कान्हा आदर्शों की जिद हैं










कान्हा से भगवान श्रीकृष्ण हो जाना एक यात्रा है, एक पथ है, मौन का गहरा सा अवतरण। कान्हा हमारे मन के हर उस हिस्से में मचलते हैं, खिलखिलाते हैं, घुटनों के बल चलते हैं...जहां हम उन्हें अपने साथ महसूस करना चाहते हैं। कान्हा बचपन के शीर्ष हैं, कान्हा आदर्शों की जिद हैं, वे एक यथार्थ सच को बेहद सहजता से व्यक्त करना जानते हैं, वे कान्हा हैं और उनका होना हमें इस बात का भी अहसास करवाता है कि उम्र की ये समझदारी वाली सबसे छोटी सी गांठ बेशक दिखने में कमजोर होती है लेकिन भाव और अहसासों के बंध इसे मुखर बना देते हैं। कान्हा के बचपन के पूरे कालखंड को समझें तो स्पष्ट हो जाता है कि वे जो भी करते रहे, उन्होंने जो भी किया या इस संसार को जो भी दिखाया वो जटिलतम सत्य था जिसे उन्होंने अपनी शैली से आसान बना दिया। वो लीलाएं...वो ब्रज और वृंदावन की गलियों में घूमने का सत भी एक सत्य उजागर करता है कि ये आयु, ये जीवन...उसी राह चलेगा जिस राह इसे चलना है लेकिन वो राह, वो सफर हम कैसे सहज और सुंदर बना सकते हैं...उसे कैसे अपने अनुकूल ढाल सकते हैं...ये हमें हमारे आराध्य सिखाते हैं। वे कान्हा रहे, वे कान्हा आज भी हैं...घर.घर और हमारे मन के झूलते सिंहासन में...। वे इसी रुप में हमें अधिक पसंद हैं, भाते हैं, वे इसी तरह मन में गहरे और गहरे समाते हैं। वे जब कान्हा से श्रीकृष्ण हो जाते हैं तो एक अलग सी दिशा की ओर प्रशस्त हो जाते हैं, वे तब हमारी आस्था के परम हो जाते हैं, वे हमारे नेतृत्वकर्ता के रुप में नजर आते हैं। उनके वचन, उनके गीता के उपदेश...हमें उनके एक ऐसे जीवन से मिलवाते हैं जो आध्यात्मकता का शिखर है, तप का परिणाम, मौन का मुखर और आस्था का उजास...। वे श्रीकृष्ण होकर चंचल नहीं हैं, तब वे एक संगठित हैं, चरम हैं और श्रेष्ठतम होने के सर्वोच्च विचार जैसे सुखद...। उनका वो चेहरा, उनका श्रीकृष्ण हो जाना...हमारी राह प्रशस्त करता है, हमें सिखाता है...उस मौन को महसूस कर उस पथ पर अग्रसर होने की एक किरण दिखाता है। उनकी ये यात्रा हमेशा हमारे मन में गतिमान रहती है, हमारा मन उस यात्रा को महसूस करता है...वो परम की यात्रा...स्वर्णिम सी सुखद...।


फोटो गूगल से साभार 

सुधार का कोई शार्टकट नहीं होता

 


मैं जानता हूं कि जीवन में सकारात्मकता सबसे महत्वपूर्ण होती है, लेकिन यहां हालात वैसे नहीं हैं, हम केवल उत्सवी आनंद में जीने वाली विचारधारा के होकर रह गए हैं। हमें एक ही दिन खुश होना है, एक ही दिन परिवार के साथ बैठना है, एक ही दिन हंसना है, एक ही दिन भरोसा दिखाना और निभाना है और एक ही दिन इस प्रकृति की भी चिंता करनी है। ये हमारी आदत का हिस्सा हो गया है, तपती हुई धरती अगर यूं ही तपती रही तो उसे आग का गोला हो जाने से कोई नहीं रोक पाएगा। आग का गोला हो जाने के लिए उससे लपटें उठनी जरुरी नहीं हैं, यदि पक्षी ताप को नहीं सह पा रहे हैं वे असमय मारे जा रहे हैं तो पृथ्वी आग का गोला हो रही है, जमीन पर दरारें अपना कद गहरा कर रही हैं मतलब पृथ्वी आग का गोला है, पक्षी छांव तलाश रहे हैं, वृक्ष सूखकर केवल ढांचा रह जा रहे हैं, क्रम टूट रहा है, बारिश दरक रही है, ठंड हठी हो गई है, तूफान बेकाबू हो रहा है, गर्मी अपनी जिद ठान बैठी है, तापमान के बढ़ने की चिंता माथे पर है लेकिन हम केवल एक ही दिन विचार करेंगे, एक ही दिन कार्य करेंगे, मैं जानना चाहता हूं रोज क्यों नहीं, हर पल, हर घंटे, हर सुबह, हर मौसम में, हर उत्सव में प्रकृति और उसकी चर्चा क्यों नहीं...। दो कारण हैं क्योंकि डरते हैं कि जो रहा है उसे हम नहीं सुधार पाएंगे, दूसरा ये कि हम तो अपनी सोचें सुधार पर कोई और सोच लेगा...। ओह विचारों में कितने गहरे जाले लगे हैं, जाले भी ऐसे जो हमें खुद अपने आप से मिलने नहीं दे रहे हैं, हमारी सच्चाई खुद अपने आप तक नहीं पहुंच पा रही है। सोचिये अपै्रल के आरंभ में ही मप्र के कुछ हिस्सों में तापमान 45 तक पहुंच जाता है। अभी भी हालात यह हैं कि देश के अनेक हिस्सों में बारिश न होने से तापमान कम नहीं हुआ है। 

मैं पूछना चाहता हूं तापमान बढ़ रहा है तो यूं ही बढ़ता जा रहा है, जब छोटा था तब एक चक्र था, ठंड, गर्मी और बरसात, अब एक एक दूसरे से धक्का मुक्की में क्यों हैं, तूफान पहले क्यों बेबाक नहीं हो रहा था, अब जिद क्यों ठान रहा है, कभी नहीं सोचा था कि अपने बच्चों के बचपन तक चिंता गहरी हो जाएगी। जबसे समझना आरंभ किया है अपनी बात रखने का कोई अवसर नहीं जाने दे रहा हूं।  कौन रोकेगा इस धरती को गोला हो जाने से....कोई नहीं आएगा और कोई जादू भी नहीं होगा, ये यूं ही तपती जाएगी और एक दिन हम सभी इसमें होम जाएंगे, पक्षी कमजोर हैं, मासूम हैं इसलिए वे पहले मुसीबत से सामना कर रहे हैं, इसके बाद हमारी बारी है...। सुधार का कोई शार्टकट नहीं होता, सुधार के लिए पौधे रोपने होंगे, उन्हें ईमानदारी से अपने बच्चों की भांति परिपक्व बनाना होगा...और कोई रास्ता नहीं...। जाग जाएं सवेरा हम बना सकते हैं वरना स्याह दिन तो हमारी ओर खिसक ही रहा है....।

बुजुर्ग यदि केवल घर पर हैं तो वे बच्चों को साथ लेकर इस कार्य को बेहतर तरीके से कर सकते हैं, पूरा परिवार माह में एक पौधा रोपने की जिम्मेदारी ले और उसे पोषित भी करे...।

- ये प्रकृति संरक्षण का अभियान है, बेहतर समझें तो अपनी बात लिखकर इसे शेयर अवश्य करें..।


प्रकृति और सुधार की बातें करेंगे


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हम प्रकृति बदलना चाहते हैं, हम पर्यावरण सुधार के लिए एक पत्रिका निकाल रहे हैं, आप पहले पत्रिका देखें और तय करें कि आपको हमारे साथ आना चाहिए या नहीं। हम इतना चाहते हैं कि प्रकृति में सुधार केवल किसी के प्रयासों से नही होगा उसके लिए सभी को समग्र प्रयास करने होंगे। हम पौधारोपण कर रहे हैं उन पौधों का जो प्रकृति के मित्र पौधे हैं, आप भी हमारे साथ आना चाहते हैं तो स्वागत है...पत्रिका डिजिटल मोड पर भी उपलब्ध है उसके लिए आप वेबसाइट या सोशल मीडिया के किसी भी लिंक पर क्लिक कर सकते हैं। हमारा निवेदन है कि प्रकृति ऐसी ही रही तब निश्चित मानियेगा कि हमारे बच्चों का भविष्य बहुत खतरे में है...सोचिएगा मत अब अपने अपने क्षेत्र में पौधे लगाईयेगा...बेहतर हो तो नीम, पीपल, आंवला, तुलसी या प्रकृति को संवर्धन देने वाला कोई और पौधा....। प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका केवल वैचारिक दृढ़ता लाने का एक प्रयास भर नहीं है हम चाहते हैं कि आम व्यक्ति प्रकृति को समझे और अपनी जिम्मेदारी मानकर उसके सुधार के लिए आगे आए। जमीनी कार्य हों, विचारों से जागरुकता आती है लेकिन सुधार तो जमीनी कार्य से ही नजर आता है। यही कारण है कि पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही हम गोपालदत्त शिक्षण समिति, एनजीओ के साथ मिलकर ‘हरी हो वसुंधरा’ पौधारोपण अभियान संयुक्त तौर पर चला रहे हैं, इसमें नीम, पीपल, आंवला, तुलसी का रोपण किया जा रहा है, हमारा उद्देश्य पौधों को वृक्ष बनाना है। अब तक पत्रिका ने देश और दुनिया के पर्यावरण से संबंधित सभी प्रमुख विषयों पर अपने अंक प्रकाशित किए हैं...अधिक जानकारी के लिए आप वेबसाइट पर देख सकते हैं।

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अगला अंक- जलवायु परिवर्तन, भूस्खलन, अतिवृष्टि पर...आलेख आमंत्रित हैं

दोस्तों प्रकृति में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है, न समय पर बारिश है, कहीं है तो कहीं सूखा ही रह गया, अगस्त आधा बीतने को है लेकिन तापमान कम नहीं हो रहा है और मौसम चक्र तो पूरी तरह से गड़बड़ हो चुका है। पर्वतीय हिस्सों में पहाड़ खिसक रहे हैं, हिमाचल और उत्तराखंड में गंभीर हालात हैं, साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में अतिवृष्टि भी चिंता बढ़ा रही है...और हम विकास को लेकर सरपट भाग रहे हैं...ऐसे में क्या होगा और कैसा होगा भविष्य, क्या करें कि इन संकटों पर हम जीत दर्ज कर सकें....। 

राष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ का सितंबर माह का अंक ‘जलवायु परिवर्तन, भूस्खलन, अतिवृष्टि’ पर केंद्रित रहेगा। इस महत्वपूर्ण अंक के लिए आलेख आमंत्रित हैं। 

आप आलेख/संबंधित विषय पर रचनाएं 20 अगस्त तक मेल कर सकते हैं...।

 लेखन वाले साथियों को शेयर कीजिएगा

दोस्तों यदि आप प्रकृति का संरक्षण चाहते हैं तो लिखिये और अपने लेखन से जुड़े साथियों तक इस संदेश को शेयर कीजिएगा। हमारा उददेश्य बेहतर अंक निकालने का है जो संबंधित विषय की प्रबलता से आवाज बन सके। 


संदीप कुमार शर्मा

प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका

ईमेल- editorpd17@gmail.com

मोबाइल/व्हाटसऐप- 819190361




हौंसले के पैरों खड़ा अब तक

हमने तो कसर न की उसे मिटाने की, 

वह है हौंसले के पैरों खड़ा अब तक

प्रकृति ने हमें जीवन दिया और हमने उसके शरीर की शिराओं में काला जहर घोल दिया है...। पता नहीं हम कैसे हैं...हमने प्रकृति पर आंखें मूंद रखी हैं...। मैं काफी देर ठिठका सा रह गया... वो पेड़ अपने आत्मबल पर खड़ा था वरना हमने तो उसकी जड़ों में जहर घोल ही दिया है...। हम ऐसे ही तो नहीं थे, लेकिन ऐसे हो गए कैसे गए और क्यों ? क्यों हमें यह नहीं लगता कि जो श्वास देते हैं, जीवन देते हैं, पानी देते हैं, उम्मीद देते हैं, छांह देते हैं, हरियाली देते हैं उन्हें आखिर हम क्या दे रहे हैं वह काला पानी और उसका वह अनचाहा जहर। ओह...मैं नहीं समझता कि जिंदगी में इससे प्रमुख कुछ है कि हम प्रकृति पर यदि उदासीन हैं और पूरी उम्र उदासीन बने रहते हैं तब यकीन मानिये कि हमने जीवन जीया ही नहीं, हम तो केवल एक उम्र का सफर तय कर रहे हैं। खैर, मुझे यह दर्द हर जगह गहराई तक आघात करता है...। 




अहा...वह पानीदार साथ




अब भी याद है कि जब मैं प्रकृति संरक्षण पर आधारित पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ का विमोचन करवाने के लिए जलपुरुष आदरणीय राजेंद्रसिंह जी के पास पहुंचा था, हालांकि वह उनसे मेरी दूसरी मुलाकात थी, लेकिन सर्वथा वह पहली ही मानता हूं क्योंकि पहली मुलाकात के समय हमने उन्हें दर्शक दीर्घा में केवल सुना था, तब सोचता था कि आखिर इस इंसान को कैसे बनाया होगा उस ईश्वर ने, लेकिन जब पत्रकारिता के क्षेत्र में दाखिल हुआ तब सीखता गया और समझता गया और जब हिम्मत जुटाकर प्रकृति के लिए हर तरह से कार्य करने को अपने आप को तैयार कर लिया तब आदरणीय राजेंद्रसिंह जी मिलने का मन बनाया, मुझे मदद की आदरणीय जय नागड़ा जी ने। उन्होंने भाईसाहब का नंबर भी दिया और मुझे साहस भी। आखिरकार तिथि तय हो गई और जगह भी। दिल्ली में गांधी पीस फाउंडेशन में आदरणीय भाईसाहब ने समय दिया, हम अर्थात मैं और पत्रिका के प्रबंध संपादक बालादत्त शर्मा तथा महत्वपूर्ण सहयोगी धर्मेंद्र चौहान उतावले थे और समय से बहुत पहले पहुंच गए। कुछ देर बाद एक सहज सी मुलाबात के बाद उन्होंने सभी को स्नेह से गले लगा लिया और कहा पहले नाश्ता करेंगे उसके बाद विमोचन। नाश्ता आपके साथ ही हुआ और बहुत सी गहरी बातें...मुझे लगा जिसे ये जिंदगी अंदर से गढ़ती है तब उसे पूरी तरह तराशती है इसमें बेहद कठिनाई अवश्य है लेकिन जब व्यक्ति निखरता है तब कोई राजेंद्रसिंह तैयार होकर जलपुरुष हो जाया करते हैं। वह लगभग एक घंटे का साथ, मुझे पानीदार बना गया, उनके शब्द प्रकृति की इस पत्रिका में साहस का ऐसा खाद भर गए कि इसे अंकुरित तो होना ही था...। 

खूब बधाईयां और आपको आदरणीय भाईसाहब...ईश्वर आपको लंबी उम्र दे, ताकि इस प्रकृति, धरा और पानी के लिए हम सभी आपके नेतृत्व में मिलकर सार्थक प्रयास जारी रखें...

स्ंदीप कुमार शर्मा,

संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका

 

गहराइयों में बसा शहर


गहराइयों में बसा शहर, गहराइयों से बसा शहर, गहराइयों के लिए बसा शहर। ये गहराई एक पूरी उम्र की ईमानदार दौलत है। इसके हर हिस्से में मौन खनकता है। ये उस गहरे से शख्स के मन में बसा हुआ शहर है जो रोज, प्रतिफल इन्हीं गलियों में रैदासी विचरण करता है, ये एक सभ्यता है जो मन के धरातल पर ही बसती है। सोचता हूं गहराई का कोई तो दूसरा सिरा होगा, कोई दूसरा छोर... वो कितना सख्त बंधा है कभी खुलता नहीं, कभी उस ओर से सलवटें भी नहीं आतीं....

दोस्तों ये एक ऐसे गहरे कलाकार की कलाकृति है जो गहराई ही खोज रहा है, जीवन और आर्ट दोनों में... आदरणीय बैजनाथ सराफ, वशिष्ट जी की कला को आप भी देखिये और उस को महसूस कीजिए...। आपने ख्यात पार्श्व गायक किशोर कुमार की जन्मस्थली खंडवा, मप्र का नाम सुना होगा...आदरणीय बैजनाथ सराफ भी उसे धरती से हैं, उनके आर्ट का मूल विषय है गहराई....। जब भी आपसे बात हुई एक ही शब्द दोहराया जाता है वह है गहराई...ओह गहराई जब देखनी है तब आप उनके आर्ट को देखिये....आपका लगेगा कि वाकई गहराई की कोई थाह नहीं होती, कोई सख्त जमीन नहीं होती, केवल गहराई है और उसका दूसरा छोर अब तक आदरणीय बैजू दा खोज रहे हैं...। खूब बधाई आपको।

बधाई बैजू दा। हमें गर्व है कि हम आपके करीबी, आपके छोटे भाई हैं। धन्य है वो धरती जो आपकी कला की साक्षी बन पाई।
 



आदरणीय बैजनाथ सराफवशिष्ट जी

 


 

अरसा हो गया बारिश में नहाये हुए

उम्र तो उम्र होती है, क्या फर्क पड़ता है, छाता लेकर ही बारिश में निकला जाए जरुरी तो नहीं। कभी छाते के बिना और कभी छाता उल्टा लेकर भी निकलकर द...