सिखाता तो ज़र्रा भी है...सीखते जाईये

 


हम जब पिता की उंगली थामकर चलना सीखते हैं तब सबसे अधिक भरोसा भी उन्हीं पर करते हैं, एक दिन पिता उंगली छोड़ देते हैं ताकि हम अपना नियंत्रण अपने शरीर, जीवन पर बना सकें, हम सामन्जस्य बनाना सीखें हालात और राह से। एक दिन हम चलने लगते हैं, पिता के बिना भी। एक दिन केवल हम चलते हैं पिता नहीं होते, लेकिन तब हम अपने बुने रास्तों पर चलते हैं, तब आपको कोई रोकता नहीं है और न ही आप पीछे मुड़कर देखते हो...। यही प्रकृति है और यही सच। किसी ने सच ही तो कहा है ये पूरी उम्र एक विद्यालय है और यहां हरेक ज़र्रा आपको सिखाता है, आप उम्र के थकने तक सीखते ही रहते हैं, सीखना एक बेहतर प्रक्रिया है क्योंकि आप जाग्रत होते हैं, अंदर कहीं अपने अंदर ठहर नहीं जाते, जो सीखते नहीं है वह कहीं ठहर चुके हैं, समय से सीखते जाईए और जो भी वह आपको सिखाए उसे सहर्ष आत्मसात कीजिए क्योंकि समय वह सिखाता है जो हमारे लिए जरुरी होता है। 

सोचता हूं कितनी सशक्त है प्रकृति और कितना सशक्त है उसके हरेक ज़र्रे का आत्मबल। सीखते जाईये क्योंकि सीखना एक अच्छी आदत होती है, उनसे भी सीखिए जो आपको पसंद करते हैं, उनसे भी सीखिए जो आपको नापसंद करते हैं, मैं तो कहना चाहता हूं उनसे अधिक सीखिए जो आपके व्यवहार के प्रतिकूल सोचते हैं, भूलिए मत कि इस मौजूदा दौर में हरेक व्यक्ति एक युनिवर्सिटी हो चुका है, कोई कहकरा सीखकर कोई कहाकरा अपनाकर। एक दिन सीखते-सीखते सभी उम्रदराज हो जाएंगे, चेहरे पर सभी के उम्र एक नक्शा खीचेंगी, संभव है वह भयावह हो और संभव है वह आपके अनुभव की किताब के तौर पर पढ़ा जाए। इस प्रकृति में कुछ भी तो स्थायी नहीं है, मौसम बदलते हैं, सौंदर्य बोध से इठलाने वाले फूल और पत्ते एक दिन स्वतः ही झर जाते हैं और जमीन पर आ जाते हैं। तपिश को गुमान होता है तो बारिश उसका भ्रम तोड़ देती है, सोचिए कि उस परमपिता को इस संसार के असंख्य प्राणियों, वृक्षों, पंच महाभूतों के तंत्र से चलने वाले सिस्टम को संचालित करना होता है, लेकिन वह फिर भी सीखता है, हरेक बार आपको निराशा होती है कि प्रकृति बदल गई है लेकिन ऐसा कुछ होता है कि आप दोबारा भरोसा करते हैं कि अभी उम्मीद बाकी है। 

सीखते जाईऐ दोस्तों यह दुनिया बहुत कुछ सिखाती है, वह भी जो आप सीखना चाहते हैं, वह भी जो आप नहीं सीखना चाहते हैं, वह भी जिसे आप पसंद करते हैं और वह भी जिसे आप नापसंद करते हैं, यह सभी सिखाएगी। आत्मसात कीजिए और आत्ममंथन भी कि इस दौर में यदि जीना है तो हरेक व्यक्ति में अपना एक सबक तलाशिये, हरेक सबक को आत्मसात कीजिए और बेहतर करते जाईऐ...। संभव है कि आपको यह भी लगने लगे कि सब आपकी मर्जी के खिलाफ हो रहा है लेकिन फिर भी सीखिए कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है, सीखिए कि आप हमेशा एक विद्यार्थी हैं, इस संसार को उस परमपिता ने रचा है और इसमें कितना कुछ है आप वह पूरी तरह कभी नहीं खोज सकते, आप देखेंगे तो आप एक तिनके हैं जिसका अपना ओरा है, जानने को पूरी दुनिया है, खूब सीखिए और समझिये क्योंकि सीखने से आप संभव है तकलीफ के समय में भी मुस्कुराना सीख जाएं और मेरे दोस्त यह भी कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। सौंदर्य बोध सभी को होता है और सभी इस दुनिया में एक कोरे कागज की तरह जन्म लेते हैं, लेकिन मुख्य तो यह है कि जब इस दुनिया में रहते हुए हम उम्रदराज हो जाएं तो हमारे जीवन की किताब एक बार अवश्य देखनी चाहिए कि हमने उस पर कितना खरा और कितना सहज लिखा है, हम कितना सच लिख पाए, कितनी बेहतर सोच उकेर पाए, कहीं यह तो नहीं कि हमारी यह किताब केवल लकीरों से भरी हुई है, केवल यह तो नहीं कि हम इस पर लिखना कुछ और चाहते थे और लिख कुछ और ही गए, कहीं ऐसा तो नहीं कि यह खाली ही रह गई, कहीं ऐसा तो नहीं कि इस पर हमने कोई जंजाल उकेर दिया जिसमें कहीं न कहीं हम स्वयं उलझकर रह गए और जिसे हम नहीं लिखना चाहते थे। कुछ भी हो सकता है और कुछ भी सोचा जा सकता है, यह जीवन दर्शन है....चर्चा करते रहेंगे...दोबारा फिर किसी और विषय पर मंथन के साझीदार होंगे....। तब तक अपना ध्यान रखें और हरेक पल सीखें।  

आपको एक सलाह और देना चाहता हूं कि एक किताब है विवेकानंद के विचारां पर ‘स्मृति सीमा से परे सोचने का तरीका’ अवश्य देखिएगा आपको बहुत कुछ नया मिलेगा। 


संदीप कुमार शर्मा, ब्लॉगर

एक वृक्ष...चार पंछी

यह तस्वीर मौजूदा दौर की सबसे खरी अभिव्यक्ति है, हममें से हरेक इसी तरह तो  जी रहा है...। हरेक अंदर से गहरे मंथन में हैं, वृक्ष पर बिना पत्तों की शाखें हैं, पक्षियों के समाज में हमसे जुदा कुछ होता है, वे साक्षी होते हैं और बदलावों को आत्मसात भी करते हैं, लेकिन धैर्य नहीं खोते... शाख और वृक्ष नहीं छोड़ते, अकेले नहीं उड़ते, एक दूसरे के प्रति प्रतिबद्ध... ओह यह सब हमें, हमारे समाज को समझना होगा। कितना अंतर है दो जीवात्माओं में...हम इंसान होकर बेसब्र हो उठते हैं और पक्षी शांत रहते हैं जबकि दोनों उसी प्रकृति में जीते हैं। वे अब तक मौसम बदलने में भरोसा रखते हैं और हम कहीं न कहीं अंदर से हार रहे. हैं, बेजान हो रहे हैं...सोचिएगा कि सूखी शाखें कितनी भयभीत करती होंगी, बावजूद इसके कोई शिकायत नहीं। आपने देखा होगा कि ऐसे भी परिंदे है जो सूखे वृक्षों पर ही घौंसला बनाते हैं, नवजीवन को सृजित करते हैं, वे मौसम के बदलने की राह देखते हैं... हरियाली को देख उस सूखे वृक्ष का त्याग नहीं करते बल्कि उसे हरा होने का हौंसला देते हैं...। समझिए तो जीवन है न समझे तो सूखने वाले एक दिन सूख जाएंगे और जिन्हें हरा होना है वह उम्मीद को जीवित रखते हैं...।

 

समय, तपिश और यह दिवस

 


मंथन कीजिएगा कि हम मौजूदा किस समय में हैं और बीता समय कैसा था, बहुत अंतर है दोनों में, साथ ही यह भी चिंतन कीजिएगा कि यह विश्व पर्यावरण दिवस का जो दिन है क्या वह अब भी उचित है या इस तिथि में बदलाव होना चाहिए। मैं केवल इसलिए ऐसा सोचता हूं क्योंकि इस दिन हजारों लाखों पौधे रोपे जाते हैं और तापमान भी इसी समय पर बढ़ता है, पौधे रोपे जाने चाहिए लेकिन समय और परिस्थितियां अनुकूल हैं या नहीं यह भी तो देखा जाना चाहिए, हम हर वर्ष लाखों पौधे रोपते हैं लेकिन क्या यह भी बारीकी से देखा और परखा गया कि उनमें से कितने पौधे धरा हैं, वृक्ष बनने की ओर अग्रसर हैं और कितने हैं जो गर्मी की भेंट चढ़कर झुलस गए। यदि मौसम चक्र बदल रहा है और हमने अपनी दिनचर्या को उस तपिश के अनुसार ढाल लिया है तो यह एक दिन आखिर क्यों उसी तरह से और उसी ढर्रे में मनाया जा रहा है, संभव यह भी तो हो सकता है कि इस तिथि को बदलकर मौसम की उन अनुकूल परिस्थितियों के आसपास ले जाया जाए ताकि अधिक से अधिक बीज और पौधे समय पर बारिश और रखरखाव को पाकर अंकुरित हो सकें। इस तरह असंख्य पौधे रोपकर हम बेशक यह महसूस कर लें कि हमने एक महत्वपूर्ण कार्य कर लिया है, लेकिन सोचिएगा कि उन पौधों में से कितने पौधे बारिश के आने तक धरा पर इस तपिश को सह पाते हैं, कितने पौधों को हम ध्यान रख पाते हैं, कितने पौधे संरक्षित हो पाते हैं। ऐसे अंकुरण जरुरी हैं लेकिन दिन और परिस्थितियों पर भी बात करनी चाहिए क्योंकि यह कोई आंखें मूंद लेने और सच को झुठला देने जैसा नहीं है क्योंकि वह तो हम सालों से करते ही आ रहे हैं, लेकिन चहिए एक दिन पूरी निष्ठा से आगे आते हैं तो कुछ विचार इस दिशा में भी कीजिएगा, संभव है मेरी बात से सभी सहमत न हों लेकिन अपने विचार रखिएगा क्योंकि कुछ नया विचार सामने आएगा...। धरती और प्रकृति सभी की है और सभी उसे संरक्षित करेंगे तभी हम उसे श्रेष्ठ बनने में मदद कर पाएंगे। सीधे अर्थों में कहना यही है कि सालों पुराने इस दिवस को इसी दिन क्यों मनाया जाए और क्या इस तिथि को अनुकूल परिस्थितियों वाले समय की ओर ले जाना चाहिए सोचिएगा ? 

हमें समझना होगा कि जब सहज परिस्थितियों में हम प्रकृति को बेहतर बना सकते हैं, पौधे रोप सकते हैं, उन्हें वृक्ष बना सकते हैं तो इतनी विपरीत और झुलसती हुई परिस्थितियों में हम क्यों इसे जरुरी मानते हैं...। 

बेहतर तो होगा हम अपनी आदत बदल लें और हमें हरेक अनुकूल दिन पर्यावरण दिवस की तरह ही श्रेष्ठ महसूस हो...और हम इस एक दिन कर्म को हरेक दिन में अधिक आसानी से कर पाएंगे। 


संदीप कुमार शर्मा

संपादक, प्रकृति दर्शन, राष्ट्रीय मासिक पत्रिका 

मोबाइल 8191903651

ईमेल   editorpd17@gmail.com

पर्यावरण और जीवन पर तम्बाकू का खतरा

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर डब्ल्यूएचओ ने अपनी एक रिपोर्ट पर ध्यान दिलवाते हुए स्पष्ट चेताया है कि भविष्य में तम्बाकू से हो रहे पर्यावरणीय औ...