बचपन, घरौंदा और जीवन

कितना आसान था बचपन में पलक झपकते घर बनाना... और उसे छोड़कर चले जाने का साहस जुटाना... और टूटने पर दोबारा फिर घर को गढ़ लेना...। बचपन का घर बेशक  छोटा और कमजोर होता था... अपरिपक्व सोच लेकिन उसे आकार दे दिया करती थी...घर बनाकर हर बार खिलखिलाती। कितना कुछ बदल जाता है हमारे अल्लहड़ होने से सयाने होने तक। बचपन कई घर बनाता है और सयाने होने पर बमुश्किल एक...या नहीं। बावजूद इसके सयानेपन वाले घर में भी बचपन का घर ही क्यों याद आता है... इसके जवाब सर्वथा भिन्न हो सकते हैं। हममें से कई सोचेंगे कि बचपन तो बचपन होता है... हकीकत की जमीन बेहद सख्त है। यदि बचपन वाकई बेअसर है तो साहित्य और शब्दों में उसकी आवश्यकता क्या है...? यदि बचपन हमारे बड़े होने तक जरूरी है तो वह पीछे क्यों छूट जाता है। बचपन के महकते घर बेशक मिनटों में धराशायी हो जाया करते हैं लेकिन उनकी दीवारें सालों हमारे जीवन के भाव सहेजती हैं। हमें अपने सयानेपन के घर में वह सुख तलाशना पड़ता है जो बचपन का घर स्वतः दे दिया करता था। खैर समय की पीठ पर सवार बचपन हमें छोड़ हजार योजन दूर निकल जाता है... हमें सयानेपन की चौखट पर छोड़कर।।। उम्र कई बार पलटकर देखती है उस मासूमियत को मुस्कुराता पाती है... और ठंडी श्वास लेकर मशीन हो जाती है। सयानेपन के घर की दीवारें और कायदे हम बनाते हैं और बचपन के घर के कोई कायदे नहीं होते क्योंकि बचपन बेकायदा और निर्मल होता है। बहरहाल जीवन में हम सयानेपन से कायदे गढ़ लेते हैं लेकिन वही हमारे लिए एक दिन तंगहाल हो जाते हैं... कायदों में जीने वाले हम बेकायदा होकर बचपन पर लंबी जिरह का हिस्सा हो जाते हैं। खैर, जिंदगी अपनी अपनी चाहे जैसे बुनों...कौन रोक सकता है...?

पर्यावरण और जीवन पर तम्बाकू का खतरा

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर डब्ल्यूएचओ ने अपनी एक रिपोर्ट पर ध्यान दिलवाते हुए स्पष्ट चेताया है कि भविष्य में तम्बाकू से हो रहे पर्यावरणीय औ...