य
दोस्तों राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ पर अगला विषय है- ‘पहले हरसूद, अब बक्सवाहा, कल जीवन स्वाहा’ आखिर महत्वकांक्षाएं कितने जंगलों को ठूंठ बनाकर उन्हें तबाह करेंगी। हरसूद एक ऐसा नगर जो सालों पहले हमेशा के लिए जलमग्न हो गया क्योंकि एक बांध बनना था, बन भी गया और हरसूद बैकवाटर में डूब भी गया...। मानव आबादी कहीं बसा दी गई, लेकिन क्या उस क्षेत्र के जीव, वन संपदा, पौधे, वृक्ष, पक्षी...जमीन के भीतर रहने वाले और प्रकृति के चक्र के महत्वपूर्ण हिस्सेदार रेंगने वाले जन्तुओं को भी बचाया जा सका...नहीं। खैर, यह सच है कि असंख्य वृक्ष ठूंठ में तब्दील हो गए...। हरसूद बीत गया...बीता हुआ कल हो गया लेकिन हमने उस दौर से क्या कुछ सीखा...? नहीं, हमने कुछ नहीं सीखा क्योंकि अबकी हरसूद की जगह बक्सवाहा है...और पानी, बिजली की जगह अब हीरे हैं...। सोचिएगा कितने बहाने, कितने महत्वकांक्षाएं ऐसे ही बलवती होती रहेंगी और जीवन से उम्मीद दूर होती जाएगी...। विकास के विलाप में कहीं जिंदगी बहुत पीछे छूटने जा रही है, उसे महसूस कीजिए। हरसूद जैसे सच और भी हो सकते हैं, आप लिखना चाहें तो अपने हिस्से का कोई ऐसा विलाप करता हुआ सच लिख सकते हैं। इस महत्वपूर्ण विषय पर यदि आलेख भेजना चाहें तो 21 जुलाई 2021 तक आप हमें ईमेल कर सकते हैं, अपना संक्षिप्त परिचय और फोटोग्राफ भी अवश्य भेजिएगा।
संबंधित क्षेत्र के कोई फोटोग्राफ भी यदि आपके पास हों तो आप उपलब्ध करवा सकते हैं...।
आप हरसूद पर लिख सकते हैं
आप बक्सवाहा पर लिख सकते हैं
आप ऐसा ही कोई और सच लिख सकते हैं...।
संदीप कुमार शर्मा,
संपादक, प्रकृति दर्शन
ईमेल- editorpd17@gmail.com
व्हाटसऐप- 8191903651
(फोटोग्राफ साभार गूगल/पत्रिका)
‘हर बूंद अमृत’
दोस्तों मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ जुलाई का अंक कुछ देरी से आया है...क्षमाप्रार्थी हैं...। यह अंक दो हिस्सों में विभाजित किया गया है। पहला हिस्सा प्रकृति पुत्र आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा जी को समर्पित है, उनके जीवन को छूते कुछ संस्मरण...कुछ आलेख। दूसरा हिस्सा ‘हर बूंद अमृत’ बारिश की बेरुखी, बारिश के आने पर उसको लेकर हमें क्या करना होगा, क्या सोचना होगा और बारिश की बूंदें हमारे मानव जीवन के लिए क्या महत्व रखती हैं....यह सभी समाहित है...। कवर पेज ख्यात वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर आदरणीय अखिल हार्डिया जी, इंदौर, मप्र का है, आपके अवलोकनार्थ है...।
बताते हुए हर्ष हो रहा है कि इस अंक में हमारे दो ब्लॉगर साथी भी इस अंक में अपनी रचनाओं के साथ हैं...। श्रीमती जिज्ञासा सिंह जी और श्रीमती कामिनी सिन्हा जी। आप दोनों को खूब बधाई...।
पत्रिका का यह अंक गूगल प्ले बुक पर भी उपलब्ध है, आप सीधे लिंक पर क्लिक कर उसे वहां से खरीदकर पढ़ सकते हैं।
https://play.google.com/store/books/details?id=CaI3EAAAQBAJ
आज अभिनय खामोश हो गया...
ख्यात अभिनेता दिलीप कुमार साहब का निधन हो गया...मन ये खबर सुनकर कुछ पल के लिए ठिठक गया। एक जगह ठहरकर बैठ गया क्योंकि आज दिलीप साहब के साथ अभिनय भी खामोश हो गया है। ओह...उनकी भूमिकाएं याद आ रही हैं, उनके किए गए किरदार आंखों के सामने से होकर बारी-बारी गुजर रहे हैं। गोपी में एक नादान से युवक की बात कहें या कहें सौदागर के उस एक गुस्सैल मित्र की बात कहें, कर्मा के ईमानदार जेलर को महसूस करें....ओह आप सभी भूमिकाओं में खरे थे...। शहजादे सलीम का आपका अभिनय आज तक दिलों में कहीं ठहरा हुआ है। ओह अभिनय के कैसे-कैसे स्तंभ बनाए आपने, रचे आपने। आपकी संवाद अदायगी...या आप का चेहरा सभी माहिर थे हर फिल्म और हर चेहते के मन में जगह बनाने के लिए। दिलीप साहब का जाना मन को दुखी कर गया है...हालांकि उम्र के बाद इस सच से हरेक को होकर गुजरना है...। आप अपने अभिनय के लिए हमेशा याद किए जाएंगे।
फोटोग्राफ- गूगल से साभार।
बच्चों की ऊंगली थामें, कल्पनालोक ले चलें
हमने कभी कल्पना का सुखद संसार करीब से देखा है, या जानने की कोशिश की है... या कभी कल्पना को आकाश पर किसी परिंदे के पंख पर बैठाकर भेजना चाहा है...। नहीं, तो शुरु करें...ये कल्पना लोक बहुत खूबसूरत होता है...। चंद्रमा को तकिया बनाने के लिए उसे सीढ़ी चढकर उतार लें, तकिया बना लें बहुत गुदगुदा है वो....। तारे भी मिलेंगे कोई अधिक चमकदार होगा उस पर चढ़कर अपने थैले में उसकी चमक दोनों हाथों से बटोर लाएंगे और आपस में बांट लेंगे...। सांझ बहुत अधिक शरमाती है, उसका घूंघट उस समय धीरे से हटा देंगे जब सूरज उसके आसपास मंडरा रहा होगा...। सूरज जब लाल होगा उसे कहेंगे थोड़़ी देर हमारे सफेद कपड़ों से लिपट जाए वो भी रंगीन हो जाएंगे...। तितली के पास तब पहुंच जाएंगे जब वो फूलों से दिल की बात कर रही होगी....। आओ प्रकृति के नेह आशीष में इतराती पत्तियों के मन को छू आएं। आओ कुछ फूलों की पत्तियों को छूकर देखें और उनके रंग पर शास्त्रार्थ हो जाए, आओ कुछ पक्षियों के साथ उनकी पीठ पर बैठाकर इस मन को चंद्रमा की सतह तक पहुंचा आएं...।
दरअसल ये कुछ अटपटी पोस्ट है लेकिन मैं चाहता हूं हमारे जो बच्चे पहले जो कल्पनालोक में जीते थे, कल्पना की दुनिया में उनका बचपन सैर करता था अब कहीं न कहीं मोबाइल और आईपेड के जंजाल में उलझकर रह गए हैं, बेशक वे समय से पहले समझदार हो गए हैं लेकिन क्या आपका उनका बचपन छीनना अच्छा लग रहा है या उनका समय से पहले परिपक्व होना। अब बताओ मजा आया या नहीं...। भाई ये उदास सी बेरंग और रोज थका देने वाली दुनिया में मैं तो यूं ही ताजा हो जाता हूं, बच्चों को खूब हंसाता हूं और प्रकृति की गोद में जाकर सुस्ताता हूं....।
अरसा हो गया बारिश में नहाये हुए
उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर द...
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सुबह कभी खेत में फसल के बीच क्यारियों में देखता हूँ तो तुम्हारी बातों के सौंधेपन के साथ जिंदगी का हरापन भी नज़र आ ही जाता है...। सोचता हूँ मु...
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फ्रांस का अध्ययन है कि 2000 से 2020 के बीच ग्लेशियर के मेल्ट होने की स्पीड दोगुनी हो चुकी है ये उनका अपना अध्ययन है, क्या करेंगे ग्लेशियर। स...
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लघुकथा अक्सर होता ये था कि पूरे साल में गर्मी का मौसम कब बीत जाता था पता ही नहीं चलता था क्योंकि घर के सामने रास्ते के दूसरी ओर नीम का घना व...